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मानस्दवनप्रन्यप्राताया: पद्ददर्श पुष्प

श्री शिवमहिम्नः सवोन्नम्‌ स्फत्द्कातिकस हित

वात्तिककार -- मद्दामण्डलेशबर भीस्वामिकाशिकानाःदयतिः

प्रकाशक --

श्री काशिकानन्द जी दृृस्ट आनन्दवन आश्रम

स्वामी विवेकानन्द रोड कांदीवली ( पश्चिम ) वम्बई-४०००६७

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प्रथमावृत्ति १००० श९्८रे

मूल्य ; ३०९००

सर्वाधिकार सुरक्षित

परिचय

गन्धर्वराज पुष्पदन्तविरचित शिवमहिम्नः स्तोञका स्माे समुदाय में इसना भारी आदर है कि रुद्वाभिषेकर्स रद्रपश्चलमाध्यायके स्थान पर तथा स्वतन्त्रर्पेण भी इसका प्रयोग करते हैं। अर्थात्‌ इसे वेदतुल्य ही मानते हैं। “भारतं पश्चमों वेद:” जैसी प्रत्तिद्धि है वैसे महिम्नःस्तोत्रकी ढ्वितीय रुद्ररुपमें प्रसिद्धि है। इसमें एक कारण विययगाम्मीर्य है। रदाध्याय- को दशद्रोपनिषद भी कहते हैं। उसमें सर्वात्मरूपेण शिव वर्णन है। “कद्रोपनिषदप्पेवं स्तौति सर्वात्मकं शिवम्‌” ) “नमस्ते णद्र” इत्यादिमें नमस्कारवचन होनेसे वह स्तुतिहूप है। भक्तिपूर्ण है- साथ ही अद्वैतश्षिव- वर्णनात्मक भी है। वैसे महिस्तःस्तोन्न भी “प्रणिहितनमस्यो$स्मि” “मो नेदिष्ठाय” इत्यादिसे उक्तार्थको छेकर नमस्कार सहित है। भक्तिपूर्ण है। तथा परमतत्त्ववर्णनात्मक है द्वितीय रुद्ररूपेण प्रसिद्धिमे विषय गाम्भीय॑ जितना सहायक हुआ उतना ही क्तू गौरव भी हुआ

भहिम्नःस्तोत्ररचपिता

इस स्तोन्नके रचयिताके रूपमें गन्धवेराज पुष्पदन्तकी प्रसिद्धि है जो भगवात्‌ दाकरके गणोमै एक माने जाते हैं वहाँ तक तो हमारी पहुँच नही है कि हम यह कह सकें कि वे गण कितने विद्वान थे और कंसे थे किन्तु कथा सरित्सागरके अनुसार ये ही पुष्पदन्त पार्वेतीज्ञापसे वररुचि या कात्यायन नामसे भूतछमें अवतीर्ण हुए जो महपि पाणिनिके साथ सम्बन्धित थे। जतएवं कथासरित्सागरके अनुमार ये पुष्पदन्त वे ही क्लात्यायत हैं जिखोंने पाणितरीम़ अ्रष्दाध्यायी पर विववविश्वत्त बात्तिकग्रन्य की रचना की हरिवंश पुराणमें भी पुष्पदन्त और पराणिविकों एक ही जगह नाम ग्रहण पूर्वक चर्णन कमा है। एवं अन्य पुराणों तथा महा- भारतमें भी ऐसी ही बात उपलब्ध हीती है।

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महधि विश्वामित्रके वंशमे कति तामके एक ऋषि हुए। उन्हींके वशजोको कात्यायन नामसे पुकारने छगे। जगेक कात््यायन होनेसे एक जगह कात्यायनगण भी ताम लिखा है। राभवत उसीको कछेकर शकर सबधसे दकरवे गणके रूप प्रसिद्धि हुई हो और कथासरिस्सागरादिकारोने झकरगणके झूपमे वर्णन किया हो विश्वामित्र वशज कात्यायनने कात्या- यन ओऔतमृत्र कात्यायन गृह्मसूत तथा श्रतिहारसूम्रकी रचता की। शुक्ल यजुर्वेदेक आगिरसामत शाखा के भ्रवत्तेक भी कात्यायन ही है जिसका प्रसार ॒विन्ध्याचलसे दक्षिणमे महाराष्ट्रपर्यन्त है, स्कन्‍्दपुराणमे इस कात्यायतको याशवल्वयका पृन्न बताया है। परतु याज्ञवस्वमकी एक पत्नी का नाम कात्यायनी ( सभवत गोत्र माम ) होनेसे समोत्त विवाहकी उप- पंत्ति कैते यह्‌ शका हो सकती है॥ इसका उत्तर यही हो सकता है कि बह गौज नाम होकर कात्यामनस्य स्त्री कात्यायनी ऐसा अर्थंबाल्ा सामे हो। याज्वल्वय कात्यायन गोसका हो तो ऐसा अर्थ सभव है। या कात्या- यतीके पितृवशीयकों पुतरूुपेण स्वीकार करनेसे कात्यामन याज्वल्क्य पुन्न माने गये हो

कुछ लोग भौतसूच्र रचमिता कात्यायन तथा व्याकरण वासिव रचयिता कात्यायनको अलग मानते हैं। वात्तिककार कात्यायत सोमदत्त पुन्न वरदचि कात्यायत है। वररुचिको विक्रमादित्यके सभा पण्डित भी चहुतसे छोग मानते है। इस मतका विरोध या समर्थन दोनो ही अनुषयोगी है। क्योकि जब कात्यायन गण ही हो भया तो उसमे अनेक वात्यायन होंगे ही परतु ईस्वी उत्तरवर्सी किस्ती विक्रमादित्यके सभा पण्डित इनको नहीं भान सकते। कारण भाप्यकार महपि पतजजलिका ही काछ ईस्वी पूर्व है तो वात्तिककारके विषयमे कहना ही बया। अतएव कात्यायन गणमे एकका अपना स्वनाम वरझंचि रहा ही और वे ही वात्तिक रचपिता

हुए हो तो कोई असभव बात नही है। हाँ, इन सब बातोकों प्रमाणित करनेका अतिरिक्त प्रयास करना होगा

यथपि 'पुष्पदन्त्क जन्म स्थानके बारेमे वैमत्य आता है। वात्तिक- कार कात्यायनके लिये महाभाप्यमे “प्रियतद्धिता हि दाक्षिणात्या कह

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कर उन्हें दाक्षिणात्यफे रूपमे स्वीकार किया है। किन्तु कथा सरित्सागर के पुप्पदन्त या कात्यायन दाक्षिणात्य नही है। तब कात्यायनस्पेण अव- तीर पुष्पदन्त वाप्तिककार कात्यायनसे भिन्न है-वया? यह संशय भी हो सकता है। किन्तु कथा सरित्सागरवारने स्वय पाणिनीय सूत्र व्यास्या- कारक रुपभे पुप्पदन्तावतार कात्यायनवों माना है। अत. जन्मस्थान विषयक लेसमात्रको अन्यथा स्वीकार करना उचित होगा। क्योकि कथाये कई जन्मोको जोड जाड़कर लिखी जाती हैं। फिर कथासारित्सागर के बारेमे कहना ही वबया ? जो अतिविलक्षण घटनाओके वर्णनसे भरपुर है। इस अशमे महाभाष्योक्त दाक्षिणात्यत्व ही प्रामाणिक है। अतः जन्म स्थानके विधादकों लेकर कात्यायन भेद मानना अनुचित है। अतएव प्रसिद्ध व्याकरण वात्तिककार महधि वात्यायन ही महिम्न स्तोत्र रचयिता हैं यह निश्चित होता है

वस्तुत, कात्यायन शाखा का दक्षिण देश मे व्याप्त प्रचार ही उनके दाक्षिणात्यत्व में एक प्रमाण है जैसे कि हमने ऊपर दिखाया। यद्यपि याश्षवल्वय का आश्रम स्प्रन्द पुराणानुसार गुजरातमे था। ऐतिहासिक छोग इस पर यही कल्पना करते हैं कि जब याज्ञवत्क््ध राजा जनक के प्रास मिथिला में गये तब उनका पुत्र कात्यायन वहा से दक्षिण की ओर गये होगे परन्तु हमारी समझमे तो बात यही भाती है कि आज भी महा- राष्ट्रादिम याज्वल्क्यप्रवरतित माध्यन्दिन शाखा का भी प्रचुर प्रचार है तथा वे लोग याज्ञवल्कय को दाक्षिणात्य होने की ही श्रद्धा रखते हैं। अतः याज्ञवल्वय दाक्षिणात्य ही रहे | गुजरातको उन्होने अपना प्रचारक्षेत्र बनाया होगा और वहा आश्रम बनाकर रहने छग्रे होंगे। अतएवं कात्याप्रन गणान्तगत वातिककार कात्यामन को महाभाष्यवारोक्त दाक्षिणात्यत्व उपपन्न है। सर्वेधापि कथासरित्सागर के--

अवदच्च श्राद्रमौलिः कौशास्योत्यस्ति या महानगरी तस्यां स्ल॒ 'पुष्पदन्तो वरदचिनामा प्रिये जातः।ा

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इतने अशय पर ध्यान दिया जाय या पूर्वोक्तरीत्या उसका समाधान किया जाय तो वातिकाकार वरझ॑सि कात्यापन और पुप्पदन्तकी अभिन्नता मे कोई बाधा उपस्थित नही होती

आधुनिक गवेषणानुसार भी इस स्तोत्रकी प्राचीनता तो बारहवी शताब्दीके शिलालेखमे लिखित महिम्नस्तोन्न पाठ ही सिद्ध करता है। अर्थात्‌ तव तक यह स्तोग इतना लोकप्रिय एवं श्रद्धेय वन चुका था कि , उसे अपिट बनानेके ल्यि शितापर अवित पिया। अतएवं बाधक दृढतर प्रमाणान्तर की अनुपस्थितिमे इसे वात्तिस्‍कार कात्यायन ऋषिकी रचना मानना अनुचित नही माना जा सता

विषय

विषय दृष्टिसे महिम्म स्तोच्र अत्यन्त गम्भीर है। प्रथम नौ इलोको भे मिराकार साकार तथा श्ञाव्वत-अर्वाचीन स्वस्पोको लेकर विद्यद वर्णन किया। उसके बाद भक्तिप्रवधनार्थ पद्रह इछोकोमे ( “तवेश्ययं यत्नात्‌” से “इमशानेप्वाक्रीडा” तक ) पौराणिक सरल कथाओफके द्वारा अर्वाचीम पदका वर्णव किमा जो साथन भक्तिके द्वारा परमार्थवी ओर छे जानेमे परम उपयोगी है। अन्तमे इलोकोमे साधन भक्तिगम्प परमपदवा ससाधन वर्णन किया इस प्रकार भगवत महिमा वर्णनरूपी स्तुति भक्ति एव तत्त्वज्ञानका निवेणी संगम यहा उपलब्ध होता है एक प्रक। रस आदिमे नौ इलोक और अन्तिम इलोक मिलानैपर पदहू इलोक तत्त्व प्रतिपादम प्रधान है और मध्यमे पदह इलोक क्थाकथनमुखेन भाषोद्भावत प्रधात हैं। ऐसा एक विलक्षण विभाजन यहाँ देखनेमे आता हैं। इकतीसर्व इलोकमे वाक्यपुष्पोपहारसमपंण और बत्तीसवेमे अपना निरभिमान प्रदर्शन वे द्वारा प्रथम इलोकार्थे स्पष्टीकरण और उपसहार ही है।

मसहिम्नःस्तोन्न पर अन्य व्यास्यायें

ऐसे तो इस स्तोन्नपर अनेक व्यास्यामे सस्कृत तथा हिन्दीमे प्रसिद्ध हो चुवी है। उनमे सर्वमूध॑न्वस्पेण श्रीमन्मशुसूदनसरस्वतीवी हरिहर-

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पक्षीग व्याख्या अत्यन्त प्रमिद्ध है। उन्होंने स्ववम्पि लिखा है कि पूर्वाचा्ये- कृत व्याख्याओऊफा ही मैं सग्रह करता हूँ। उससे यह अर्थ निकछता है कि श्रीमस्पन्मपुदत सरस्वतीसे पूर्व भी अवेक व्याख्यायें इस पर हो चुकी थी किन्तु हमारे दृष्टिपथपे वैसे विशिष्ट कोई व्याख्या नहीं आयी। संभव है वे कही छिपी पडी हों या कुछ कालकवलित हो गयी हो

निजप्रयास

आजमे लगभग वीस वर्ष पहले एक भक्तक्े आग्रहपर मैंने मधुसूदनीय हरिदस्पक्षीय व्याल्यानुपार उभयपरक शब्दार्थ ध्याख्या तया टिप्पणी लिखी। सत्रत्‌ २०२२ में उपका मुदण तिर्णयपरागर प्रेसमे हुआ। वह काफी लोकत्रिय मो हुआ। उत्त व्याख्या लेखन काऊमे मुझे ऐसा विचार आया कि इस पर एक विस्तृत ष्यास्या होनी चाहिये। हरिपक्षमे व्याख्या डोक है किन्तु वह रचयिताका हार्द प्रतीत नहीं होता अत शिवपक्षीय व्यास्यामे ही अपनी अधिक रुचि रही। हरूम्बे समयक्रे बाद भड़ौंचमे महिम्न.स्तोनपर प्रवचनका अवसर आया तो मैंने उसका सदुपयोग किया ओर प्राय. प्रवचनोक्त अर्थोकों ही इलोक बद्ध क्रिया। वही यह भ्रस्तुत ग्रन्य है। स्पन्दवात्तिक नामक इस ब्याख्याके विपयमे चर्चा मैं अभी प्रस्तुत करना नही चाहूँगा। इस पर विद्वज्जनोकी कैसी दृष्टि है। इसे समझ- कर ही फिर आवश्यकता हुई और सभव हुआ तो अन्य सस्करण में विश्लेषण करूँगा हरिहरपक्षीय व्याख्या प्रथम णो मुद्रित हुआ था उसमे टिप्पणियाँ स्थान-स्थानपर दी गयी थी। उन सबको छोडकर केवल छाव्दार्थमात्रको प्रस्तुत ग्रन्यके अन्तमे निवेशकर दिया गया है। जिससे उमयपक्षीय अर्थके जिज्ञासुओवा उपकार हो जो जिज्ञामुजन महिम्न स्तोवक झिवपरके तथा विप्णुपरव दोनो अर्थ ज्ञानके अभिलापी है वे अन्तमे उसका अवछोवन कर सकते हैं। --महामण्डलेश्यर स्वामी शीकाशिकामनद

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श्री शिवमहिम्नः स्तोन्रम्‌ स्पत्दुक्ातिकराहितसः

तिप्कलड्ाय निःसीमस्वानन्दज्ञानरोचिषें नमः शिवाय शान्ताय कण्ठकालाय मीदु्षे १॥

भगवान द्वाकरका स्वरूप छोकोत्तर है [ एक ओर निष्कलड्टू और दूसरी ओर फण्ठपे कारूकलड्ू है। एक ओर निःसीम आनन्द ज्ञान रूप है, दूसरी ओर हाछाहछ कण्ठमे है। ज्ञानसत्त्तरोचि है और काल तमोवर्ण है। स्वानन्दयुक्त होनेपर भी मीढ्वान्‌ ( मेंह-प्रमेह युक्त ) है। और शिव ( कुशल मगल ) विपरीत भी है। अथ | भगवान शकर स्वमहिमामे स्थित, मायाकलकरहित हैं असीम आनन्द एव ज्ञान ज्योति स्वरूप हैं उनगी सीमा ब्रह्म और विष्णु भी नही पा सके थे शिव तुरीय तत्त्वस्वरूप हैं प्रपध्चोपश्मम चान्त हैं अर्वाचीन पदमे नीछकण्ठ एवं स्मामीष्टवर्षी हैं ऐसे शकर भगवानको हम प्रणाम करते हैं ॥॥ तमोतु श॑ विध्नहरों गणेइवरी गिरा लव देदी सुमतिप्रदापिनी महेश्वरी शक्तिकरो तनोतु सदाशियश्चेष सदाशिवप्रदःवा विध्महरणकारी गणेश भगवान विध्महरण से मगछ करें। मुबुद्धि दायिनी सरस्वतोदेवी सुमतिप्रदानसे मगछ करें। छात्तिनिर्माणवारिणी महेश्वरी वर्तेव्यवायंधक्तिसवर्धनसे मगछ करें। तथा स्वंदा मगझदायी रादाशियद भगवान मोधारूप संदामऊुलगी योग्यता सम्पादनसे मंगल करें २३ कात्यायनाय मुनये मुनये शोमस्नृसिहप्तये घे। सदयाय यतिकुलायप च॑ शिरोवनाममं नमस्यामस्वा हे ॥।

र्‌ श्री शिवमहिम्नः स्तोत्र [ प्रथम:

भगवान कात्यायन मुनिको भगवान श्री नृसिह यतिको और दयासय समस्त यतिवृन्दको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ यां चक्रे शिवतुष्टयेप्नुभजतां भक्तेश्व॒ संपुष्टये, गम्धर्वाधिपतिगंति भगवतो दिव्या महिंम्नः स्तुतिमू। तस्या गुढरह॒स्पमाकलगितुं स्पन्दामिधानामिमां फुर्वे स्वेजनोपकारकरणों वुरत्ति सता प्रीतये॥ ४.)

शंकरभगवानकी प्रसन्नताके लिये तथा भक्तजनोंकी भक्तिकी पुष्टिके लिये गन्धर्वाधिपति पुप्पदन्त मुनिने भगवद्वोधकारिणी दिव्य जिस महिम्नः स्तुतिकी रचना की उसके ग्रूढ रहस्यको स्वयं आकलन करनेके लिये तथा अन्य छोगोंको भी करानेके लिय्रे स्व पर सर्वेजनोपकारिंणी स्पन्द नामक यह वृत्ति संत पृरुषोंकी प्रीतिके लिये बना रहा हूँ ( भोजननिर्वाह भी वृत्ति है, उससे तुप्टि होती है और पुष्टि होती है यही प्रीतमे पुष्डयेका अभिपष्नाय है ) ज्ञानादेव तु फैवल्यं श्रुतिवेंद्ति शाश्वती | भक्तया भवति ज्ञानमुपास्तिपरिपाकया अपौरुषेयी श्रुतिका कहना है कि ज्ञानसे ही कैवल्य होता है। और उपासनासे परिपक्व हुई प्रेमछक्षणा भक्तिसे ही ज्ञान होता है ५॥ मक्तया सामभिजानाति यावास्पश्चास्मि तत्वतः तता मां तत्वतों ज्ञावा विशते सदनच्तरम्‌ ६॥ भक्तया त्थनन्थया लक्ष्यः अहमेबंबिघोउर्जून इत्पादिवचनन्नातरेतदेव प्रसिध्यति गीतामें बताया है-भक्तिसे मैं जैसा हूँ और जो हूँ इस बातका सत्त्वतः ज्ञान होता है और चेता तत्वतः: जानकर बादमें वह ज्ञानी सिल्धुमें विन्दु के समान मुझमें प्रविष्ठ होता है। हे अर्जुन ! अनन्य भक्तिसे ही इस प्रकार मेरी प्राप्ति होती है। ऐसे ऐसे अनेक वचनोसे उक्त अर्थकी ही सिद्धि होती है ६-७ ननु स्पात्तत्वमस्पादिमहावावदार्थेचिन्तनात्‌ अप्त्नताक्षए्कुरिस्तदधि प्रभणत्तेद संपतन पूर्वपक्षी :--तत्वमसि आदि महावाक्योके अर्थचिन्तनसे आत्म- राक्षात्कार होता है। क्योंकि वही प्रमाण है (भक्ति प्रमाणरूष नही है) 0८७

खोक ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ इ्‌

सत्य नंव तु साक्षात््व जायते परमात्मन तत्त्वमस्यादिवाक्याना शतशब्रिन्तने कृते।॥ सिद्धान्ती --आपका कहना यथार्थ है। किन्तु तत्वमसि आदि वाक्योका हजार बार चिन्तन करने पर भी परमात्माका साक्षात्कार नही हो पाता, यह भी आपको मान्य होना चाहिये मोक्षसाधनसामग्रच्या भक्तिरेव गरोथसो। इत्येव भगवत्पादा भ्रपि स्पष्ट समोडिरे १०॥॥ भगवान शकराचार्यने भी मोक्षस्ताधनसामग्रीमे भक्तिको ही गुरुतर बताया है १० ननु प्रमाण नो भक्ति , सत्य कि ते व्यया तत प्रसन्‍नो भगवानेव वाक्य सब्फुरयैदधुदि ११ पू --पर भक्ति प्रमाण नहीं है। सि -जी हाँ, माना, एतदर्थ आपको बलेश क्यो है ? भगवान भक्तिसे अश्रसत होकर हृदयमे महावाक्यको स्फुरित कर देंगे ( और उसी वाक्यसे तत्वसाक्षात्कार होगा ) ११ श्रूयत्ता या गुरुमुखात्तत्वमस्थादिक बच कितु पु दोषत सद्य साक्षात्कारक्षम तत॥ १२ ओर * आचार्यवान पुरुषो वेद के अनुसार मनुष्यरूप आचार्य होनेपर ही ज्ञान होता है ऐसा आग्रह है तो वह भी मान लीजिये, और गुरुमुखसे त्तत्वमस्यादि महावाक्यका श्रवण भी मान छीजिये, फिर भी पुरुपापराधके कारण श्रवण करते ही साक्षात्कार उत्पन्न नहीं होता यह भी आपको स्वीकार्य होना ही चाहिय १२॥ भक्त्या पु दोपविगमे वावय बोधयति शुत्तम | मणिमस्नादिविगमे दहत्यग्नियंयेन्धनम्‌ ॥॥ १३ भक्तिसे ही पुरुषापराध निवत्त होता है तो पूर्वश्रुत तत्त्वमस्यादि वाक्य ही बोघ करा देगा, जैसे मणि-मन्‍्त्र आदि प्रतिबन्धकके निकल जानेपर अग्नि इन्धनको जला डालती है १३ अवाबयमधि चोॉकर प्रमाण परम मतम। ततो हि सर्ववेदाना प्राकट्य जायते यत १४॥ व्यस्तत्य वाक्यरूपत्वभपि चास्त्यन्यथापि च। जवप्यमेतन्महावाबय प्रमाण तच्च बढ्ष्यते १५॥॥ यदि महावाक्‍्यसे साक्षात्कार माना तो यहाँ महिम्ना स्तोन्रम उसका अभाव होनेसे किर न्यूनता हुई ऐसी शक्रा भी यहाँ अस्याने है

है श्री शिवमहिम्न स्तोन्रम्‌ [ प्रथम

कारण यहाँपर +“कारका वर्णन अन्तमे आया है। घह जपार्थ भी है और प्रमाण भी है। यद्यपि ओकार एक ही मक्षर या शब्द होने से वाक्य नही है, अतएव महावाक्‍्य भी नही हो सकता ( वाक्य पदसमूह ऐसा न्याय- शास्तकारोका कहना है ) तथापि ओकार परम प्रमाण है। सपूर्ण वेद ओकारसे ही प्रकट हुए हैं तो सपूर्ण वेदीका अर्थ उसमे समाविप्ठ है। तब वह प्रमाण क्यो नही होगा ? अन्वितार्थेबोधकत्वरूपी वावयत्व अखण्डार्थ- बोधक तत्त्वमसि आदिमे भी नही है। अत सकोच सर्वमतसिद्ध है। दूसरी बात महू है कि +४कारका समस्तरूप वाक्य हो, व्यस्तरूप तो वाक्य है। बह पदसमुदायात्मक है यह भी आगे स्पष्ठ होगा १४ १५७

तन हिविधा भक्ति साक्षार्कारोपयोगिनों अर्वाच्चीनपवस्पाद्या नित्यसिद्धस्थ चापरा॥ १६॥।

इसप्रकार भक्ति साक्षात्कारके प्रति उपयोगी सिद्ध हुई। वह दो प्रकारकी है | एक कर्वाचीन ( नवीन साकार स्वरूप ) की है और दुसरो नित्यसिद्ध निराकार स्वरूपकी है॥ १६॥

सफ़र करुणासिन्धु पस्चवक्‍्जादिरूपिणम्‌ उपास्येव तुरोयस्यथ सामान्य ज्ञानमाप्यते॥ १७॥ बैसे तो अर्वाचीनपदकी उपासनामाज्से प्रतिवन्धनाशपूर्वक भगव- त्साक्षात्कार महावाक्‍्यसे होता है, यह पूर्व श्लोकमे बताया। परन्तु निराकारोपासनाके लिए आवश्यक तुरीयतत्त्वका सामान्यज्ञान भी उसोसे प्राप्त होता है १७ ओकारालम्वनेनेव तत्चोपास्प परात्परम्‌। साक्षात्कारमवाप्नोति भवबन्धच्छिदावहम्‌ १८

ओकारके आलूवनसे ही परात्पररूपकी भी उपासमाकर भवबन्धको फिलानेगएए साफ्ाएकार प्राप्त करते हैं. ५. १८

परम तस्वमेवैबमुपास्थ स्तुत्यमेव साक्षान्नि श्रेयसकर किन्तु तन्नाज्जसेयते १९ !। इस प्रकार साक्षात मोक्षकारण होनेसे एक तरहसे परमतत्त्व ही डपासनीय तथा स्तवनीय है तथापि वह कार्य इत्तना आसान नहीं जैस्ता कि कहनेम आता है १९॥ परात्परस्थ तूपास्तिबेष्यिकविषयत्वत भेदीयसोत्यत भाज्ञा ऋचुमागें तमथयन्‌ २० ॥॥

लोक ] स्पन्दवातिकसहितम्‌

परात्पर परमेश्वरकी उपासना फिर क्यो की जाय, जब कि जर्वा- चीनपदोपासनाके बिना वहूं सभव नहीं और अर्वाचीन पदोपासनासे साक्षात्कार भी स्वीकार्य है ? कारण यही है कि साक्षात्करणीय परमतत्त्व ही परात्परोपासनाका विषय है अत वह समीपतर मार्ग है। बुद्धिमान ऋजुमार्गकी अपनाते हैं। कुटिलमार्गसे चलते हुए मध्यमे ऋजुमार्ग मिल गया तो उसे अपनाना कोई दुरा नही है। कुटिलमार्गाभिनिवेश उपयोगी सिद्ध नही हो सकता २० अर्वाचीनपद त्वन्ये विक्षेपहरमबुवन्‌ उपास्येतामुमावेव विवादानास्पदत्वतः २१ कुछ लोग मानते हैं कि साकारोपासनासे केवल विश्लेपनिवृति होती है बह बहिरज्भ साधन है। खेर, इस विवादमे पडना ही क्यो ? दोनोकी उपासता करो, जिसमे कोई विवाद ही नही है ॥॥ २१ एंतत्सवंममिप्रेत्य पुष्पदन्तोी महामुनि.। कात्यायनो वररुचिस्मयं सम्रतुष्दुबे २२ ॥। इसी आश्यसे महामुनि पुष्पदन्तने जिनको कात्यायन एवं वररुचि भी कहते हैं, दोनोकी साम्यक्‌ स्तुति की २२ तदुपक्षिप्यतेअप्यन्र ख्लोकेउस्मिन्‌ प्रथमे हयम्‌। सोपानक्रमतेः प्राप्तु' गन्तव्यं स्थानमुत्तमस्‌ २३॥॥ इस प्रथम श्लोकमे अर्वांचीन तथा परात्पर दोनो ही की उपासनाका उपक्षेप ( उपक्रम ) ज्या है। ताकि सोपानक्रमसे ग्रन्तव्य परम स्थान आप्त किया जा सके २३ महिमानमुपस्थाप्य पर प्रस्तृयते परम्‌॥ स्ववुद्धिपरिणामोवत्या तत्त्व अ्स्तुयतेश्परम्‌ २४॥ पूर्वाधमे परम महिमाको उपस्थितकर परात्पर स्वरूपको प्रस्तुत किया। और उत्तराधमे “स्वमतिपरिणामावधि गृणन्‌” कहकर अर्वाचीन पदको प्रस्तुत किया। वयोकि ग्िराके अविपयमे स्वमतिपरिणामावधि- पगिराका प्रइन ही कहाँ उठता है र४ कि स्‍्तुत्यतहवत्वोक्तपा लक्ष्यते तत्परात्परमू। एवं भद्भप्रन्तरेणास्‍्य स्ताव्यत्व समयितम्‌॥ २५॥ यदि “"स्वमतिपरिणामावधि गृणन्‌” यह बात अर्वाचीन पदकी ही हो, तब परात्परकी स्तुत्यवा असिद्ध होनेसे उसका प्रस्तुतीकरण व्यय है

च््‌ श्री शिवमहिस्नः स्तोच्रम्‌ [ प्रथमः

ऐसी भी शक नही उठती क्योफि “प्रात्परकी स्तुत्ति असदूशी है' ! इस उक्तिसे ही परात्परकी स्तुति लक्षणा द्वारा हो जाती है। अर्थात्‌ भिन्न तरीकेसे उसकी स्वुत्यता भी समर्थित हो जाती है २५ ।॥

सहिस्नः पारं ते परमविदुपो यययसहशो स्तुतिर्बह्यादीनामपि तदवसप्नास्त्वथि गिरः अषावाच्य: सर्द: स्वमतिपरिणए्म/वधि गुणन्‌ भमाप्मेष स्तोत्ने हर निरपवाद: परिकरः

सर्वेपापहारी है हर! जापकी अपरपार महिमाको जाननेवाले हम जैसोकी स्तुति यदि आपके जननुरूप है तो ब्रह्म आदिकी भी वाणी आपके विपयमे जज॑रित ही है| यदि अपनी हक परिपाकदी सीमामे रहकर स्वूति करनेवाले सभी उछाहना देने ये नही ऐसा मानते है तो स्तुतिके बारेसे मेरा यह उपक्रम भी आशक्षेपयोग्य नही है १॥

हर प्रलये विश्वसंहाराद रद्ठों हर इतीयंते। उपसंहरति स्वस्मिन्‌ सर्व स्थापयति प्रभुः॥ २६॥ संसारदीर्धक्षमणखेदखिन्नानू. हि. देहिनः। स्वस्मिन्‌ विभामयन्‌ देवों हर इत्यभिघीयते २७॥ प्रलय समयमे समस्त विश्वका सहार भयगवन' रुद्र करते हैं। तद- नुसार 'हरति सहरति विश्व” इस व्युत्पत्तिसे रुदन हस्पदा्थे है। सहारका मारना अर्थ नही, किन्तु प्रसारित भुवनका उपसहार है। प्रलयकी उपमा सुपुप्तिसे दी जाती है। बल्कि सुप्रुप्ति नित्यप्रकय ही है। सृपुप्तिकालमे सकलविलय होता है फलत भगवान शकर संबको अपनी गौदमे सुलाते हैं मही उनका सहार है। ससारकी लम्बी यात्रासे थकै प्राणियोको अपनेमे विश्वाम कराते हैं इसछिमे भगवान शकर हर हैं॥। २६-२७ पापापहरशाच्चेव धर्मरूपवृषध्वजः श्रुतिष्वषि श्रुतसिदभघोरापापकाशिनी र२े८ फशति; शासनार्थों वा ताडवार्थोज्यवा सवेत्‌ 4 परापं कशति तच्छीला तनुः स्यात्पपकाशिनी २९ अपापकाशिमीत्यन्ये चिच्छि: श्रुत्तिण पदम्‌ ने पाप॑ फाशबत्येपाध्दर्शनात्मकनाशनात्‌ ३०

झोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌

प्रसद्भाद्‌ दरधक्षरं प्रोक्तमधं हन्ति शिवेति गीः इत्याह सम सती तस्मात्पापहारी हरः स्मृतः॥ ३१ “हरति अपहरति पाप” इस व्युत्पत्तिके अनुसार हरका पापापहारी अर्थ है। चतुप्पात्‌ धर्मरूपी वृषभपर स्थित शद्भूरका पापहारित्व उचित ही है। श्रुतिमें भी “या ते रुद्र शिवा तनूरधोरापापकाशिनी” ऐसा बताया है पाप॑ं कश्यति थास्ति ताडयति वा तच्छीला ऐसी श्रुतिगत पदकी व्युत्पत्ति है। “कप हिंसायां” घातु शकारान्त भी हो सकता है। वुछ भाष्यकारोने अपापकाशिदी ऐसा पदच्छेद किया है। उस पक्षमे भी “न पाप काशयति प्रकाशयि” पापका दर्शन नही कराता यही अर्थ उचित है “णश अदर्शने” इस धात्वर्थनिरूपणानुसार अदर्शन नाञ्न या लोप ही हैं। श्रीमद्भागवतमें “यद्‌ दृचक्षर नाम मिरेरित नृणा सक्षृत्रसद्भादधमाश्ु हन्ति तत्‌” ऐसा बताया है। अर्थात्‌ प्रसड्भधबश भी शिव ये दो अक्षर वोलनेपर तुरत सभी पाप नष्ट होते हैं। अतः हर पापहारी हैं ही २८-३१ अज्ञानहरणाच्चेंव जानदेहस्त्रिलोचनः विद्याफामस्तु गिरिशं यजेतेति स्मृतत्वतः॥ ३२१ विशुद्धज्ञानदेहायज्ञाननिच्छेतु शड्भूरात्‌। इत्यादिभिश्च सिद्ध स्याद्धरस्पाज्ञानहारिता ३३ "हरत्यज्ञानमिति हरः” इस व्युत्यत्तिसे हरका अज्ञानहारी अर्थ निकलता है। ज्ञानशरीर वेदत्रयलोचन शद्भूरमे अज्ञानहारित्व उचित हैं ! “'विद्याकामस्तु गिरिश यजेत” ऐसा स्मृतिमे भी वताया है “विश्युद्धज्ञान- देहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुपे” “ज्ञानमिच्छेत्तु शकरात्‌” इत्यादि वचनोसे भी हरकी भज्ञानहारिता सिद्ध है ३२-३३ इंतसंहरणाच्चेव. तुरीय धाम तत्छ तम्‌ प्रपश्योपशम॑ शान्तमद्ेंत.. शिवमित्यपि ३२४॥ "हरित द्वेतप्रपच्चयमिति हरः” इस ब्युत्पत्तिसे मोक्षरूप तुरीय धाम हरपदाथे है। श्रुतिमे यह बताया भी है। “प्रपच्चोपश्मम शान्त शिवमद्वेत” इत्यादि श्रुति है॥ रेड वा महिसम्नस्तस्य ते पारं हे हराविद्धपोडसदुकू स्तुतिश्चेददसन्नाः स्युत्रह्मादीनां तद्गिरः॥ ३५ ॥। हे हर ! ऐसे अनेकविघहरणकारी आपकी महिमाका पार जानने- वालोंकी स्तुति आपके अननुरूप हो तो ब्रह्मा आदिकी वाणी भी आपके विपयमे जवसन्न गतिशून्य ही मानी जायेगी ३५

श्री क्षिवमहिम्नः स्तोनम्‌ [ प्रथम: सहिस्नः

महिमेति महोपरत्वबुद्धघुत्पादफसुच्यते नानाविध. वैभव... तछ तिरेतदमापत रे५ 0 गवाश्वमिह थे हस्तिहिरण्यं॑ दासभायकम्‌ क्षेत्राण्यायतनानीति महिमेति. प्रचक्षते २७ जिससे यह महान है ऐसी प्रतीति हो उसे महिमा कहते हैं। नाना- विध वैभव ही वह है यह बात श्रुतिमे वतायी है। गाय, अश्व, हाथी, सेना, दास, भार्या, क्षेत्र एव गृहादि छोकमे महिमा कहलाते है॥ ३६-२७ ईशस्प बेगवं तावतू सर्वमेव जगद्‌ भवेत्‌ सर्व पुष्प एवेद मुर्त भव्य मवच्च यत्‌॥ रे८ी॥ एुतावावल्थ महिमेत्येष सगवती श्रुततिः। मुतभव्यादिक सर्व॑ महिमानम्रमापत॥ ३२९॥ इंश्वरका वैभव तो पूरा जगतू ही है। भूत, वर्तमान, भविष्य सभी पुरुष ही है। इतनी इस पुरुषकी महिमा है इस भ्रकार श्रुतिने यह घात कही है ३८-३९ कर्य पुरुषस्यत्वे महिमा तस्य भण्यते॥ उच्यते तज्जलान सर्वमतों ब्रह्म बस्तुतः ४० तसदमस्यत्वत.... सर्वे. ब्रह्मारम्मणशब्दतः तज्जन्यत्ववशात्‌ तस्य महिसेत्यप्युदीयंते ४१ “पुरुष एवेद सर्व” ऐसा भभेदनिदेश होवेसे पुरुषकी महिमा कैसे कहते है ? पष्ठीसे भेदनि्देश हो रहा है। इस शज्भाका समाधान श्रुत्तिसे ही प्राप्त हो जाता है। “सर्व खल्विद ब्रह्म तज्जलान्‌” ऐसी श्रुति है। जगत बह्मरूप है ऐसा प्रथम अभेदकथन किया। फिर वताया--तज्जलान्‌। यह जगत्‌ तज्ज, तल्‍ल एवं तदन्‌ है। ब्रह्मसे उत्पन्न, श्रह्ममे छीव होनेवाछा एवं मे जीडिल, सटुनेलाएका यह, जगत है. “तहलल्पलाणार्स्भाणशणदादिष्ण इस स्यामसे ब्रह्मोपादानक होनेसे अलन्यत्व है। अत “सर्व ब्रह्म” यह अमेद- निर्देश है जन्यजनकभावकी छेकर भेदनिददेश भी है ४००४१ !। पार तेष्परं

तस्यास्पाखिलविश्वत्य महिम्नः पारमिष्यते 3 अपर परहोन तत्त्रिपाद्‌ ब्रह्म भुतीरितम्‌ ४२ परमित्येव वा च्छेदो ह्मव्यक्तात्पुएपः परः+ पुरुषान्न परं किच्धिदित्येब॑ श्षुतिदर्शनात्‌ ४रे

झोक: ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ हि

साराश यही कि सारा विश्व परमेश्वरकी महिमा है उसका पार जिपाद ब्रह्म है। वह अपर अर्थात्‌ परहीन हैं उससे आगे कोई पर श्रेष्ठ नही अपर पदच्छेद करनेपर उक्त अर्थ है। पर ऐसा ऋछेद भी मान सकते हैं। क्योकि श्रुतिमे उसे पर बताया है। “अव्यक्तात्‌ पुरुष. पर ”“पुरुपान्न पर किच्चितु” ऐसी श्रुति है। इसी श्रुतिसे परहीन अर्थ भी सिद्ध है ॥४२-४३ एतावानू महिमा तस्य ततो ज्यायांश्य पुरुषः पादोध्स्थ सर्वेमुतानि तरिपादस्य स्वर्यप्रमम्‌ ४४ यही बात श्रुतिमे बताया है--भूत भव्यादि जो भी हो इतनी पुरुषकी ही महिमा है, किन्तु प्रुरुष इससे अधिक है समस्त भूत इस पुरुषके एक पादम जाते हैं। इससे परे त्रिपात्‌ स्वयप्रकाश है। “निपादस्यामृतं दिवि” यहाँ दिविपदसे स्वयप्रकाशता तथा परता प्राप्त होती है ४४ ॥। अबिदुषो स्वयंप्रम॒त्वान्न ज्ञेयं तदज्ञा यदि वा वयम्‌ श्रह्माद्याश्वा. तदज्ञाः स्पुरज्ञेयत्वात्परात्मनः ४५ ॥॥ स्वयप्रकाश होनेसे निपादलब्रह्म ज्ञेयनत्ज्ञानवियय नहीं है। तब हम यदि उम ब्रह्मके वारेमे अज्ञ हैं तो ब्रह्मा आदि भी अज्ञ ही हैं। वह परमात्मा ज्ञेय ही नही, तो उसका ज्ञान हो किसको ? फ़लत. अश्ञानसे स्तुतिकी असदृशता सर्वेसमान है ४५॥

महिम्नः

मसहोयमान रुप. च॑ महिमेति निगद्यते

स॒ एप नित्यों महिमा ब्राह्मणस्थेति हि श्रुति: ४६॥॥

य्धेते कमंझा कनोयांस्तयाविधः

महिमा ब्रह्मणस्तच्च स्वर्प परम मतम्‌ वा

महिमा शब्दका दूसरा अर्थ है-महीयमान+-अतिश्रेष्ठ रूप श्रुतिमे उछ्तका चर्णन इस प्रकार आया हैं -अदछकी घह भहिणा शित्य है, चर्षोतते यह घटता हैऔर बढता हूैँ। वह ब्रह्मका पारमाधिक स्वरूप ही हैं ४६-४७ ॥| अविदुपः पूव॑वत्तदवद्ुप्य॑._ अह्यादेवा ममापि वा। अपरिच्दिप्नत्पो हि पारो श्ञेयतां सजेतु ४८

वृ० श्री शिवमहिम्न: स्तोनम्‌ [ प्रथमः

उस ब्रह्मस्वरूप महिमाके पूर्णभावरूप पारका अज्ञान पूर्वोक्त रीतिसे ब्रह्मादि एवं मुझमें समान ही हैं। वयोकि अपरिच्छिन्न वह पार शैय नही हो सकता | वह ज्ञानस्वरूप ही है। स्वप्रकाशरूप ज्ञानमें परप्रकाइयतारूपी शेयता वही हो सकती ४८ ननन्‍्वत्र प्रथमे पक्षे ट्ितीयश्लोफसद्भ तिः भबेततन सहिसा शोक्तो बाइमनसातिग:॥ ४९॥ जगद्गपरतु भहिमा नेंव वागाद्यगोचरः। मं चागाद्यविपर्य त॑ वक््यामहे वयम्‌ )॥ ५० कि चोमयायें श्ुतिपु प्रयोगे दशितो मया। इलोकट्ठये स्तां भिन्नाथौ' ततः कापद्यते क्षति: ५१ शद्भा होगी कि महिमा शब्दका भूतभव्यादि जगत्‌ अर्थ पक्षमे द्वितीय इलोककी सद्भति नही होगी वहाँ महिमाकी बाणी और मनका अविषय बताया हैं और जगत्‌रूपी महिमा तो वाणी और मनका विपय है उत्तर हूँ कि जगत्‌ भी अनन्त होनेसे वह भी वाणी और मनका अधिपय ही हे, यह बात हम आगे कहेंगे | दूसरी बात यह हूँ कि जब श्रुतिमे ही “एतावा- नस्य महिमा” “एप नित्यो महिमा” इस प्रकार दोनो अर्थोमे प्रयोग किया गया है तब प्रथम इछोकम महिमा पदका एक अर्थ ओर दूसरे इोकमे दूसरा अर्थ लिया जाय तो हर्जा क्या है ? ४९-५१

सहिसानसविज्ञाय स्तुतिनिन्दासमा भवेत्‌। अय॑ पणशती राजेत्पलम्यचुम्नगीयँंपा १५६ वास्तविक महिमाको जाने बिना महिमाका वर्णन करेंगे तो वह्‌ स्तुति होकर निदा जेसी होगी। जैसे जिसने घत कभी पाया हो वह बोलता हैं कि यह राजा सौ रुपयेवाला बडा घनी है ५२ ।॥॥ मश्देशोी निशम्याह सह॒द लब्धवेभवम्‌ ! अर्य बहुधनी चेत्स्थाद्‌ गुडोप्णीपों भविष्यति ५३ मारवाडका भ्रामीण अपने मित्रको बेभव भ्राप्त सुनकर कहने रूगा-- अब तो वह ग्रुडकी पागडी बाँधेगा ( ग्रामीणकी बुद्धि उत्क्ृप्टतामें शुड़ ही तक पहुँचती हैँ ) ५३ सण्ड्को हि कर्यंकार फुक्षिसापुर्य बाशुता। चूषभोदरतुल्पत्व॑ लभता यत्नतो््प च॥ ५४॥ परिजिछिन्ना मनोव॒त्ति विस्तायापि कर्थ तथा, अनन्त ब्रह्म विभुयुर्नह्याद्या अपि देवताः॥ ५५॥॥

ख्ोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ११

अयुहीतानन्तरूपा. वृत्तिस्तुच्छेव. निश्चिता तथा गोचरितंरथेरनन्तस्थ कर्थ स्तुतिः॥ ५६ मेंढकीसे वृषभको सुना तो अपने पेटमे वायु भरकर पूछा क्या इतना मोटा उसका पेट था ? क्या सभव हैं कि श्वास भरकर मेढकी वृषभतुल्य अपना उदर बना ले ? मनोवृत्तियाँ परिच्छित्र होती है। क्या उसके विस्तारसे अनन्त ब्रह्मका ग्रहण ब्रह्मादि भी कर पायेंगे ? यदि वृत्तियाँ अनन्तरूपको ग्रहण नहीं कर सकती तो परिच्छिन्न होनेसे अवश्य तुच्छ होंगी उनसे विषयीक्षत अर्थोसे अनन्तकी स्तुति कंसे सभव हैँ ५४-१६॥ ग्रगने पुत्तिका का चेंद ग्ररुडस्तन्न को चद। बय॑ चेत्पुत्तिकातुल्या ब्रह्माधा गरुडोपमा:॥ ५७॥॥ गगनमे फतीगा क्‍या चीज है? (क्‍या वह उड़कर गगन पार करेगा ? ) ठीक हैँ, तो गगनमे गरुड़का भी कौन-सा अस्तित्व है ? ( वह भी गगनको पार नही कर सकता ) हम सब गगनमें फरतीगरेके बरावर है तो ब्रह्मादि गरुड़के बरावर ५७ ॥। को या अनन्तस्य ग्रुणाननन्तान्‌ ग्रणमेत्पुमान्‌ सुस्त रजाँस गणयेन्न त्वन्न्तस्थ क्ोपि तान्‌ ५८३ अनन्त भगवानके अनन्त ग्रुणो की गणना कौन कर सकता है ? भूमिमे कितनी रज है उन्हे कोई गरिन के, पर अनन्त भगवानकी ग्रुणणणना सभव नहीं | “यो वा अनन्तस्य ग्रुणाननन्तानमुक्रमिप्यनू से नु वाल्युद्धिः” ऐसा बताया है ५१८ अथादाच्य: अय स्वबुद्धेर्तु यधा-परिपा्क शिव स्तुव॒न्‌। सर्वोष्वाच्यो मवेत्ताह मत्स्तुतिः कि शोभतामू ५९ यदि कहे कि अपनी बुद्धिके परिप्राकानुसार शिवस्तुति करनेवाले सभी उपाल्म्भके अयोग्य है तो मेरी स्तुति भी उपालम्भमोग्य क्यों हो ? ॥५९॥ मूमी निपतमानानां. सुमिरेवावलस्वतम्‌ | त्वयि जातापराधानां त्वमेव शरणं मम॥ ६०॥॥ इत्येब सापराधापि स्तुतिः संशोध्य शंसुना | अजद्भीफरिप्यते नूनसिति यत्नोःयंवान्समम ॥! ६१ अमिपर चलते समय कोई गिरता है तो उसका अवछबन भूमि ही होगी भगवान के प्रति अपराध होनेपर धारण भगवान ही होगे।

प्र श्री शिवमहिम्न स्तोत्रम्‌ [ प्रथम.

इसी प्रकार अपराध सहित भी मेरी स्तुति को स्वयं सशोधन कर अगीकार करेंगे अत मेरा यत्न तो सफल ही होगा ६० ६१

ब्रह्मादीनापि चचो5्गोचरो४पाररूपभाक्‌ शिवस्त्य महिमेत्युवत्या सुप्दुतोड्न हरः स्फुटम ६२ ब्रह्मा आदिके भी वचन का मविपय है अतएवं शिवमहिमा अपार है, यह कहते हुए शिवकी सुन्दर स्तुति स्तुतिसमर्थनके बहाने ही यहाँ की गयी है ६२॥ धिपोध्वधिकथाव्याजात्तस्यानवधिरूपताम्‌ ॥| ध्वमयश्च शिवोस्कोर्पो नमोवद्‌ व्यापक: स्तुतः॥ ६३॥ “स्वमतिपरिणामाधि” शब्दसे शिवोत्कर्ष स्वयं अवधिशुन्य है यह घ्यनित किया और गगन समान व्यापक ध्वनित करते हुए स्तुति की मई ६३७

तथापि चस्वस्वमतिपरिपाकावधिस्यितस्‌ रूप॑ स्तुत्य॑फिमप्यस्तीत्येतचच ध्वन्यते स्फुटम्‌ ई६४॥ ये यथा मा प्रपच्चन्ते तास्तयंव मजास्यहम्‌। याहश स्तुयते देवस्तादूकू समुदियात्‌ पुरः॥ ६५७0 भगवान निरवधि होने पर भी स्वमतिपरिणामावधि में भी स्थित कोई स्तुत्यवहूप परमेश्वरका स्वरूप है यह भी ध्वनित होता है। अन्यथा सावधि स्तुति परमेश्वरविपययक ही होती गीतामे भी "जो जैसे मुझे अजता हैं में भी उसे उसी रूप मे आकर अपनाता हूँ” ऐसा कहा है। जिस रूप से भगवान का भजन करते हैं उतती रूप रो भगवान आविर्भूत होते हैं ॥॥ ६४-६५ आलम्बनसुपादाय तदन्तवंतयों हि. यम्‌। निरालम्ब प्रपश्यन्ति महेश तमुपास्महे॥ ६६॥। साकार शिवरूपी आउम्बन छेकर उस साहूम्बनके अदरसे 'निरालम्ब परमेश्वर को यतिगण देखते हैं उस महेश की हम वन्दना करते हैं ६६ ॥। परिच्छिन्नेषपि. हत्पझेड्परिच्छिन मय्येक्ष्यते निरालम्बस्तयालम्बे तमासम्बे महेश्वरम्‌ ६७ आलम्बन लेकर निरालम्वका दर्शन कैसे ? जैसे दहरपुण्डरी- शाल्स्वममे गगतोपषम ब्रह्मफा दर्शन होता है जिसको उपनिपदोमे बताया है। उस सिरालूम्य महेश्यरवा हम आलम्बन करते हैं ६७

झोक. ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ परे

सातक्त्विक्धया भाषयाच्छ्नस्तामस्थाइविद्ययाप्यसो भवनेडूकसंलग्नताम्यज्जवतिका5नया इट॥ा वह परमेश्वर सत्वप्रधान मायासे और तम-प्रधान अविद्यासे भी आच्छादित है। जैसे प्रभायुक्त आकाशको प्रथम भवनभित्ति ढक छेती है, फिर भी अदर से काला परदा भी लगा हो तो क्या कहना ? ६८ शिवाकाराद्यया कुडयकाचाज्जवनिकोद्धृतो प्रमापटलितं व्योम शिवाकारं विलोफ्यते ६९ शिवाकृत्या तथा मायाशकक्‍त्याइविद्यालवोद्घृती स्वप्रभ सासते ब्रह्म शिवाकारं परात्परमु ७०७ भवनके दीवारपर झकराकारका रोझनदान काच छगा है। इधर परदा जरा उठ गया तो उस काचसे प्रकाशपटलयुक्त आकाश शिवाकार दिखाई देगा वैसे अविद्या का कुछ अश निक्रल जाता है तो भित्ति- स्थानीय मायामे रंगे हुए काचस्थानीय अतिनिर्मेल शिवाकर दिव्यशक्तिसे शिवाकार स्वयप्रभ ब्रह्म प्रकाशित होता है अर्थात्‌ भासमान ब्रह्म अपरिच्छिन्न है किन्तु शिवाकारयुक्त शक्तिसे भासित होनेसे शिवाकार भासता है ६९-७० भक्तमावानुसारेण दिव्या शक्ति: शिवात्मिका। स्पात्तयाकहृतिरक्त॑ तत्तांस्तवेव भजाम्यहम्‌ ७१॥ भक्तभावानुसार मायाभित्तिगत शिवाभिन्न दिव्यश्क्ति झिवा- द्याकार हो जाती है। यही “तास्तर्थव भजाम्यहम्‌” इस गीतावचन का रहस्यार्थ है ७१ सायामन्‍्ये जवनिकां. तनेशाकारकतंनात्‌ व्योमवद्ब्रह्मणोपोधांकारदा न्यरपयन्‌॥ ७२ ततच्चिन्य बाह्मरेखेव चित्रस्येवोपपद्यताम पजिनेत्रमालमस्मादिमध्याकार: कय भवेत्‌ ७३ कुछ आचार्योने ऐसा वर्णन किया है कि माया और अविद्या ये दो नही है। एक ही माया परदा है उसमे सिवादि सरावार काट /नवाल्ते हैं तो जैसे परदेके अन्दरसे शिवादि आकार मे गगन दीसता है। बसे माया परदेके अन्दरसे परब्रह्म शिवादि आकारमे दीखने लगता है | परन्तु यह मत विचारणीय है। इस प्रकार परदेमे शिवाकार परदा काट निकालनेसे बाहरवी रैसा भले सम्पन्न हो, किन्तु मध्यमे भिनेत्र, भाल, भस्म, जटा, गगा, ओपष्ठादि आकार कंसे बनेंगे ॥॥ ७२-७३

है| श्री शिवमहिम्न: स्तोत्रम्‌ [ प्रथमः

वाच्य भायया स्यात्तन्मायामयों भवेत्‌ तदा चिन्मयतावाचोयुक्तिस्तु घटतां फयम्‌ ७४ ॥॥ यदि कहें कि भाल भस्मादि मध्याकार मायासे दीखता है तब वह मायामय होगा और आपका चिन्मयतावाद कहाँ रह जायेगा ? ७४ ॥॥ परास्य शक्तिविविधा श्वेताश्वतरशाखिशिः॥ श्रूयमाणा निगदिता सिद्धा सातः परेशितुः ७५॥ “प्रास्य क्षक्तिविविधेव श्रूयते” इस स्वेताइवतरवचनसे प्‌रमेश्वरकी चपरयाशक्ति सिद्ध होती है ७५॥। मायां तु प्रकृति विद्यान्मायित तु महेश्वरम्‌ इत्युक्तत्वाज्ञगढ्धेतु:ः सिद्धा माया चघूजटेः॥ ७६४ स्वेताश्वतरमें ही "मायातु प्रकृति विद्यात्‌” इत्यादि मन्त्रमें शंकर भगवानकी माया पृथक बत्तायी है अतः माया भी सिद्ध है॥ ७६ ।॥॥ चरंमाना अविद्यायां बहुधेत्यादिवाक्यतः सिद्धा भवत्यविद्यापि यत्तः स्पान्मूढता नुणाम्‌ ७७॥ “अविद्यायामन्तरे बतेमाना:” इत्यादि वाक्यसे मनुण्यको मृढ वनाने- चाली अविद्याकी भी सिद्धि होती है॥॥ ७७॥ स्पन्दमाना भवेत्सुष्टिकाले शक्तिस्तु शाश्यतो। शिवशक्त्योः सामरस्यं मोक्षे प्रतिपादितम्‌ ७८ सृपष्टिकालमें शक्तिका स्पन्दत होता है मोक्षमें शिवद्यक्तिका सामरस्य होता है ७८ ॥॥ शिषः परो यादृशो$छित तादशाय नम्तो नमः! भवाय स्पन्दसानापथ यवासमति नम्तों नमभता ७९ ॥॥ परमशिव ज्ञानविपय नही अत जैसे हैं वैसे उनको यह प्रणाम हो अपन्दमान अर्वाचीनपदस्थ भगवान भवको यथामति प्रणाम हो ७९ इति श्री काशिकानन्दयोगिन: कृतिनः कृतौ। महिस्तः स्तोत्विवृती दृत्त: स्पन्दौष्यमादिम: ।॥।

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हितीयः इलोकः

बह्मादीनामबंदुष्प_ कय॑ नामोपपच्चते। सर्वशञा: खलु ते प्रोक्ताः सर्वज्ञानां चाज्ञता १॥ “अविद्वानकी स्तुति असदृझ्न है तो ब्रह्मादिकी स्तुति भी अवसन्न ईं इस उत्तिसे ब्रह्मादिमे भी अवेदुप्य सूचित होता है अवसन्नतामे वही हेतु कहा जा रहा है। परल्तु ब्रह्मादि तो सर्वज्ञ हैं। उनमे भज्ञता कैसे मानी जा सकती है सेव वाइमतसातीत शेब॑ यत्परम पदम्‌। शवर्य तद्धि विज्ञातुममनोग्रोचरत्वत रे ॥! उत्तर यह है कि वाणी और मनसे परे जो परम शव पद है वह जाना नही जा सकता है क्योकि वह मनोग्रोचर नहीं है ॥। महिम्रा द्विविधः प्रोक्तो बाह्य आन्तर एव च। शवाश्वादिस्तु दा्टाः स्पाद दोर्षशोपदिरास्तर: हे महिमा दो प्रकारवी है। एक वाह्य है, दूसरी आन्तर है। गाय, अद्य, सुवर्णादि बाह्य महिमा है | वीरता, शूरता आदि आान्तर महिमा है पादोहस्य सर्वभुतानि महिमा परमात्मनः बाह्य स्यादान्तरस्तस्य त्रिपादूषः ह्वयंप्रज: ४॥॥ परमात्माकी बाह्य महिमा समस्त विश्वरुपी पाद है। और आन्तर महिमा स्वय प्रकाश त्रिपातू ही है बाह्य महिमान प्राप्तु वाइमनसे क्षमे फियाताकाश इति वक्त ज्ञातु हि शबयते परमात्मावी बाह्य महिमावी भी सविषय बनानेमे वाणी और मन समय नही होते ( आन्तर महिमावी बात ही क्या ) यह आकाश बितना बड़ा है यह जानना या बोछना भी सम्मव नहीं है॥५॥॥

१६ श्री शिवमहिम्न. स्तोन्नम्‌ [ द्वित्तीय:

झननन्‍्तकोटयत्तत ब्रह्याण्डिनि चकासति। असंस्यत्वात्‌ परिच्छित्तिः कयं तेपां हि संस्यया ॥॥ ।॥ इस आकाशमे अनन्तको्ि ब्रह्माण्ड विराजमान हैँं। अनन्त होने हीसे सख्यापरिच्छेद सभव नही है ६॥ अतदृव्यावृत्तिस्‍्पेण. वाह्योईपि महिमोच्यते अनन्तो छ्न्तवस्धिल्लोडसंस्यः संख्यायुतेतर:॥॥ ७॥ परमात्माकी बाह्य महिमाको भी अतद्व्यावृत्तिसे कहना पडता है अनन्तका अर्थ है--जो अन्तवानसे भिन्न है। असख्यका अर्थ है--गणना- विपयसे जो भिन्न है। आकाश अनन्त है, ब्रह्माण्ड भसख्य हैं. यहाँ दोनो जगह अतद्व्यावृत्ति है ननन्‍्वविज्ञाय सुजतु ब्रह्माण्डानि कय विधिः। कथ रक्षत्वसंउ्यानि विष्णुस्तानीति चेन्न ततू प्रतिब्रह्माण्डमेकेफे ब्रह्मविष्णुहराः . स्घृताः तेषा सृुध्टिस्थितिलयकर्ता छोको महेग्घरः॥ यदि ब्रह्माको पूरे जयतका ज्ञान हो तो वे सृष्टि कैसे करते और विष्णु रक्षा कैसे करते ? इस शकाका उत्तर यह है कि जनन्त ब्रह्माण्डोमे प्रत्येकमे एक-एक ब्रह्मा विष्णु रुद्र है। अपने-अपने ब्रह्माण्डका उन्हे जान है इन सबके सृष्टिस्थितिलयकर्ता महेश्वर ही एक है ८-९ नन्वण्डानामसंख्यत्यादनन्तत्वा दिहायसः शकरो$पि कथ नाम विज्ञातु भवति प्रभुः॥ १० ॥३ उच्यते शाकर ज्ञानमप्यनन्त विदबु घाः। तस्मान्नैवाज्ता त्तस्य शकक्‍्यसभावना भजेत्‌ ११३ ब्रह्माण्ड भसख्य और अनन्त होने से ब्रह्मादिमे यदि जआापेक्षिक सर्वे ज्ञता मान है तो भगवान महेश्वरमे भी वही दोप आयेगा, इस पूर्वपक्षकाः समाधान यह है कि भहेश्व रका ज्ञान भी तो अनन्त है। सल्या या अन्त है ही नही, अत उसवा ज्ञान होना उचित ही है। जो है ही नही उसका ज्ञान क्‍या होगा ? १०-११॥ नन्वनन्तं॑ कुतो नैवं ब्रह्मादेज्ञॉन्िष्यवाम्‌। योगराद्यपायतोडस्माकमप्यनन्त कुतो तत्‌॥ १२॥॥ ज्ञानस्थ च॒ तदानन्त्याज्ज्ञेयमत्प मवेदिति। सुतयामास भगवान्‌ पत्तज्जलिरपि स्वयम्‌॥ १३ ४७

झोकः ] स्पन्दवातिकेसहितम्‌ ब७

पुर्वपक्ष:-महेश्व रका ज्ञान अनन्त हो सकता है तो वंसे ही ब्रह्मादि- का भी ज्ञान अनन्त क्यों नही हो सकता ? “तदा ज्ञानस्यानन्त्याज्जेयमत्पं'” इस प्रकार महधथि पतञ्जलिने भी समाधिजन्य ज्ञानकों अनन्त बताया है १९-१३

संवसानन्त्ययुक्तानि विज्ञानानि बहुनि ना

सत्य ज्ञानमनन्त॑ यदेक एवं महेख्वरः॥ १४॥

ज्ञानानि वृत्तिरूपाणि प्रतिथिम्बात्मकानिवा।

नाना स्युने पुनर्विम्बरूप ब्रह्मात्मक॑ तथा १५३॥॥

एकंकाण्डपरौ्छिन्नब्रह्मवेभ्रित्तवृत्तयः +

अपरिच्छुन्नकपा. कर्थ॑चिदुपपद्यते १६

मुक्ता महेश्वरात्मत्व॑ प्राप्ता ये तदृदशा ज्यौ।

ज्ञानानन्त्यं तथा ज्ञेयस्याल्पतांच पतल्‍्जलिः॥। १७॥

समाधान :-ब्रह्मा आदिमे पृथक्‌-पृथक्‌ अनन्तरूप नाना ज्ञान नही

हो सकते “सत्य ज्ञानमतन्त ब्रह्म” इस श्रूतिमे उक्त अनन्त ज्ञान जो ब्रह्मरूप है वह एक ही है। वृत्तिरूप ज्ञान या भ्रतिबिम्बरूप ज्ञान नामा हो सकता है। परन्तु एक एक ब्रह्माण्डमे ही सीमित ब्रह्मा आदिकी वृत्ति अपरिच्छिन्न नही हो सकती भगवान पतज्जलिऋषिने ज्ञानकी अनन्तता एवं ज्ञेयकी अल्पता जो बनायी है वह योगाभ्यासवल्चात्त जो मुक्त या जीवन्मुक्त होता है वह स्वयं महेश्वररूप हो जाता है, इस दृष्टिसे है। कि परिच्छिन्न ज्ञान अपरिच्छिन्न बोगा इस आशयसे ( क्योकि परिच्छिन्न कभी भी अपरिच्छिन्न नही बन सकता ) १४-१७ $

तस्मादतद्ध्यावृत्येव बाह्योडपि महिमोच्यते। श्रान्तरो. नितरामेव श्रुत्थापीत्यधुनोच्यते १८ ॥। अतः बाह्य महिमा भी अतद्व्यावृत्तिसि कहना पडता है तो आन्तर महिमा सुतरा अवदृब्यावृत्तिसे कहना होगा और श्रुति भी वैसे ही प्रति- पादन करती है यह बात इस छ्लोकमे कही जायेगी १८ अर्वाचीनपद पक्तु स्वभावानुविधायि तत्‌। साक्षात्तच्झकपते स्तोतुमित्यप्यत्र निरूप्पते १९३३ और जो थर्वाचीनपद है वह भक्तके अपने-अपने भावके अनु्प होता हैं अत. उसका स्तवन साक्षात हो सकता है यह भी बतायी जा रही है॥ १९॥ र्‌

१८ श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रम्‌ [ द्वितीय:

अतातः पन्यानं तव महिमा वाहसनसयो- रतद्द्यावृत्या य॑ं चकितसभिघत्ते श्रुतिर॒पि फस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्प विपयः पदे त्वर्बाचीने पतति मनः कसप वचः २७

हे हर ! आपकी महिमा वाणी और मनके मा्गंकी छोड़कर आगे बढ़ गयी है, जिसको श्रुति भी इतरनिपेधके द्वारा, मानों कही गलती हो जाय, ऐसे भयके साथ कहती है वे आप किसके छिये स्तोतव्य हैं-- स्तुतियोग्य हैं ? अर्थात्‌ किसीबे छिये नही किस गणितसख्यामे आपके गुणोके प्रकार सकते हैं ? किसीमे नहीं-आपके कितने प्रकारके ग्रण हैं यह भी कोई नही कह सकता। कितने गुण है यह कहना तो दूर है। किसके आप विषय हैं ? मन, वाणी आदि किसीके विषय नही किन्तु अर्वा- चीन-भक्तानुम्रहार्थ गृहीत नवीन स्वरूप किसका मन आकर्पित नही करता ? और किसकी वाणीकी कुछ बोलनेके लिये विवश नही करता अततदुष्यादृत्या तदिति ब्रह्म तस्टिन्ममतत्‌ सर्वसिदं जडम्‌ तद्व्यावृत्तिस्तप्निषेघस्तेनिश वदति श्रुतिः २० ॥॥ अतद्व्यावृत्ति शब्दममें तत्पदका बुद्धिस्थ ब्रह्म अर्थ है। अतद माने अ्रहमसे भिन्न जडरूप समस्त जगत्‌ उसकी व्यावृत्ति अर्थात्‌ जड़ जगतका निपेघ | उस निषेधके द्वारा श्रुति परमेश्वरको कहती है २० ॥। अशब्दस्पशं रुपादि च्ास्यूलाण्वादि चाक्षरम्‌ मूर्तामूर्तात्मक॑ विश्व नेति भेति पर पदम्‌ २१४७ निषिध्यैयमतत्‌ सर्वे परं बोघयति श्रतिः। तत्त्वमस्यादिवायपं चाप्पतदृव्यादुस्तिलक्षणर २२ तप्र मायों ह्तद्ग॒पः सर्वज्त्वादिलक्षणः तं व्यावत्यं श्रुति: सत्यम्स्नण्ड बोधयेत््‌ पदम्‌ २३ “अशब्दमस्पर्शमस्पमव्यय” “अस्थूलमनण्वहस्वमदीर्ध” इस प्रकार अदारको श्रुतिन समझाया है। “मू्त चामूर्त च” “अथात आदेशों नेति नेति" इस प्रकार भी समझाया है। तत्त्वमसि आदि महावाक्य भी अतदू- व्यावृत्तिसे ही बोध कराते हैं। वाच्यायंका परस्पर विरोध होनेसे चैतन्य-

भिन्न जतत्‌ सर्वज्ञत्व अल्पशत्वादि भागकी ब्यावृत्तिकर श्रति असण्डबोध कराती है ॥॥ २१-२३ ॥।

ख्ोक) ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ १९

"४. झतीतः पन्यान॑

सम्बन्धगुणजातोनां क्लियाणा च॑ व्यपेक्षया। शब्दः प्रवतते लोके नंवेशेलन्यतमोष्पि वा॥ २४॥ अशक्यस्तेन वाच्यायंविधयवा वक्तुमीश्वरः सम्बन्धादीन्‌ परित्यज्य मागान्‌ श्रुतिरतो वरदेत्‌ २५

लोकमे(शब्द सम्बन्ध, गुण, जाति और क्रियाकी अपेक्षा रखकर भ्रवृत्त होता है | घनवान, घुक्ठ, गाय, पाचक ये क्रमश उदाहरण हैं ) परमेह्वरमे तो सम्बन्धादि कोई नही है। अत वाच्यार्थरूपसे ईश्वरको कहना अज्क्य है। फलत सम्बन्धादि भागका परित्यागकर लक्षणासे श्रुति ईइवरको कहेगी २४-२५ ॥॥

सम्बन्धादिपरित्यागे स्वप्रभ शिष्यते पदम्‌।

तत्प्रकाश्य॑ तत्त्वे वा प्रफकाश्यत्वाज्जड भवेत्‌ २६ लक्ष्यमार्ण जड़ें मा मृत्ततरापि चकिता श्रुतिः। अखण्डाकारिणों वृत्तिमुझ्भाव्येव निवतेते॥ २७ छित्वा दृत्तिश्व॒ साउविद्या तत्काय स्व॑ नाशयेत्‌ न॒सा भ्रकाशयेद्‌ ब्रह्माविद्यामावात्स्वयं स्फुरेत्‌ २८

सम्बन्धादिका परित्याग होनेपर स्वयप्रकाश ब्रह्म ही अवशिष्ट रहता है। वह भी श्रुतिसे प्रकाश्य नही है। प्रकाश्य होनेपर जड होगा। लूक्ष्यमाण ब्रह्म कही जड हो ऐसी चकित श्रुति अखण्डाकार वृत्ति उत्पन्न करते ही निवृत्त हो जाती है। वह वृत्ति भी अविद्याकों नपष्टकर अविद्यावाये स्वयको भी नष्ठ करती है। बह भी ब्रह्मकी प्रकाशित नही करती | हाँ, अविद्याके नप्ट होनेसे परमेश्वर स्वयमेव स्फुरित होने रूगता है॥ २६-२८ अतद्गघावृत्तिरेव हि बाक्षु विध्यात्मिकास्वपि। लिपेघ:ए्ण्एल्िएल्टु, ख़िपप्रंग्रनिदुन्न)यें ७, २९,॥॥ पूर्वोक्तरोतिसि “सत्य ज्ञान” “तत्त्वमसि” इत्यादि विधिरूप आुत्तियोमे भी अतद्ब्यावृत्ति ही है “मशब्दपस्पर्श” इत्यादि विपेध श्रुत्ति कोई च्रान्ति रह जाय एतदर्थ है २९ सर्वज्ञाल्पषते त्याज्ये.. विरद्धत्वात्पदार्यत' ज्ञत्वे कुतः परित्याज्यमिति शद्धू। प्रवर्तते ३०

२० श्री दिवमहिस्न: स्तोत्रम्‌ [ द्वितीय:

विपरयंय इस प्रकार द्वो सकता है कि ठीक है, विरुद्ध होनेसे तत्वंपदार्थेसि सर्वज्ञत्व॒ अल्पज्षत्व दोनों छोड़ दो, किन्तु शत्व आदि क्‍यों छोड़ना चाहिये ? ३० ॥। सान्त:प्रज्षवहिष्प्रज्ञो भयतःभ्रज्षकख्यमाक्‌ | न॒भज्ञाप्नज्ञख्पं चादृप्द चाब्यवहायंकम्‌ ३१॥॥ एकात्मप्रस्यये सार॑ प्रपमध्चोपशर्म तथा। शान्तें तुरीयमद्वतं शिबं घामेति श्रुतिः॥ ३२ ज्ञत्वादि रकल॑ द्वेते निषिध्य जडलक्षणम्‌ प्रपण्चोपशर्स शान्तपछुपस्थापयति स्फूटस्‌॥ ३३ ॥॥ उक्त शंकाका निवारण “नान्त.प्रश्च॑ बहिष्पनज्ञं” इत्यादि विपेघ- श्रुति ही करती है। जडलक्षण समस्त प्रपच्चका निपेघकर शुद्ध तत्त्वको बह श्रुति उपस्यथापित करती है ३१-३३ अब मण्डनसिक्राद्या निषेधश्षुत्िमाततः ज्ञायतेष्वधिरित्याहुः सर्वेदेतविवजितः ३४ आचार्य मण्डनमिश्र प्रभूतिका कहना है कि निपेधश्रुतिसे निये- घावधि सर्वेद्नैतरहित तत्त्वका ज्ञान होता है ।॥ ३४ तदा निषेध: भ्ौत: स्थाद्‌ ब्रह्म त्वाथिकमापतेत्‌ पदार्थेशोधनार्था, सा विधेवोध इतोतरे २३५ अन्य जाचार्योका कहना है कि निपेधश्रुति मुख्य हो तो निपेध ही श्रुतिप्रमाणयम्य होगा ब्रह्म अ्थपित्तिगम्य होगा। अतः निपेध श्रुति तत्त्वंदार्य शोघनाथें है ब्ह्बोघ विधिवाक्य तत्त्वमसि आांदिसे ही होगा ३५ ॥॥ पश्यत्णफचयवस्करिचद ददत्याइचरयेब्त्‌ पर: श्रुतिश्व चकित यूयान्मा पुदर्यंत्रिपयेयः २६॥ ब्रह्मको कोई आशचर्यसे देखता है, कोई आदचर्यसे बोलता है, वैसे श्रुति भी कही अर्थेविपर्यंय हो इस आश्कासे चकित होकर बोलती है २६।॥॥

कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः न्रिपात्‌ फल्य सवेत्स्तुत्ममेफपादपि दुःस्तवम्‌ | एकपदा गुणवियाः स्युः कि गरणितमोचरा:॥॥ र३े७ ॥॥

खोक ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ २१

त्रिपातू ब्रह्म किसके स्तोतव्य हो? बल्कि एकपाद ब्रह्म भी स्तोतव्य नही हो सकता एकपाद ब्रह्मके ग्रुण प्रकार क्या गणित विषय बन सकते है ? नही ३७॥॥ कस्य विषय:

वागाद्याश्चक्षुराद्याश्ना मनोबुद्धयणादयश्न ये। तेषु कस्प भवेदेध विषयोहविषयात्मक रे८ वागादि कर्मन्द्रिय, चक्षुरादि ज्ञामेन्द्रिय एव मन आदि अन्त करणमे वह किसका विषय होगा ? किसीका नहीं क्योकि स्वय बह अविप- यात्मक है ३८ नन्वत्र कस्पय विषय इस्युकत्येव गतार्थता। कस्य स्तोतब्य इत्येतत्‌ किमर्यभभिधोयते २९ स्तुतिवागूविषयत्व हि स्तोतव्यत्वमुदोर्यते तन्निषेधस्तु चरमपर्यायादेव. लब्यते॥ ४० “कस्य विषय” इस प्रकार विषयताका सामान्य रूपसे प्रतिक्षेप हो गया तो “कस्य स्तोतव्य यह कहनेती क्‍या आवश्यकता ? क्योकि स्तोतव्य का अर्थ है स्तुतिरूपी वाणी का विपय होना किन्तु इसका ध्रतिक्षेफ “कस्य विषय'” से ही हो जाता है !! ३९-४० संव स्तुतिप्रसज्भेइन स्तोतव्यत्व निषिध्यते॥ तडेतुदिधया चोघ्बें प्रतिक्षेपद्रयथ. मतम्‌ ४१ स्तूपते विविघरेव गुण” स्तोतव्यता यदि। ग्रुणाता चू विधा नव ज्ञायन्ते परमात्मन ४२॥। गुणे* स्तोतव्यता नाम तच्छन्दविषयीकृति कर्य साइविपये तस्मिनु स्पादित्येतदिहोच्यते ४३ उक्त शकाकवा समाधान यह है कि स्थुततिके प्रसज्ञमें स्तोत- व्यत्ाका ही मुब्य वुयसे अतिकोेश कियर झा रहा है। “कातिविधनुणा, ! “क्स्य विषय ये दो प्रतिक्षेप स्तोतव्यताम्रतिक्षेपमें हेतु हैं। नाना प्रकार के गुणोसे स्तुति होती है, किन्तु कितने प्रकारके गुण परमेश्वरमे हैं यह पता नहीं, तब वह स्तोतव्य किस प्रकार ? फिर स्तोतव्यताबा अर्थ है स्तुतिविषय बनाना वह किसीका विषय ही नही तो स्तुतिविषय केसे बनेगा ?ै॥ ४१-४३ ॥ा

श्र श्री शिवमहिम्न स्तोतम्‌ [ द्वितीय

कस्य स्तोतव्यः

मअथवोस्कर्षंविषयशब्द* स्तुतिरितीपंते उत्कपश्व शिवे फस्माद्‌ यत्‌ स्तोतव्यो भवेदसी ४४ ॥॥ अथवा यहाँ व्याख्या दूसरे ढगसे कीजिये | उत्कर्षको बतानेवाल्ा शब्द स्तुति कहलाती है। शिवमे किसकी अपेक्षा उत्कर्ष है ? जिसका वह स्तोतव्य हो ४४ यस्माज्ञास्ति पर नेबापर चेति श्रुतत्वत नोत्कपंवत्तविधया स॒ निरूपणमहँति ४५॥। श्रुतिमि बताया है कि उससे उत्कृष्ट भी कोई नही, अपकृप्ट भी कोई नही वह अद्वंत है। अतएवं उत्कर्पंवानके रूपमे शिवका मिरूपण सम्भव नही यही “कस्य स्तोतव्य का तात्पय है ४५ कंतिविधगुण: यस्मिन्‌ विश्यात्मके देवे गु्णरुत्कर्षं इष्यते। कति तत्र गुणा यैहि ज्ञात स्तोतु शक्‍यते ४६॥ ओर जिस विश्वरूप सग्रुण परमात्मामे गुणप्रयुक्त उत्कर्प अभीष्ट है उसमे कितने प्रकारके गुण है ? जिनको समझकर स्तुति की जा सके यही “कतिविधग्रुण का तात्पयें है ४६ फस्य विषयः परो विश्वात्मको वाष्य फस्य वा विषयो मवेत्‌ खनन्तत्वात्परिच्द्धिन्नवागाद्यविषयों हि यत्‌ ४७॥ चाहे परमशिव हो, चाहे विश्वात्मक शिव हो, किसका विपय बनेगा ? पर तो अनन्त है ही ससार अनन्त होनेसे विद्वात्मक शिव भी अनन्त है। वह पारिच्छित वाणी, मन आदिका विषय कंसे हो सकता हैं यह “कस्य विपय का तात्पर्यार्य है ४७ ॥॥ पदे तु भर्वाचीने ननन्‍्वेष उु स्तुतिव्यर्या स्तोतव्यत्वनिराकृत आधीपरिणतिस्तोतश्रपित्पप्पेवम सगतम्‌ ४८ ॥॥

मंय पदेड््याचोने पतेत्कसल्य मनो दच ! सत्पर सुन्दर सत्य शिव सर्वेजनप्रियम्‌ ४९ ॥।

ख्लोकः | स्पन्दवातिकसहितम्‌ २३

यदि स्तोतव्य ही नही तो स्तुति ही व्यर्थ है। स्वमतिपरिणामाव- घिवाली बात भी स्तोतव्यता हो तबकी है। इसका उत्तर यह है कि शकर भगवानके अर्वाचीन स्वरूपमे किसका मंतर और वचन प्रवृत्त नही होता जो कि परमसुन्दर, सत्य, मज्भुलमय तथा सर्वेजनप्रिय है ॥॥ ४८-४९ अर्वाचोनपदद्वारा परं च॑ स्तूयते पदम्‌। तदेव मासते तन्न त्तया लक्षणयोच्यते ५०॥ अर्वाचीन आवतारिक पदके द्वारा परशिवतत्त्वकी भी स्वुति होती है। क्योकि अर्वाचीन पदमे भी वही भासित होता है, तथा लक्षणया स्तुतिबोध्य भी वही है ५० ध्यायेन्नित्व. महेश त॑ रजताचलसंनिभम्‌ चन्द्रावतंस सद्रत्नमुपोज्ज्वलकलेवरम्‌ ५१ ॥॥ हस्तेदंधानं परशु भृग॑ वरमुताभयम्‌ पद्मासीनं प्रसन्‍्नास्य व्याप्रकृत्तितर शिवम्‌ ५२ विश्वायं॑ विश्ववन्य॑ भीहरणं सुरसंस्तुतम्‌। पच्चवषत्र जिनेन॑ सर्बो घ्यायेत्‌ स्तुघीत ५३ अर्वाचीनपद क्‍या है ? जो “ध्यायेन्नित्य” इत्यादि घ्यानमन्नादिमे बताया है वे महेश्वर हैं। चाँदीके पर्वतके समान गौरवर्ण हैं। चन्द्रशेखर हैं। रलभूषणमूपितशरीर हैं। परशु, मृग, वर और अभय हाथोमे धारण किये हैं। पद्मासनासीन हैं। प्रसन्नवदन हैं। व्याश्रचर्मघारी हैं विश्वकारण है। विश्ववन्दनीय हैं। भयहारी हैं। देवस्तुत हैं। पद्चवकत्र तथा त्िनेत्र हैं। ऐसे भगवानका सभी ध्यान करते हैं भौर स्तुति करते हैं ५१-५३ ॥॥ सद्योजात प्रपच्चेःहमुत्तराननरूपिणम्‌ जगत: सृध्टिकर्तारमकार महेश्वरम्‌ ५४ ॥॥ भगवान शकरके उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व एव ऊर्ध्व इस क्रमसे पाँच मुख हैं। 5“कारकी पाँच मात्रा और पज्चाक्षरमन्त्रके पाँच अदार क्रमश उनके वाचक हैं। सद्योजात-बामदेवादि द्रमश नाम हैं तदनुसार- उत्तरमुखरूपी जगत्सृष्टिकर्ता #कारके अकार और पस्चाक्षरके नकार- स्वस्प सद्योजातके हम शरणागत हैं। “सद्यो जात प्रपच्यामि” इत्यादि मन्त्र है ॥। ५४ ।६ यामदेवाय नमो ज्येप्ठाय श्रेषप्ठखपिणों पश्चिमाननरूपाय रक्षित्र आत्मने॥ ५५॥॥

श्री शिवमहिम्न स्तोजम्‌ [ द्वितीय:

पश्चिमानन, ज्गेष्ठ, श्रेष्ठ, “कारके उकाररूप और पज्चाक्षरके 'म! अक्षरात्मा, जगद्रक्षणकर्ता, वामदेवको प्रणाम है “वामदेवाय नमो ज्येप्ठाय नम श्रेष्ठाय च” इत्यादि मनन है ५५॥

शअघोरेम्योध्य घोरेभ्यस्त्वद्रपेभ्यो नमो नमः। दक्षिणात्याव सह मशिरूपाय ते मम.॥ ५६

हे भगवान | आपके अघोर तथा घोर जैसे सभी रूपोको नमस्कार है तथा दक्षिणास्थ, सहारकर्ता, उ#कारके मकारहप तथा पचाक्षरके शिकाररूप आपको प्रणाम है। “अधोरेभ्यो5थ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्य इत्यादि मनन है ५६॥

व्द्यस्तत्पुरयापात्म. महादेवत्प ते नमः? पुर्वास्थाय तिरोधान्न बिन्दवे यात्वरूपिणें ५७॥। तत्पुरुषकी हम उपासना करते हैं। भहादेवका ध्यान नमस्कार करते हैं। पूर्वानन, तिरोधानकर्ता, <&कारमे विन्दुरूप, पञचाक्ष रमे वाकार-

रूप भगवानको प्रणाम करते हैं। “तत्पुरुषाय विद्यहे महादेवाय धीमहि” इत्यादि मनन है ५७

ईशानः सर्वदिद्यानामुर्ध्वास्यः परमेश्वर: नादो योध्नुग्रहोता य-स शिवोष्स्तु सदाशिबोम्‌॥ ५८ सर्वविद्याके अधीश्वर ऊध्वंमुल परमेश्वर उ#कारमे नादरूप, पचा-

क्षरमे यकाररूप जो ईशान है वह हमारे लिये श्दा मगलूरूप हो “ईशान सर्वेविद्याना” इत्यादि मन्त्र है॥। ५८ ॥॥

नमोष्स्त्वोकारत्पाय नम- पश्चाक्षराय च। नम शिवाय तुर्पाय समस्ताम नमो नभः ५९ ॥॥ व्यस्त रुपसे सद्योजातादिस्वत्प तथा समस्तरूपसे <>कारस्वरूप, पञ्चाक्षरस्वरुप तुरीय शिवस्वरूप समस्तस्वरूप छाकरको प्रणाम है ५९॥॥

इत्य. बदश्य ध्यायध्दाप्यर्वाचोनपद शिवम्‌ ) परं॑ शिवमयाप्नोति जडलोकापयाधनात्‌ ६० ॥| इस प्रवार अर्वाचीनपदवा वाणीसे वथन त्तया मतसे घ्यान बरता

टूमा क्रमश जडाशनिराक्रण कर परमशिवप्रदवों मनुष्य प्राप्त करता हैं ६०॥॥

आोक ] स्पन्दवातिकस हितम्‌ श्प्‌

पतति सनः कस्प बच:

नन्‍्वप्र मास्तिकादीना पतेद वाडमबोडपि सामान्यता कथमिय कस्पेत्याक्षेपसरगति 0 ६१ पूर्वेपक्ष-- “पतति मन कस्य ! इस प्रकार सामान्याक्षेप कैसे सगत है ? नास्तिकादिका मन एवं वचन परमेइ्वरमे नहीं छगता है ६१॥ सत्य सुनिरिभव्याना रमणीयामशोभनाम्‌। विदधीरन जडधियो व्याक्रोशीमिति बक्ष्यति ६२ भव्यस्थाध्जडबुद्धेने कस्य नाम सनो बच पतेन्पदेई्वाचीने5स्मिन्नित्यथेज्त ततो भवेत्‌ ६३ उत्तर --स्वय पुप्पदन्त मुनि आगे कहेंगे कि अभव्यों को रमणीय लगने वाली अशोभन गालियाँ जडमति पुरुष भगवान के प्रति निकालते रहते हैं ऐसी स्थिति मे यहाँ स्वयमेव अर्थत यह अर्थ निवालेगा कि अभव्य तथा जडमति को छोडकर अन्य किसका मन एवं वचन अर्वाचीन पद मे नहीं ऊयता ६२ ६३ ॥॥ तत्रेवः जडधोशब्दलक्ष्य वक्ष्यमहे. वयम्‌। नास्तिका सन्ति घोमन्तोड्पीति नाशडूचता तत ६४॥ जडघी किसको कहते हैं यह हम उसी इलोककी बव्याख्यामे स्पप्ट करेंगे। अत नास्तिक भी तेजबुद्धिवाले होते है ऐसी शका यहाँ मत करो ६४॥। मब्याता. संद्धिया सेन्यमर्वाचीनपद शिवम। तदन्त रथ पर चापि ध्याय ध्याय रतुवीमहि ६५॥ इलोकका साराश यही हुआ कि भव्य सदूबुद्धि प्रुरुषोके सेव्य अवाचीन पद झिवका मनसे ध्यान तथा वाणीसे मैं स्तुति करता हूँ और उस अर्वाचीन प्दके अन्त स्थित परमश्चिवका भी इसके द्वारा ध्यात एव स्तुति करता हूँ | ६५ ॥॥ इति श्री काशिकानन्दयोगिन कृतिन छृतो। सहिन्न स्वोन्रवियृतो ह्वितीयस्पन्दसप्रहू ६६॥

2०

39 तृतीयः इलोकः

स्तुत्यौचित्यं समर्थ्याथे ह्वितीये स्तुतिसंभदम्‌। स्तुतिप्रयोजनं॑ प्राह तृतीये$स्मिन्नऋमिनास्‌ प्रथमक्लोकमे स्तुतिके ओऔचित्यका समर्थन किया द्वितीयमे स्तुतिकी सभवता बतायी इस तृतीय झ्लोकमे स्तुतिका प्रयोजन कहते हैं ॥१॥ नम्वीश्वरभ्रसादस्थ. फलत्व॑ स्पष्टमीरितस्‌ | पुराणादी कुतस्तस्थ विचारोड्न विधीयतें २॥ युवत्या फल तत्स्यान्निरास्यभिति साप्रतम्‌। यतो णण्डनं युक्त शास्न्रोक्तार्यस्थ युक्तिमिःश शका --पुराणोमे स्तुतिका फल ईश्वरप्रसाद बताया है। अतः यहाँ फलविचार व्यर्थ है। यह कहे कि 'ईश्वरप्रसाद फल है” यह बात युक्तिसे निरस्त होती है, तो सही नही, कारण शास्नोक्त अर्थंका युक्तियोसे खण्डन करना अयुक्त है २-३ ।॥ उच्यतेश्पुस्पार्थ: सम्‌ यो थुवत्यावि विर्ध्यते सत्र शस्ञतात्पय फर्यंचिद भवितु' क्षमम्‌ ४॥। अपाम सोमममृता अमूमेति शुत्ती शुतम्‌। जन्यस्थासृतता$पोगादन्या थेघुर रीकृतम्‌ 08५७ उत्तर -जो अपु्पार्थ तथा युक्तिविरुद्ध हो उसमे शस्त्रतात्पयँं नही होता बल्कि युक्तिविरुद्ध होनेमात्रसे स्वर्गगी अमरता आपेक्षिक ही मानी गयी है बयोकि उत्पन्न वस्तु अमर नही हो सबत्ती ४-५ ॥| तस्मादयुक्ति सिद्ध चेत्‌ पुराणोदीरितं फलम्‌। फलान्तरविंचारस्तु कार्यो मीमांसकरपि ६॥॥ यहाँ तो वेदोक्त भी नहीं, पुराणोक्त है और युपत्यादिधिर्द्ध भी है तब मीमासकोयो भी अन्यपलके बारेमे मीमास करनी पडेगी ६॥। भक्तस्तु सोक्सामास्यहष्टार्यथ सहर्ता फयम्‌ | ईशें घ्यतुच्छतों पश्यन्नत्तोड्स्यत्फलमोयते ॥।

ख्लौक ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ २७

मीमासकोकी भी यह स्थिति है तो भक्तका क्या कहना साधारण लोगोमे जो स्तुतिसे प्रसन्‍नता देखी जाती है क्‍या भक्त उसे भगवानमे स्वीकार करेगा ? फिर स्वयको तुच्छ देखनेवाला अपनी स्तुतिकी करामात क्‍यों सोचने छगा ? वह अपनी अल्पताको ही प्रकट करेगा वैसा ही फल यहाँ कह रहे हैं ॥| सघुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत-- स्तव ब्ह्मन्‌ कि वागपि सुरग्रुरोविस्मपपदम्‌ सम त्वेता चाणी ग्रुगफथनपुण्येन भवतः पुसामीत्ययें$स्मिन्‌ पुरमथन बुद्धिव्यंबसिता

हे ब्रह्मन्‌ | विभु परमेश्वर ! मधुमधुर परम अमृत वाणीका निर्माण करनेवाले आपके समुख सुरगुरु वृहस्पति या ब्रह्माकी भी वाणी वया विस्मयकारिणी हो सकती है ? नही, मेरे जैसोकी तो बात ही क्या ? वस्तुत आपके ग्रुणकथनपुण्यसे मैं अपनी हो वाणीको परविन्न करता हूँ इस उद्देश्यसे मैंने अपनी बुद्धिको स्तुति करमेमे रूगाया है ॥॥ मधुस्फीता, परममृत्तें मधुस्फोता समसृजद्‌ वाच परमेश्वर निरमासीच्च परमममृत घचनात्मकम्‌ ८॥ उस परमेश्वरने मधुमघुर वाणी उत्पन्न वी। तथा परम अमृत बचनका भी निर्माण क्या ८॥ शब्दप्रपञचो हिविध थेयोहेतुरुदीयंत ; मधुरुपोइमृतात्मा सदुबस विवु्घरषि सगीतमपि साहित्य सरस्वत्या स्तनद्यम एकमापादमधुरमन्यदालोचगामृतम १० दो प्रकारका द्वब्दप्रपच्च श्रेयया हेतु बताया है। एक मधुस्वरुप हैं। दूसरा अमृतस्वरूप हैं। इस वातकों विद्वानोने भी बहा हँ-सगीत मौर साहित्य सरस्वती देवीबे' दो स्तन ( स्तन्य दुग्ध ) हैं। एव (संगीत) समूचा मधुर हैँ। दूसरा (साहित्य) विचाशीत्तर अमृतरप हैं ९-१० शव मधुमाषुर्य समोत सर्वदेहिनाम्‌। विचारादमृतस्यन्दि साहित्य शुतिलल्षणम्‌ ! ११

र्ट श्री शिवमहिंम्नः स्तोत्रम्‌ [ तृतीय:

चक्त वचनका तात्ययें यह हैं कि सुननेमानसे ही संगीत सबको सधुके समान मधुर छगेगा। श्ुतिख्पी साहित्य सुनते हो मधुर नहीं लगेगा, किन्तु घिचार करनेपर मोक्षरूपी अग्नतको प्रदान करनावला होगा पे१॥े वाचो गोतमधुस्फीता वचश्य परमामृतम्‌ इत्येवं प्रकृतेरर्थ:. स्पादन्तर्म वितचार्थेके १२ 0॥ प्रकृत श्लोकवाक्‍्य अन्तर्भावित चार्थक है। अर्थात्‌ मधुस्फीताश्व अमृतं ऐसा समुच्चय यहाँ विवक्ित है ( मधुर सगीत वाणी भी बनायी, श्रुतिरूप अमृत वाणी भी बनायी )॥ १२॥। पच्चमिः शंकरो वक्त्रे: पञूच रागानवतंयत्‌ तथा राणिणीननित्येवं विद्ृद्धिरीयंते १३॥ स्वोयगीतिपरिक्षुण्णा नारदों रागरागिणीः॥ वीक्ष्य ता रक्षितु शम्भुमगादिति जनथ्ुतिः १४ सगीतप्रवत्तेकके रूपमे शकरभगवान सगीताचार्योमि प्रसिद्ध हैं। अपने पाँच मुखोसे शकरने पाँच मुख्य रागोको तथा राग्रिणियोको प्रकद किया था। एक बार नारदजीने देखा कि हमारे गायनसे इन रागरागि- णियोका अग्रभय हो गया तो उन्हे पूर्ववत्‌ करनेके छिये शकरभगवानकी शरण ली थी १३-१४ विद्याधिष्ठातृर्पेण प्रसिद्ध: शंकरस्तत. साहित्यनिर्माणकरोध्प्येष. एवेति सिध्यति १५१३

विद्याके अधिष्ठाताके हपमे शकर प्रसिद्ध है। अत. साहित्यनिर्माण- कर्ता भी शकर ही सिद्ध होते हैं १५

सधु-अमृ्त सामवेदें तु संगोत॑ बेदान्ते चामृते परम्‌। तदेतदुमर्य चक्र इति वा योज्यतामिह १६॥ हे सामवेदमे सगीत है, बेदान्तमे अमृत है। दोनोका निर्माण शकरने कया ऐसी भी योजना सम्मव है १६॥ भधु-अमृतं श्रयवा द्विविधा वाक्‌ स्पात्‌ परा चैयापरापि चू॑ ऋण्वेदादिभंवेत्तत्रापपरा बाइ मुण्डकेरिता १७

छोकः | स्पन्दवातिकसहितम्‌ २६

परा तु साउ्कषरं सत्यं यथा चाचाधिगम्यते। यददृश्य॑ तथा5पग्राह्ममचक्षु:थओोनलक्षणम्‌ १८॥॥ अथवा दो प्रकारकी वाणी है-परा और अपरा। ऋग्वेदादि अपरा वाणी है और परा वाणी वह है जिससे अक्षर सत्यकी प्राप्ति हो। जो अक्षर, अदृश्य, अग्राह्म, अचक्षु , अश्नोत्रादिरूपसे वरणित है १७-१८ विद्येव भुण्डके प्रोक्ता परापरविभागमाग तथापि तद्ेतुरपि परापरविभागमागु १९॥ यद्यपि मुण्डकोपनिषत्‌मे “द्वै विद्ये वेदितव्ये**** परा चैवापरा च” इस प्रकार विद्याके दो विभाग बताये तथापि विद्याहेतु बाणीके भी ये दोः विभाग सुगम है १९॥॥ अन्नाद्या तु मधुव्याप्ता स्वर्गादिफलसर्जनातू अमृत यत्तु तनोकत भवेदापेक्षिकं हि तत्‌॥ २० आमूतसप्लव स्थानममृतत्व॑ हि. भाष्यते। इति शास्त्रेपु तत्तर्व स्पप्ड व्याप्यातमेव २१॥॥ इनमे प्रथम-ऋग्वेदादिरूप वाणी स्वर्गदाता होनेसे मधुब्याप्त है यद्यपि स्वर्गको भी कही-कही अमृत बताया है। तथापि वह आपेक्षिक अमृत ही है। कल्पपयंन्तस्थायित्व ही अमृतत्व है। इस प्रकार श्ञास्त्रोमे उसकी स्पष्ट व्याख्या भी उपलब्ध है २०-२१ अत एवाह भगवान्‌ गोतासु विजय प्रति। यामिमा पृष्पिता वाच प्रवदन्त्यविपश्चित-॥ २२ पुष्पे प्रसिद्ध हि मधु मधुल्फीता ततस्तु सा। इसीलिए गीतामे--“अविद्वान इस सकामकर्मप्रतिपादक परष्पित वाणीको कहते हैं” ऐसा बताया है प्ष्पमे मधु प्रसिद्ध है। अत कर्मवोघक वेदबाणी मधुस्फीत है २२३ अन्या येदान्तखूपा तु परमामृतदामिनों २३ 0 परा वाणी वेदान्तरूप हैं। वह परम अमृत मोक्षको देती है। अत अमृत इस विशेषणके योग्य ही है ॥! २३ ॥। बाचः स्वर्गादीनामनेकत्वाद्‌ बहुत्वेदाह वाकुपदम्‌॥ पझ्रमृतस्पेकरूपत्वात्‌ू_ तदेकबचनेन च॥ २४॥

३० श्री शिवमहिम्न स्तोनम्‌ [ वृतीय-

अपरावाणीके फल स्वर्गादि अनेक हैं, अत, बाच ऐसा वहुवचनान्त प्रयोग किया अमृत-मोक्ष एकरूप है अत अमृत ऐसा एकवचनान्त प्रयोग किया र४

अथवा बाच इत्यस्मान्‌ नत्रयी विद्याभिधोयते।

इ#कारो5म्ृतमित्येतत्पदेन विमिगयते २५ अथवा “वाच से वेदनय ग्राह्मय है और “अमृत” से “कार ॥२५॥ परम

सारख्पा. परथिव्याद्या मुताना पृथिवी रसः॥ इत्यादिवचनासेथा व्यावृत्त्ये पर्स पदम्‌ २६॥

“एपा भूताना पृथिवी रस पृथिव्या आपो रस अपामोपधयो रस इत्यादि कहकर अन्तमे “साम्न उद्गीथो रस ऐसा छान्दोग्यमे बताया है उनमे भूतादिकी अपेक्षा प्रधिवी आदि सार-अमृतरूप हैं। उनकी व्यावृत्तिके लिए 'परम' विशेषण है २६॥

रसाना स्पाद्रततम उदगोथः परमोज्ष्ठसः। ज्योयं चर्तते तेन. पर्मामृतमुच्यते २७

“स एप रसाना रसतम परम पराष्योंडप्टमो यदुद्गीथ '” इस अकार पृथिवी आदि रस सख्याम अष्टम उदगीथ उ#कारको रसोंमे रसतम परम बताया है उसीसे तीन वेद प्रकट है अत वहू परम अमृत कहलाता है २७

अमृत ओमित्यक्षरमेतद्धि भुत भव्य मवच्च यतु। रूपाणि नाम्नि लीयन्ते नाम्रान्योकार एव र८

तया चामृतरूपत्वमोकारस्यथ स्फुट मतम्‌। तदु व्याहरन्‌ सृतो भर्त्यश्यामृतत्व प्रषद्यते २९४७

को विशिष्ट अक्षर बताया है। क्षरणशून्य ही अक्षर है। भूत, अविष्यद्‌, वर्तेमान आदि सभी <कार हो है। हृप सभी नाममे छीन होते हैं। नाम ४ैक्रारमे छीन होते हैं॥ ओवारका रूय नही होता इस प्रकार उल्‍कार अमृत्त सिद्ध हुआ। उसका उच्चारणवर मरनेवाछा मर्त्य अमर ड्ोता है इसलिए भी उध्यार अमृत है २८-२९

झ्लीकः | स्पन्दवातिकसहितम्‌ ३१

निर्मितवतः ओमित्येकाक्षर॑ ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ यः अ्रयाति त्यजन देहूं याति परमां गतिम्‌ ३० प्रणवः सर्ववेदेष्वित्युकतेश्व॒ परम॑ भवेत्‌ तन्निर्माणं व्याहरण वचेदव्याहरणं ततः ३१ गीतामे भी यह बात आयी हुै-“ओकार उच्चारण एवं मेरा स्मरण कर देह त्यागमनेवात्ा परमगतिको प्राप्त होता है! सब वेदोंमे प्रणव मैं हूँ” इससे >४कारकी परमता सिद्ध होती है। उसका निर्माण अपमोच्चारण है उसके वाद भगवानते वेद प्रकट किया ३०-३१ |॥ शास्त्रयोनित्वत इति सूनकारोष्प्यसूत्रयत्‌ श्रयो बेदा अजायन्त तस्मादित्यागमादपि॥ष ३२३) “शास्तयोनित्वात्‌” इस प्रकार सूत्रकार व्यासजीने भी भगवानको चेदकारण बताया है स्वयं वेदोमे भी यही बात “तस्मात्तपस्तेपानात्‌ जयो वेदा अजायन्त” इस वचनसे बताया है ३२॥॥ वेद: शिव: शिवो बेद इत्यन्या क्षुतिरत्रदीतु ! शिवात्मत्वं ठु॒ बेदानां शिवब्याहरणाद्‌ भवेत्‌ 0 ३३ वेद ही शिव हूँ शिव ही वेद है इस प्रकार अन्य श्रुती कह रही हैं। शिवजीने प्रकट किया अत शिवरूप कहा गया रे३॥। एवं सुमधुरा वाचः परमामृतमेव च। निर्मातुविस्मयपर्द कि नु वागू गौष्पतेरषि ३४ ॥! इस प्रकार सुमधुर तथा परमामृत वाणीका निर्माण करनेवाले भग- वानके सामने मीष्पति की भी वाणी विस्मयजनक होगी वया ?॥ हे४ अन्ये व्याचक्षते बाचां हें इहोकते विशेषणे। सधघुस्फीतत्वमेक॑ ततू परमामृतताउपरा रै५ ॥। शब्दालकारघुक्तत्वं मधुस्फोतत्वमुच्यते अथौलद्धारयुव॒तत्वममृतत्व निगद्यते रे५ दूसरे छोग यहाँ ऐसी व्याख्या करते हैं. कि वाणीके ही दो विश्ेषण अधुस्फीतता और परमामृतता है झब्दालकार मरधुस्फीतता है। बर्था- छकार परमामृतता हैं ३५-३६

केचित्वमृतमित्येतल्निमागस्य _. विशेषणम्‌ क्रिया विशेषणत्वाच्च वलोबेकत्वे समार्थयन्‌ ३२७॥॥

शेर श्री शिवमहिम्तः स्तोत्रम्‌ [ बृतीयः

कुछ लोगोने “अमृत” को निर्माण क्रियाका विज्लेपण मानता। क्रियाविशेषण होनेसे नपुस्तक प्रयोग और एकवचनान्तता है )। ३७

सधुस्फोता

ऊरीकृत्यैकबचन॑.. मधुस्फीतेति. केचन। वाच इत्यपि पष्दयन्तमन्यथा व्याचचक्षिरे ३८ बाच चऋऋप्रस्त इत्पुवतं छान्‍्दोग्ये तन्न साम थे त्त्राप्युक्तो रसततम उद्धोय: परमः पुनाः॥ ३९॥॥ ऋचं वा साम वोद्गीयं वाअपृतं वाग्रसात्मकम्‌ क॒तुंः कि विस्मयपद॑ सघुस्फोताषि बाग बिघें; ४० कुछ छोग--मेधुस्फीता यह एकबचनानन है ओर “बागपि” का विज्षेषण है, वाचः यह पण्ठ्चन्त है, ऐसा मानकर व्याख्या करते हैं वाचः:+नवाणीका, अमृत++रस--ऋक्‌ या साम था 5#कार वनाने वालढेको ब्रह्मकी मधुमय वाणी भी विस्मित करा सकती है क्या ? ३८-४० ॥| निर्मितवतः कि विस्मयपदम्‌ इत्य सध्व्यृर्ता वां निर्मातु: परमेशितुः। चमरत्कृति कां नु क्रुर्या स्त॒ुत्यात्पचतुरोडनया ४१ ॥॥ इस प्रकार मधुरूप तथा अमृतरूप वाणीके निर्माता शंकरको ब्रह्मा भी चमल्कृत नही कर सकते तो भल्पचतुर मैं इस स्तुतिसे भला कैसे चमत्कृत क्र सकता हूँ ? द१॥॥ अस्तु गौतफला स्तुत्पामस्तु साहित्यमेव च॑। तथाप्येषा चमत्कतु क्षमते नेच शंकरम्‌ ४२ ॥॥ और माना भो जाय कि इस स्तुतिमे गीतकला भी है साहित्यकला भो है। फिर भी शकरभगवानको यह चमल्ठत नहो कर सकती ( वयोकि बाणीमात्नका निर्माण शकरने क्या है ) ४२ चोनांशुकापणाठ क्रोत्या त्त्खण्ड यदि फश्वन तस्पेव श्रेप्ठिने दत्या चमत्कतु क्षमेत फिसू ४३ ॥॥ उद्यानपतये._ तस्मादाचोयोद्यानतो. यदि। द्वित्राणि वद्चात्पुप्पाणि किमतोउन्य हविंडम्वतम्‌ ४४ ॥॥ रेशमी वस्न्रगो दुकानशे एक रेशमी वस्त्र सरीदकर उसका एक टुकड्ष उसी दुवानके मालिक सेठकों देकर कोई उसे थुद्दा कर सकता है

झोकः ] स्पन्दवातिक्सहितम्‌ ३३

क्या ? उसकी आँखोंको चकाचौंध कर सकता है ? बगीचेके मालिकको उसी बगीचेसे दो चार फूल तोडकर अपना कहकर कोई देने छूगे तो इससे बटकर क्या विडम्बना होगी ? ४३-४४ दूरान्मम सु धाग्रेषा कि स्थात्सुरगुरोरवि। तब विस्सापनी यस्या निर्मातासि त्वमेव हिं॥ ४५ मेरी वाणी तो दूर, क्या सुरगुरु बृहस्पति या ब्रह्मकी भी वाणों आपको विस्मित करने वाली है? जिसके रचयिता स्वय आप है॥ ४५ बाचो रस्विधातारं रसयेत्‌ कस्य वाउत्र बाकू अमृत प्रणयन्त हि सध्‌ विस्मापयेत्‌ फिम्रु ४६ |॥ अथवा यो कहँ--वाणीके अमृतरूपी रसका निर्माण करनेवाले आपके हृदयमे किसकी वाणी रसोद्भावन कर सकती है ? आपने वाणीमे अमृत डाला हमारी वाणीमे तो सिर्फ मघु हैं। क्या अमृत वनानेवालेको म्रधु ( शहद ) आम्चर्ममे डालेगा ? ॥॥ ४६ चन्दिभिः कविभिश्चेव स्तृयमानो महीपतिः। वाचा निपुम्फः सतुष्येक्ष स्व तदन्महेश्वर ४७॥ बन्दीगण और कविंगण स्तुति करने छगते हैं तो राजा आदि उनकी वाणी चातुरीसे प्रसन्न होते है। परन्तु हे भगवत््‌ उस प्रकार आप प्रसन्न नही होते ४७ परिच्छिप्नाः परिच्छिन्नें: प्रसीदन्‍्तु स्तवादिभिः अनम्तव्रह्महपत्त्व॑ फर्थ तेहि. प्रसीदत्ति ४८ परिछिन्न राजा आदि परिच्छिन्न उत्कर्पवोधक स्तुति आदिसे भले प्रसन्‍न हो। किन्तु हे ब्रह्म! आप अपरिच्छिन्त ब्रह्मस्वरूण उससे कैसे प्रसन्‍न हो सकते है ४८ ॥! सर्वकर्मा पर्वेरसगन्धकामादिमागसि अनादरो नित्यतृप्तेरात्मा ब्रह्मास्यशेपहक्‌॥ ४९॥॥ हे ब्रह्मम! आप समस्तजगत्कारक है। सभी रसगन्धकामादि आफ है. लिव्यलुप्त होनेसे अन्ादर है| अप्नाप्त प्राप्तिमे आदर होता है। अप्राप्त कुछ है नही अत स्तुतिसे आप अप्राप्त बया पायेंगे जिससे आप प्रसन्न होगे ? पुनामीत्यरथें भहं पुनः स्तवीमि त्वां स्वीया पावयितु' गिरम्‌ लौकिकस्तुतिनिन्दाधेयश्पविता ममामबत्‌ ५०

डर श्री शिवमहिम्न स्तौत्नमू [ तृतीय-

आपको चमत्कृत करनेके लिये नहीं किन्तु अपनी वाणोको पवित्र करनेके लिये मैं आपकी स्तुति करता हूँ। लोकिक स्तुतिनिन्दासे जो ( भेरी वाणी ) अपवित हो गयी है ॥। ५० ॥।

पुरमथन

देव: स्तुत- पुरा ह॒त्वा त्वमेव त्रिपुरासुरम्‌ अपादयों भुज तहन्मद्राणीं पावय प्रश्ों॥ ५१॥ आसुर्या संपदा विद्धव्यवहारग्रदूषितामा त्वा बिना पावयेत्कों नु पुरान्‍्तक गिर मम्र॥ ५२ हे पुरमथन ! देवताओकी स्तुति सुनकर आपने निपुरासुरबधकर पृथिवीको पविन किया वैसे मेरी वाणीकों भी पवित्र करो। यह वाणी आसुरी सपदासे दूषित व्यवहारसे कछकित हो गयी है। आपके बिना कौतव भेरी इस वाणीको पवित्र कर सकता है ५१-५२ नवत्त्तुतिर्भवद्योगात्पावधिष्यति ता स्वयम्‌ तदर्थ प्रार्थमे नाह पृथक त्वा जयमतः प्रमो॥ ५३ परन्तु मेरी याणी पविन करो ऐसी प्ृथक्‌ श्रार्थना मैं नही करता। क्योकि आपकी स्तुति आपसे सयुक्त होनेसे स्वय पवित्र करेंगी ५३ त्वत्स्तुत्या पुतया वाण्या पठन्‌ वेदानू घपन्‌ सनुम्‌। त्वदीय परम लप्स्ये पद सर्वशिबकर॥ ५४॥ आपनी स्वुतिसे पवित्र वनो वाणीसे बेदोको पढ़ते हुए मच्जोको जपते हुए आपके परमपदको मैं अवश्य पाऊँगा ५४ ॥। अप्तदिपरा महपातः सद्गिरा चमहोन्नतिः। अतोःह पावये वाणों त्वत्त्तुत्या परमेश्वरत ५५॥॥ झूठ बराबर पाप नही, भगवत्स्तुति बराबर पुण्य नही अत आपकी स्तुतिसे वाणीकों पवित्र करना भी बहुत वडी सिद्धि है॥॥ ५५ क्विच याण्पा पब्चिभायां भनःशुद्धिबिनिर्मलम्‌ ज्ञान सत्यतपत्तो हृष्ट सच्च भवेन्मम ५६॥॥ वाणीयी पविश्नतासे वेदपाठादिप्रयुक्त सदुयति प्राप्त होगी ही। इतना ही नहीं उससे मनयी पविश्नत्ा तथा निर्मझज्ञान भ्रद्मचारी सत्यतपसूफो आप्त हो गया था वह मुझे भी प्राप्त होगा ५६ ॥॥ निःश्ेयस्तान्‍्त तदिद यस्प स्यादुमुणवीतंनम्‌ तप््म॑ नमोषस्तु सतत ग्रह्मणें पुरमेदिने॥ ५७॥

ख्ोक- ] स्पन्दवातिकसहितस्‌ श्प्‌

इस प्रकार जान द्वारा नि.श्रेयसपर्यन्त जिसका गुणकीतेन फल प्रदान करता है उस ब्रह्मस्वरूप त्रिपुरारि शकर को मैं प्रणाम करता हूँ ५७॥ इति श्रीकाशिकानन्दयोगिनः कृतिनः कृतो। सहिंन्न.स्तोरविवृतो तृतीयस्पन्दसंग्रहः

हि

32

है.

चतुर्थ: इछोकः

अर्वाचीने पतत्ति मनः फल्य नया वचः। इत्येतन्नास्ति युक्तार्थे नास्तिकेष्वनवेक्षणात्‌ ॥: पहले बताया था कि भगवान के अर्वाचीन साकार स्वरूपमे किसका सन नही लगता और किसकी वाणी कुछ कहने के लिये आग्रे नही वटती परन्तु यह वात सद्भत नही दीख़ती कारण कस्य के अन्दर नास्तिक भी आते है, उनमे उक्त बात छाग्रू नही होती १॥ चास्तिकानां हद दृष्टं युक्‍त स्थादिति सांप्रतम्‌॥ श्रद्धाजडधियां तत्‌ स्पात्‌ कि स्पात्सस्याव्तां ततः यदि कहे कि नास्तिकोक्ी बात छोडो, आस्तिकोका मन वाणी तो लगता है। तो यही कहा जायेगा कि श्रद्धाके कारण जो जडघी हो गये हैं उनके इस वृत्तका सस्यावान॒न्‍-पण्डितं ( सास्यवेत्ता ) के लिये क्‍या उपयोग २॥। कि धावचिनशब्देन ध्वन्यतें परसात्मनः सनातन पद कफिचिद्स्पत्तस्थव विद्यत्ते ३॥ सदसिद्धा हि यतः प्राचोन किचिदोहशम्‌ अरवचिीन कुतस्तस्थ क्या घेव यूथा ततःकर४थध दूसरी बात यह है कि “पे त्वर्वाचीने” यहाँ अर्वाचीन पदसे सूचित होता है कि परमात्माका प्रचीन कोई सनातन पद भी है परन्तु ऐसा बोई

३६ श्री शिवमहिम्न: स्तोत्रमरु [ चतुर्यः

प्राचीन पद असिद्ध है। प्राचीन नही तो अर्वाचीन कहाँसे आया। वव उसकी कथा भी वृथाकाप मात्र होगी ३-४ तथा च॒ तत्स्तुति कृत्वा स्ववावपावनताकृते!। प्रत्याशाईर्थवती. नेति.. तन्रेदममिधीयते ऐसी स्थिततिमे उत्त अर्वाचीनपदकी स्तुति कर अपनी वाणीको पवित्र करनेकी आशा दुराशा ही है इस पूर्वपक्षपर “तवैश्वर्य यत्तत्‌” इत्यादि चतुर्थ छोक स्तुतिहुपमे कहा जा रहा है॥

तवेदधर्ण.. भत्तज्जगदुदयरक्षाप्रल्यक्ृंतु

अपोषस्तु व्यस्तं तिसूपु गुणसिन्नासु तनुषु छभव्यानामस्मिव्‌ वरद रमणोयामरसणीं

विहन्तुं व्याक्नोशीं विदधत इहैके जडघिय:॥ ॥।

हे बरद | आपका ऐडवर्य ऐसा है जो जगत्‌की सृष्टि, स्थिति एव संहार करता है, तीन वेदोका प्रतिपाद तत्त्व है, सत्त्व, रण, तम ऐसे तीन गुणोसरी भिन्न तीन शरीरोमे व्यस्तरूपसे स्थित है। कुछ जड़मत्ति उस ऐश्यर्य- का निरास करनेके लिये ऐसा प्रछाप करते है जो वस्तुत. अशोभनीय है, किन्तु ससारमे अभव्य व्यक्तियोंके लिये रमणीय छूगता है| ४॥ ऐश्वर्य ऐश्वर्य द्विविघं प्रोक्त पर॑ चापरमेव च। त्रिपादश्नह्मात्ममहिमा परमैश्वर्यमी रितम्‌ ॥। ईश्वरः सर्वेशक्तः स्पात्सुप्टिस्थितिलयादिक्ृत्‌ तस्य मभाबो यदेश्वर्यमपरं तु कीतितम्‌ ७॥ ततन्च सृष्डिस्थितिलयानुप्रहादिविधायकम्‌ चंतन्पयमेष.. प्रझृते. भवेदेश्वर्य शब्दितम्‌ ऐम्र्य दो प्रकारका होता है एक पर ऐश्वर्य है। दूसरा अपर ऐश्बर्य है। “त्रिपादस्यामृत दिवि” इस प्रकार पहले उपपादित परम महिमा ही पर ऐडवर्य है। दूसरा ऐश्वये ईश्वर सर्वसमर्थ- सूष्टिस्थितिलयादिकारी, उसका भाव इस व्युत्पत्तिसे रभ्य ऐश्वर्य है। वही अपर ऐश्वर्य है। प्रकृतमे

भाव-मात्र नही समझना। ढिन्‍्तु सृप्टिस्थितिल्य आदि फरनेवाला चैतन्य ही ऐश्वर्य शब्दका अर्थ समझना चाहिये ६-८

झोकः | स्पन्दवातिकसहित मु ३७

ऐश्वर्यमेकमेव प्राकू प्रिपादपेण संल्यितम्‌। उपाधिवशतः पश्चात्‌ सृष्टिस्थित्यन्तकृज्धूवेत्‌

यद्यपि ऐश्वर्य दो नही है। तथापि उपपरधिसे भेद है। जो ऐश्वर्य 5४ त्रिपातरूपसे स्थित है वही उपाधिवशात्‌ वाद सृष्ठिस्थितिलयकारी ता है॥

शत्रयीवस्तु तवश्वयं परं यत्तत्‌ तयीवस्त्विति योजना। न्नय्यां._तत्पतिपाद्यत्वविघया. वसतीत्यतः १० ॥॥ अ्लोकमे यथासख्य अन्वय करना चाहिये ) तव ऐश्वय॑ यत्‌ त्रयीवस्तु तिसुपु गुणभिन्नासु तनुपु जगदुदयरक्षाप्रलयक्॒त्‌ ऐसा अन्वय है। आपका पर ऐद्वर्य वेदतयप्रतिपाद्य वस्तु है। वही तीन झरीरोंमे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र शरीरोमे जगतकी उत्पत्ति स्थिति लयकारण होकर अपर हुआ परन्तु आगे कुछ विज्येपता आगमानुसार दिखायेगे। अत. प्रथम इतनी ही योजना कीजिये-भगवानूका पर ऐश्वर्य वेदमयवस्तु है। इसकी व्याख्याकर आगे बढेंगे तीन वेदोमे प्रतिपाद्ररूपसे वास करता है अत त्रयीवस्तु कहा-नय्या वसति १०॥ सर्वे चेदाः पद यद्धणासतन्तीति अ्षुतेदेचः। चेदेश्लव. सर्वेवेद्योह्हमित्याह भगवानपि ११॥ श्रुतिवचन है--“सर्वे वेदा यत्यदमामनन्ति” सभी बेद जिस एक प्रमपदको ही कहते है भगवदुगीतामे भी बताया--सभी वेदोमे वेद्य मैं ( परमात्मा ) ही हूँ अत वह चरयीवस्तु है ११॥ है सदेव सोम्येति शिव शान्तमद्वंतमित्यपि तथा तत्त्वमसीत्यादिः श्रुतिः साक्षात्तदाह हि॥ १२ त्रयीप्रतिपाथता दो भ्रकारसे है। साक्षात्‌ और परम्परया | “सदेव सोम्येदमग्र आसीत्‌”, “शिव शान्तमदँत चतुर्थ”, “तत्त्वमसि” इत्यादि श्रुति साक्षात्‌ पर ऐश्वर्यका वर्णन करती है १२ सर्वा एवोपनिपदस्तात्पर्धविघया . परम्‌ आहुरंश्वयमिति च॑ पड्लिद्धेंदेशित बुघेः्ता १३॥ सभी उपनिपदें तात्पर्यत. परब्रह्मरूपी ऐश्वर्यका ही वर्णन करती हैं यह बात पड्लिज्धोके द्वारा विद्वानोंने दरशाया है १३ ॥।

बट श्री शिवमहिम्तः स्तोत्रस्‌ [ चतुर्थ:

स्वंपदार्थविशुद्धचर्थ. कर्मकाण्ड॑. श्रवतते तत्पदार्थ विशुद्धच्रथे मुपासाकाण्डमेव छा॥ १४॥ यह ज्ञानकाण्डकी वात हुई। कर्मकाण्ड और उपसनाकाण्डमे पर ऐश्वर्यंका वणेन किस प्रकार ? सो कहते है--पूरा कर्मकाण्ड त्वपदार्थशोध- नाथ है। और पूरा उपासनाकाण्ड तत्वदार्थश्लोधनार्थ है। अत. वहाँ भी परम्परया प्रतिपादय ब्रह्म ही है १४॥

सनाशरूप बाघविधं हिविध शोधन सतस्‌ कर्मभिर्मलताशात्म त्वपदार्यंविशोधनम्‌4॥। १५ मायातरणरूप॑ . तत्पदाययविशोधनम्‌ उपास्त्या सा प्रपद्यन्ते ये तां मायां तरन्ति ते॥ १६ ज्ञानकाए्डे पुनस्तत्त्वंपदार्यंपरिशोघनम्‌ बाधल्पं॑ भदवेत्तत्र पुर्वोक्त तु सहायकम्‌ १७३॥॥ क्मेंकाण्ड और उपसानाकाण्डसे तत्त्वपदार्भशोधन कैसे ? इसे समझने- के लिये प्रथम दो प्रकारका शोधन समकझिये। एक झोधन साशास्मक है | दूसरा बाधात्मक है। कर्मसे त्वपदार्थे जीवात्मास्थित मलनाश होगा तव बह शुद्ध होगा, शी ध्रस्वस्पवोधयोग्य होगा उपासवासे मायाउपसरणरूप तत्प- दार्थशोधन होता है। “मामेव थे प्रपद्चन्ते भायामेता तरन्ति ते” इस प्रकार गीतामे यह बात कही ग्गी है। ज्ञानकाण्डमे तत्त्वपदार्थशोघन बाधात्मक होता है। उसमे पूर्वोक्त माशात्मक शोधन सहायक है अत सकलछवेदप्रति- पाय ब्रह्मतत्व है १५-१७॥ कि कर्मोद्घृतमलो घ्वस्तविक्षिप्ट्युपास्तिकः »घिकारी भवेत्‌ पारम्पर्येंण भ्रह्मदर्शने १८ कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड अन्य प्रकारसे भी ब्रह्मदशनमे कारण है। जैसेकि कर्मसे मलनिवृत्ति जिसकी हो गयी हो, विक्षेपको ध्वस्त करनेवाछी उपासना जो कर चुका हो वही परम्परया ब्रह्मद्शनमे अधिकारी होता है १८ स्वर्गादिक फर्ल यत्र फर्मादेः श्वृतिपुदितम्‌ तत्रापि विश्वासोत्पत्तिपारम्पर्यभमीष्सितम्‌ १९ शड्धा होगी कि "स्वर्गंकामो यजेत” से विहित यागका स्वर्गादि फल एवं पश्चात्‌ पतन ही होता है, वहाँ ज्ञानतात्पर्य कथमपि सभावित नहीं है, इसवा समाधान यह है फि वहाँ भी सत्कमंप्रवृत्ति एवं विश्वासोलत्तिमे छात्वयें है १९

ख्लोक ] स्पन्दवातिकसहितस्‌ श्र

यथा प्रवृत्तिदिव्यार्था मन स्थितिनिबन्धनी तथा. स्वर्गादिसप्राप्तिवेंदविद्वासकारिणी २० ।। जैसे दिव्यगरन्धादिसवित्रूपी प्रकृप्टवृत्ति होनेपर योगग्ास्तमे विश्वास होता है वैसे स्वर्गादि प्राप्त होनेपर वैदिकविद्याओमे विश्वास उत्पन होता है॥ २० च॒ प्रत्यक्षफलतो विश्वासोत्पत्तिरिप्यताम्‌ स्वर्गाद्यहप्टफलत कथ तदिति साम्रतम थे रे१ थे सर्वथा5हृष्टरूपत्वे फलत्व.. नव युज्यते भ्रत्यन्तानेयतत्प्रेप्ता नापि क्स्यापि जायते॥ २२ तत स्वर्गद्चनुमवसस्कारवशत पुमान्‌। तदिच्छन्‌ वंढिकार्थेपु विश्वास लगते क्रमात्‌ २३ ।॥ यदि कहे कि प्रत्यक्ष गधादि सबित्से विश्वासोत्पत्ति हो, किन्तु स्वर्गादिख्प अदृष्टफलसे विश्वास कैसे होगा ? इसका उत्तर यह है वि सर्वथा अदृष्ट हो तो वह फल ही नही हो सकता। अत्यन्त अनज्ञातकी प्राप्ीच्ठा भी नही हो सकती अत स्वार्गादिके अनुभवका कुछ सस्कार अनुवर्तित होता है यह मानना होगा तब बह वेदिवा्थोम विश्वासोत्पादक भी निश्चित है २१-२३ जय्या घसति तत्‌ तस्मात्मयीवस्त्विति भण्यते जय्या वास्त॒विकोड्योप्य त्यीवस्तु ततो5पि घ॥ २४॥ वेदनमीमे वास करता है अत त्रयीवस्तु हैं। और वेदत्रयीम यही वास्तविक अर्थ है इसलिये भी तयीवस्तु है॥ २४ ज्गदुदय० प्रकृत्युपाधिमादाय त्रयीवस्तु तदेव हि। विश्वोत्पत्तिस्थतिलयकारण जायते परम्‌ २५३ प्रकृति उपाधिको लेकर वही भ्रयीवस्तु ब्रह्म वादम विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति एव लूय करनेवाला होता है २५ ग्तो भरुतानि जायम्ते जीवन्त्यमिविशत्यवि। यस्मिम्प्रयन्ति तद्‌ ब्रह्मत्येवमाह श्ुत्ति स्वपम॥ २६॥ व्यतो वा इमानि भुतानि जायन्ते? इत्यादि श्रूतिमे ब्रह्मतों जगत- उत्पत्तिस्थितिकमषका कारण बताया, ब्रह्मा, विष्णु आदिसे नहीं २६ ॥।

४० श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रभ्‌ | चठुथेः

तिसुप्ु गुण तदेव गुणमिन्नासु ब्रह्मविष्ण्वीशनामसु ब्यस्त॑ं पृथर्‌ तनुपु सृष्ट्यादिकरमिष्यते २७ त्रयीवस्तु जो प्रकृति उपाधिसे सृष्टिस्थितिलयकारी हुआ वही सत्व,

रज, तमसे विष्णु, ब्रह्मा, शिवनामबाले शरीरमें व्यस्त ( अलग अछग ) होकर पृथक्‌ सृण्ट्कर्ता, रक्षाकर्ता और संहारकर्ता होता है २७

ठुरोयं॑ पवमहेते॑ परमः शिव उच्पते।

स्पन्दनात्‌ शिवः प्रोक्तः प्रकृत्येच्छात्मना सह २८

अ्यक्ष: पत्चवक्‍्त्वश्व सृध्टिस्थित्यन्तक्ग॒तू हि

तस्प चामाज्भतो ब्ह्मा दक्षिणाद्विप्णुरेव च॥ २९॥

हृदयात्त्वभवद्व॒द्रस्ततोष्स्प मसहिमाधिकः | व्यक्षत्वादिसमाकारो. राद्रस्थेव महेशितुः॥ ३० विस्तरेणाखिल मिदमगप्रे सममिधास्यते पूर्वाधकथयिततार्थस्प क्रमार्थमघुनेरितम्‌ २१

तुरीय अद्वेतपदको परमशिव कहते हैं वह अपनी इच्छारूपी प्रकृति- से स्पन्दन करता है तो शिवसंज्ञावाला होता है। वही त्रिनयन पच्चधमुख शद्धूर है, वही वास्तवमे सृष्टिस्थितिप्रछय करनेवाला है। उस शिवके वाम भागसे ब्रह्मा प्रकट हुआ। दक्षिण भागसे विष्णु उत्पन्न हुआ और हृदयसे रुद्र प्रादुर्भूत हुआ। हृदयसे उत्पन्न होनेके कारण रुद्रकी महिमा अधिक है अतएव कही-कही रुदका शिवरझूपेण वर्णन और शिवका रूद्र ऋब्दसे वर्णन मिलता है। वीचमे एक सदाशिव भी है। परन्तु इन सबका विस्तृत वर्णन हम आगे करेंगे यहाँ तो “त्वेश्वर्य यत्तत्‌” इत्यादि पूर्वार्धमें कथित अर्थका क्रम दिसानेके लिये हमने सक्षेपत. निरूपण किया २८-३१ विहन्तु तदिद हि तदवश्यर्थ परापरविभागगम्‌ विहन्तुं फेचिदसुधघा व्याक्रोशों संप्रतन्वते देर इस प्रकार पर-अपरविभागयुक्त आपके उस ऐडबर्यका निराकरण करनेके छिये कुछ अज्ञामीजन माना प्रप करते हैं ३२॥। व्याक्रोश्ीं नास्तिदानां प्रवक्ष्यामों स्याक्रोशोंमुत्तरश्ध हिं। स्थाफ़ोशों तिनामप्र श्ववोध्यास्तिकमानिनाम्‌ ३३ ॥॥

झ्लोक ] स्पन्दवा तिकसहितमु ४१

नास्तिकोकी व्याक्रोशी ( प्रछ्ाप ) को उत्तर झोकमे वतायेंगे। यहाँ अपनेको आस्तिक बतानेवाले द्वेतवादियोकी व्याक्रोशीको हम दिखाते हैं ॥॥ ३३ अद्ठे ते यकतृवक्तव्यमोक्तृमोक्तव्यतादिकम्‌ ! गुरुशिष्यादिक॑ चंब कर्यचिन्नोपपद्चते ३४ ईशमोशः कर्य शारित ब्रह्म ब्रह्मात्ति वा कथम्‌ ग्रुरी ज्ञानिनि शिष्यो४पि स्वतो ज्ञानी कयं ते २५ अद्दे्त शिवमित्येतदनर्थक्मतो.. बचः स्वस्पोपपादक स्व चेत्‌ सिध्येद्‌ व्यॉभसुमाद्यपि ३६ !॥ द्वैतवादी व्याक्रोश करते है--अद्गैतमे वक्ता और श्रोता एक ही होगा जो अनुपपन्न है। भोक्ता और भोग्य तथा गुरु शिष्य ये सब एकतामे असम्भव है। ईश्वर इंडवरपर कैसे शासन करेगा ? ब्रह्म ब्रह्मको कैसे खायेगा ? गुरु ज्ञानी है तो शिप्य भी ज्ञानी क्यो नही ? “अद्गेत शिव” यह वचन अर्थंहीन है। उपपादक और उपपाद्य एक होनेपर गगनकुसुम भी सिद्ध होगा ३४-३६ अर्वाचोनपदेष्प्पेष. व्याक्नोशों ते. प्रतन्‍्वत्ते श्मशानोकास्तमस्व्पेषोध्युज्यों बाच्पोड्शुचिस्त्विति ३७ अर्वाचीनपद शिवके विपयमे तथा रुद्रके विषयमे भी भेदवादी प्रलाप करते रहते हैं। श्मशानवासी है, तमोग्रुणी है, अतएवं अशुचि, निन्‍्ध है, अपज्य है, शिवनाम भी ग्राह्म नही है इत्यादि ३७ अभव्यानां अभव्यानासिय वाणी रमणोयाउसता भवेत्‌ | भव्य भाविकालेडपि येपां संभाव्यते बंवचित्‌ ३८ ॥। ऐसी वाणी अभव्योकों ही रमणीय छगती है। जिनका भव्य मज्जूछ कभी भी सम्भावित नही वे अभव्य है ३८ ॥। एकत्अतिविधान तु॒यथास्थान विधास्यते अभव्यत्व यथा तेषा तदन तु निंदर्शते॥ ३९॥ इन पूर्वपक्षप्रलपोका ययास्थान समाधान होंगा। प्रथम उन अछा-

पियोकी अभव्यताका हम निदर्शन करा देते हैं ३९ !॥ दक्षो निनिन्‍न्द गिरिश पूपषा हर्पाज्ञहास च। विस्फार्याक्षि भगोहृष्पत्‌ श्मभूवाकम्प्याऊण्छु णोद भुगुः ४० था

डर श्री शिवमहिस्नः स्तोत्रम्‌ [ चतुर्थ:

सा चाइरमणी निन्‍दा रमणीयाध्सताममुत्‌ पूपादीनां.. ततस्तेषामभव्य.. समपद्यत ४१३

उदाहरणरूपमे दक्षने शद्भूरकी निन्‍दा को। पूषाकों आनन्द आया तो खूब हँसा आँख फाडकर भग खुशीसे देखने लगा। दाढी हिलाकर भूगुने उसका अनुमोदन किया। इस प्रकार अरमणीय निनन्‍्दा उन सवको स्मणीय ऊरूगी परिणाम अमझ्भूछ ही हुआ ४०-४१ भग्नदन्तो5्भवत्पुधा रुग्णनेतरोइमबज्धूग: भझुगुविलुस्धितब्मश्र्॒देक्षो बल्तसुखो$भवत्‌ ४२ परिणाम यह हुआ कि पूषाके दाँत टूठे भगकी आँखें फूटी भूगुकी डाढी नुच गयी दक्षका वकरेका मुख हो गया ४र फर्मानुरुपं हि फल पूषादीनाँ यथाप्मवत््‌ अभव्यानां त्थास्येपु फल॑ जन्मसु ताहशम्‌ ४३ ॥। कर्मानुरुप फछ जैसे पूपा आदिको मिला, वैसे यथोक्त अभव्योको भी जम्मान्तरमे कर्मानुरुप फल मिलता है ४२३ ॥॥ इ्मशानवासी त्युवत्या य्रेष्पुतमाह सुपावनभ् शयानों भृत्वा श्मशानेधु शयोरंस्तेप्म्यजन्मनि ४४ ॥॥ अस्पृश्य ये फ्लि5प्यान्ति शकर परदेवतम्‌ पुल्कसादिजनुलंब्ध्वा तेइस्पुश्या जन्मजन्मनि ४५ ॥। ग्रेष्प्राह्न शिवनामाहुः परतितास्सेड्यशन्‍्मनि मुणामग्राह्मनामानों मधन्ति जनधिपक्ृताः ४६ कर्मानुरुप फल इसप्रकार कि जो परमपविशत्न शिवकों इमझानवासती होनेके कारण अपविन्न वहनेयी धृप्टता करते हैं वे दूसरे जन्ममे कुत्ते बनकर श्मशानभूमिमे शयन करेंगे जो शकर यो अस्पृष्य कहते हैवे दूसरे जन्मोंमे चाण्डालादि बनकर अस्पृश्य बसे रहेंगे। शिवनाम नहीं हेना इसप्रगार योलनेवाले दूसरे जन्ममे ऐेरे पतित होगे कि उनवा नाम छेना पाप माना जायेगा, छोग उन्हें घिकयारेंगे ४४-४६ अभव्यानां यहा मय्पास्तेषमस्पा भुशं सलिनचितसः शणज़ोशों सुप्दा तेपांन मव्यपुपत्प सु ॥डछ ।ा जिसया भग्य सजछ भावीसे भी हो थे अभिव्य ऐसी व्यासरया सटाँतन मी | दूसरों थ्यारपा है, जो भव्य नहीं ये ही अभव्य हैं अर्वातत्‌

खीकः ] स्पन्दवातिकसहितम डरे

जो मलिनचित्त हैं उनको उक्त व्याक्नोशी सुखद होगी भद्र पुरुषोको वह सुखद नही होगी ४७

श्रीघरस्थामिनस्तस्मादन्यया व्याचचक्षिरे निन्‍्दाध्ययनभीरुत्वाहक्षप्रकरण . स्फूटमू ४८॥ अतएव श्रीधरस्वामीने निन्दाध्ययन अच्छा छगनेसे पूरे दक्ष- प्रकरणकी व्यारया ही वदरू दी ४८ ॥॥ जडधियः जडा विमृढा धीयेंषां ते स्यु्लंडघियों नराः। शिवतत्वानभिज्ञाना बिमुखा ज्ञानमूतितः ४९ ॥। जडधीका भर्थ है मूढबुद्धि अर्थात्‌ शिवतत्त्वको जाननेवाले | भगवान्‌ ज्ञानमूर्ति हैं-“विशुद्धज्ञाददेहाय” ऐसा झास्त्रने बताया है ज्ञानाधिष्ठाता हैं जो ज्ञानसे विमुख हो वह जड होगा ही ४९ जडधियः गद्वा जडेघु मोग्येपु यद्धीजेंडघियों हि ते घनदारादिविपयमोगमात्रपरायणा:_ (३५० अथवा जडधीमे सप्तमी वहुत्रीहि है। अर्थात्‌ जड-भोग्य पदा्थोमि ही जिनकी मति वनी हुई है। घन, दारादि विषयोके भोगमात्रमे जो छगे हुए हैं वे जडधी है ५० देतिनः सर्व एवेमे भवन्ति जडसेविनः! स्वोपास्यमदि ते हन्त जडमेवामिमन्धते ५१ पूरे द्तवादी जडसेवी होने से जडधी है ! उनको अपना उपास्य भी जड ही अभिमत है ५१॥ आत्ममिन्नमनात्मा स्थाद्‌ यदनात्मा जड़ हि ततू। जष्नानिज्नन्चा.. अपप्लछुपाएपएऐ.. झत्तिण्नफर (२ जो आत्मासे भिन्न हो वह अनात्मा ही होगा। जो अनात्मा होगा वह जड ही होगा | द्वैतवादी अपने उपास्य भगवानको आत्मभिन्न मानते हैं। अर्थात्‌ उसे अनात्मा, जड मानते हैं ५२ ॥। सन्रु चेतन एवं स्थादनात्मापि महेश्वरः। « वारमात्मेत्यतः सद्द्रि्ष्यते चित्कलेति चेतू ।! ५३॥॥

डड श्री शिवमहिम्न स्तोनम्‌ [ चतुर्थ

परमात्मा आत्मा होनेपर भी चेतन है। अतएवं चित्कला होनेसे परमात्मा कहा जाता है इस पूर्वपक्षका उत्तर है कि--

आत्मभिन्न क्यकार परमात्मा भवेत सखे। घृतमिन्न कथ तेल परम घृतमुच्यताम॥ ५४ अनक्ष परमाक्षश्न दघनश्ने न्‍्महाघन अनात्मा परमात्मा स्थादप्रमा चेन्महाप्रमा ५५॥॥ नेनहीन उत्तम नेववाला हो, निर्धन महासेठ हो, अन्धकार महाप्रकाश हो तो अतात्मा भी परमात्मा हो सकता है॥ ५४ ५५ ॥।

अस्तु वा चेतन श्रीशस्तत कि ते भविष्यति जडो या चेतनो वाषन्यो वेशेष्य तेन कि मबेत्‌ ५६

अन्यस्मा:झ्लोगलिप्सेव जडाहा चेततवाद्धि वा। तदा हानि्जेडत्वेष्पि भोगदस्वे मु का हरे ॥५७॥ स्वार्यंसिद्धधथमेवान्य प्रोणन्ति क्िल देहिन + जड़ादेव चेत्सिध्येत्‌ फि स्पाते चेतनाग्रहात्‌ ५८ भब्रत एव सास्याद्या नेशमिच्छन्ति चेतनम्‌ प्रकृत्या जडया सर्वभोगसपत्तिदशिन ५९

अच्छा, मान भी छो कि भगवान चेतत है। लेकिन उससे तुम्हे बया मिलेगा ? भगवान जड हो या चेतन उससे तुम्हारा मतछव क्‍या है ? अपनेसे अन्यके साथ प्रीति इसलिये होती है कि उससे भोगप्राप्ति होंगी यदि हरि भोगप्रद है ता वह जड ही क्‍या हो, नुकसान क्या ? अन्य पर प्रीति स्वार्थवे ल्गि ही होती है। यदि वह स्वार्थ जडसे सिद्ध होता है तो चेतनताके आग्रहका फोई अर्थ नहीं है। यही कारण है--सारय एवं मीमासवादि चेतन ईश्वरकों नहीं मानते क्‍्यावि ये देसते हैं फि जड प्रकृति या वर्मसे ही स्वार्थंसिद्धि हो सकती है ॥॥ ५६ ५९ ॥॥

अचेतनो हि. खत्टेत्वादितरंत्तु निष्फल अनादिफासससारतियमंदवियारणतत .६० अन्यया नास्तिकायां यध्तकोड्प्रे दर्शयिष्यते लोपदुष्टान्तमात्रश्य से ते$पि स्पाद्‌ दुदद्धर ६१॥ अत्त एयेप्सिताशेषदाता थे जड़ इत्यपि। सर. पराइतोपनादिनिपमालम्यिमिदुघे ६२॥।

झोक ] स्पन्दवातिक्सहितम्‌ ड५्‌

'सास्यादिमत अयुक्त है, क्योकि अचेतन जगत्‌ कर्ता नहीं हो सकता, इत्यादि तर्क निष्फल हैं। जीवशत फर्मसचिव प्रकृति ही जगत्‌ बनाती है। ऐसा अनादि नियम माननेसे कोई दोष नहीं आता कुम्भकरादि दृष्टान्त बलसे यदि आप चेतनको स्रप्टा मनवाना चाहते हैं तो उसी दृष्टान्तसे मरण- धर्मा नाना सामग्रीसहित फलावाडक्षी कर्ता है यह भी सिद्ध होगा। तब *क्मीह किकाय " इत्यादि अग्निम नास्तिकतर्क दुरुद्धर होगा। अतएव जो छोग यह बहते हैं वि जड प्रकृति या कर्म हमारे अभीष्सित समस्त फलोको कैसे दे सबता है इस तर्व॑को भी सास्यादिने निय्घार घोषित किया अमृक कमे या उपासनासे अमुक फल इत्यादि सभी वेद्ोक्त नियम अनादिकालसिद्ध है। उसमे चेतनको जोडना व्यर्थ है। जोडते हैं तो फिर वही 'किमीह किवाय आदि पक्ष भी खडे होंगे ६०-६१

नन्‍्वोशभवत्या परया सोक्ष समवत्तीतति चेत्त्‌ प्रदृत्या सोडपि लम्येत मोक्षश्वेदीश्वरेण फिम्‌ ६३ ।॥।

यदि कहो कि परा भगवद्धक्तिसे ही मोक्ष हो सकता है, अत ईश्वर मान्य है। तो साख्यका यही उत्तर है कि प्रद्गति ही मीक्ष भी देती है तो ईइ्वरसे क्या लेना देता ? ६३

अन्यस्मिल्तात्मनि परा भक्तिरित्यप्यसाप्रतम्‌। क्रमचिदपि छ्न्य परप्रेमास्पद भवेत्‌ ६४४ मोक्ष वाज्छन्‌ मयबत. स्वार्थमेवाभिलष्पसि मोक्षप्रिय. कथ त्व हि भगवत्प्रिय उच्चसे॥ ६५॥ फलप्रेम्णा भरवेत्प्रेम गोण वृशक्षलतादिपु।॥ मोक्षप्रेम्णा तथा प्रेम यौण ते स्यात्परात्मनि ॥॥ ६६ ॥)

अपनेसे भिन आत्मामे परा भक्ति हो यह भी अस्तगत बात है। क्योकि अपनेसे भिन्न परमप्रेमास्पद होता ही नहीं है। भगवानसे मीक्ष चाहनेवाले तुम आखिर अपना स्वार्थ ही तो चाह रहे हो तुम परमा-

त्माका मीक्ष चाह रहे हो कि अपना ? जब तुम मोक्षश्रे मी हो तो भगवत्येमी क्यो कहलात्ते हो ? वृक्ष छता बादिपर गौण ही प्रेम होता है मुख्य प्रेम तो फलपुष्पादि पर है। वैसे तुम्हारा मोक्षप्रेम तो मुस्यप्रेम हो जायेगा भर अगवर्पेम गौण होगा। भक्ति परमप्रेमको कहते है। पराभक्तिकी वात ही क्या ? ६४-६६ ॥॥

अक्तिरेव फल भक्तेर्न छु मोक्षादिक सम

भकक्‍त्या सजातया भवत्येत्यादिभागवत्तान्नतु ६७ ॥॥

ड६ श्री शिवमहिम्त स्तोनम्‌ [ चतुर्थ

सत्य तदा महेशोष्सो जडो वा चेतनोज्य चा। भदेत्‌ कि तेन भक्तिहि तस्व ते खल्व्रपेक्षिता ई६८ स्वागत प्रेम. विष्यजड्चेतनतावशात्‌ ने जाउय नापि चेतन्य लभते तदयोगत ६९ ॥।

पूर्वेपक्ष --भक्तिका फल मोक्ष नही, भक्ति ही है। “भकत्या सजातया अक्त्या” ऐसा भागवतमे भी बताया है। उत्तर--तुम्हे भक्तिसे मतलब है तो ईश्वर जड हो या चेतन उसस्ते क्या होगा ? भक्तिका विषय जड हो या चेतन इससे भक्ति जड या चेतन नही बनती | क्योकि प्रेम स्वगत होता है यह जैसा है वैसा ही रहेगा ६७-६९ ॥॥ देवदतो महानक्तस्तस्मिन्‌ भक्तिहि विद्यते तत कृतार्थता ते कस्मादिति निगद्यताम।॥ ७० भक्त सति स्वसम्वस्धे कस्योत्कर्पो निगद्यताम्‌ नोत्कर्ष सभवेद भयते स्वस्थेव परिशिष्यते ७१ तमुत्यर्थमभोप्ससत्व कथ भो भगवत्मिय ! कभथ भक्तिपियों बापि स्थार्थमात्रपरायण ७२।॥॥ स्थार्थों बिद्यते कश्चित्‌ प्रस्तर कि सेव्यतामू। तस्माहिडस्थनामात पराभक्तिह. भेदिनाम्‌ ७३ ।॥ यदि बदाचित्‌ भक्त ओर भगवानकी एकता माने या परमेशवरकी ह्वादिनी शक्तिको भक्ति मानें तो भी प्रश्व यह उठेगा कि देवदत्त एक महा- भअक्त है उसमे भक्ति है, उगसे तुम्हारी कृतार्यता क्यों नहीं होती है ? अत अक्तिवा अपने साथ सम्बन्ध अभीष्ट है। किन्तु चैसा सम्बन्ध होनेपर किसका उत्त्वर्प मानते हो? भक्ति स्वय उत्डृष्ट है। उसका तुम्हारे सम्बन्धसे बया उत्बर्प होनेवाला है? अत अपना ही उत्वर्ष अन्तत मातना होगा अपना ही कुछ उत्कर्प होता है। तब तुम वही अपना उत्वर्ष चाह रहे हो, भगवान को या मक्तिकों चाहनेकी वात कहाँ रह गयी /?ै तुम मंगवात्विय या भक्तिप्रिय किस शभ्रकार ? यदि कहते हो कि कोई भी चाह मुक्लमे नही है, भक्तिवी भी चाह नही है भक्ति करनी है इसलिये कर रहा हूँ, तो कोई भी इच्छा ने रहो तो भगवानवी ही भक्ति चरनेका आग्रह क्यो ? पत्यरवी भक्ति वयो कर लें ? जब कि लेना-देना विसीसे मुछ है नहीं ७०-७३॥॥ ननुघुतिवशादोशं चेतन सन्‍्महे घयम्‌। सत्पें सस्‍्यमतोत्येश्प॑ तस्य कस्सास्त सत्यसे ।॥ ७४ के

ड्तीकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ४७

तां श्रुति स्व निरतितु' कुतक कुषपे यदि। . - तच्चेतन्यं निरसितु' फुतस्तकों दश्यंताम्‌ ७५ नेवाधंजरतोय॑ हि थुक्तमाधयितु बुघः ततो निरोश्यरः सांस्पवादों विशयमाप्तुबात्‌ ७६॥ पूर्वपक्ष *- हम परमात्माको चेतन तो जगत्कर्ता होनेसे मानते है और जीवाभिन्न होनेसे | श्रुति वतला रही है वह चेतन है “तदैक्षत” “ईक्षतेनझिब्द” इत्यादि श्रुति न्याय प्रसिद्ध हैं। उत्तर--बात यथार्य है। तत्व ॒श्रुतिप्रामाण्यवादी तुम “तत््वमसि” आदि श्रुतिसे बताया हुआ जीवपरैवय क्यों नही मानते हो ? उस श्रुतिका निराकरण करनेके लिये तुम यदि कुतर्क करनेका अधिकार रखते हो तो, ईश्वरचैंतन्यका निराश करनेवाऊा सास्यतके भी वयों मही सामने छाया जा सकता है ? चुद्धिमान्‌ अधेजरतीय न्याय नहीं अपनाते फठत. निरीश्वर सॉख्यवादकी ही विजय होगी ७४-७६ आन्मनः सलु कामाय सर्वमेव प्रियं भवेत्‌। ने. पुत्रजायादेवादिकामायेत्यब्रवीच्छू तिः 8 ७७॥ तस्मास्मुस्यं परं प्रेम भवेद्‌ नूर्न निजात्मनि३ स्थादत्मपरमात्मंक्ये परमात्मन्यपि स्वयम्‌ ७८३) आत्माके लिये ही सभी प्रिय होता है, पुत्र जायाद्यर्थ पुत्रादि प्रिय नही, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवा ब्रह्मा विष्णु आदि प्रिय नही इत्यादि रीति श्रुतिमे स्पष्ट ही देवादिविषयक सुख्यप्रेम का निराश किया है। अत* मुख्य प्रम॒ तो अपने आत्मामे ही होता है यह निश्चय है, और आत्मा तथा परमात्माकी एकता होनेपर स्वयमेव वह प्रेम परमात्मविषयक ही हो जाता है ७७-७८ सातो.. भवत्यथंसप्पात्मपरसात्मा सिदेष्यते झ्रात्मभिन्‍्त ततः सर्व जडमित्येव निश्चयः १! ७९ 0 तस्मित्‌ भोग्पे जडे येषां घोस्ते जड़धियों जना: + व्याक्रोशों से विदयते त्वयि मात्मधिय्र: बबचित्‌ ॥। ८० ॥॥ अत. भक्‍त्यर्थ भी आत्मा और परमात्माका भेद माना नही जाता जिस परमात्माकी जडतापत्तिभयसे आत्मभिन्नको भी आप आत्मा एवं चेतन मानने जा रहे थे वह जब आत्मस्वरूप ही सिद्ध हुआ तो आत्मभिन्न सभी जड है यही सिद्ध होता है। उस भोग्य जडमे जिनकी मति छगी है वे

ड्ट श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रम्‌ [ चतुर्थ:

ही जडघी कहलाते हैं वे भगवदैश्वर्यविषयमें प्रछाप करते हैं आत्मघी कभी नही करते ७९-८० ननु भोग्ये जड़े बुद्धि: सर्वेधामेद जायते। तददाने महेशे घाइसनसे पततां कुतः॥ ८१॥ विरक्त: शंकरो सूतिमुषः कि मे प्रदास्यति। संद प्रतिधिधि बक्ष्ये तदाह ण्रदेति हि ॥८२॥ शंका :--भोग्य जड़पदार्थोम वुद्धि किसकी नही होती ! कोई एकाघ संत तपस्वी वैसा निकले तो अलग वात है, वाकी सभो भोगवरतु चाहते हैं उसे देनेघाले शक रम वाणी और मन कंसे लगेंगे ? विभरत रमानेवाले विरक्त शकर हमें वया देंगे? समाधान--ऐसी शका मत करो आगे “सुरास्ता तामद्धि” इत्यादिमि समाधान मिलेगा। इस आशयसे यहाँ पर “बरद” यह सम्बोधन है ८१-८२ यहा जड़घियो नाम छड़चिस्तनतत्परा:। सुप्तास्ते परमेशाने तेत निन्दन्त्यसद्धियः॥ ८३ ॥॥ अथवा जडचिन्तनपरायण ही जडधी हैं वे परमेश्वरके वारेमें सोये हुए हैं। अत. असद्वुद्धि होनेसे व्याक्रोशी करते है ॥॥ ८३ ॥| सर्ववेदेकबै्याय जगत्सर्गादिकारिणे। अनस्तैश्वर्यपर्णापः शिवाय पअ्रभचे नमम्वा ८४॥ समस्त वेदोमे एकमात्र वेद्य, जगतुकी सृष्टि आदि के कर्ता, अनन्त हेश्वसेपूर्ण परमशिव प्रभुको प्रणाम है ८४ नम शिवाय शान्ताय सर्देशक्तियुजे मम.। नमो ग़ुणविभवताय रुद्राथ नमो नमः॥ ८५॥ सर्ववेदवेद्य शान्त शिवको प्रणाम है। सर्गादिहेतु सर्वशक्तिप्तम्पप्तको प्रणाम है। सत्त्वादिगुणविभक्त सदाश्िवको प्रणाम है। अन्तमे रुद्रस्प- स्थित शकरफो प्रणाम है ८५॥ इति थी काशिकानन्दयोगिनः कृतिनः कृतौ। महिस्नस्तोश्रवियृत्ी चतुर्यस्पन्दर्सप्रहूए

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3# पश्चम:ः इलोकः

ध्याक्रोशी दैँतिना मूले सामान्योवत्येव दशधिता हिं तस्या विशेषेण निरूपणमपेश्ितम्‌ १३ उररीकुवंते वेदप्रामाष्य ये मनीपिणः। आत्मबुद्धिवेदेदा.. कदाचित्पारमायिकी ॥। श्रतो निरसनीया* स्थुविशेषेरञात नास्तिका:।) ब्याक्तोश्यतो विशेषेण तेयामन निरस्थते॥ यूलमें ढ्ैतवादियोका प्रछ्ाप सामान्य कथन से ही बता दिया वेद प्रामाण्य माननेवालोकी बुद्धि कभी जरूर सुधरेगी। अत उसका विश्येप मिरूपण अनपेक्षित है। विश्षेषरूपसे तो नास्तिकोका प्रहाप ही निरस्त करना चाहिए अत उसीका यहाँ निरुपण किया जा रहा है। किमीहः किकाय: खलु क्षिमुपायस्निभुवर्न किमाघारो घाता सृजति किमुपादान इति च। अतवर्यद्रवर्यं त्वव्यनवसरदु.स्थो हतथियः छुतकोड्य फा््चिन्सुखरयनि मोहाय जगतः ४५ चह आपका विधाता तरिभुवनकी सृष्टि करता है तो उसकी बसी बेष्ठा है ? कौनसा शरीर है ? क्या उसके पास साधन है ? आधार क्या है। उसके पास उपादान कारण क्या है ? इत्यादि कुतर्क तकंबे अविपय, ऐश्वर्यसे सम्पन्न आपमे अवसर पानेसे स्थितिरहित होनेपर भी ठुछ मूढमति हतबुद्धियोकी छोकमोहार्थ मुखरित कर ही छेता है॥ किमीहः ईहा चेप्टा हि का तस्य नुचनसर्ट्रीशितु"। सेप्टानिष्टप्रा प्तिपरि हारव्यापार ईरिता॥ ।।

ब्यापके क्रिया काचिदिप्टानिप्टे तु दभरतः। प्रयोजनमनुहिश्ध सर्दोषि प्रवर्तते ५७

] श्री शिवमहिम्नः स्वोनम्‌ [ पच्चमः

आप आल्तिकके मतमें भुवतवा ख्रष्ठा ईश्वर है। परन्चु परमेश्वरमें कैसी चेष्टा है यह बताइये चेष्टा कहते हैं इप्टप्राप्ति एवं अनिष्टपरि- हारार्थ क्रियाको व्यापक तत्त्वमे कोई क्रिया संभव नहीं। तब इष्ट एवं अनिष्ठके प्राप्तिपरिहारप्रयोजक विशेष क्विया कैसे हो ? और इष्ट-अनिष्ट भी परमात्मामे क्‍या हो सकता हैं ? तव इष्ट्प्राप्ति एवं अनिष्टपरिहारख्पी प्रयोजन कया होगा ? बिना प्रयोजन अतिमन्द भी किसी कार्यमे प्रवृत्त नही होता। आपका सर्ववेत्ता ईश्वर तब विना प्रयोजन कंसे प्रवृत्त होगा ४-५ किकायः क. कायस्तस्थय भवति नाकायः ऋप्टुमहेति। यूहांदि सतनुः कुर्यान्‍्त विध्ाचोइकलेबरः )। | पिशाच दिनाशयतीत्येव चेन्मत्यतामपि सुजेदेव तद्ृद्वि सुजेदोश्वरोड्तनुः उस ईइवरका द्वरीर क्या है ? विना शरीर कोई सृष्टि नही करता सदश्वरीर मनुष्यादि गृहादि निर्माण करते हूँ। अशरीर पिज्ाचादि नहीं। यदि कहो कि पविशाच कुछ नाश, कुछ नुकसान कर सकता हैं। तो भले मानो, पर सृष्टि तो नहीं ही करेगा वैसे अद्यरीर ईद्वर भी सृष्टि नही कर सकता ६-७ ॥॥ फिसुपाय: अस्त्वीश्वरो5स्तु कायोइस्प किन्तूपापोधत्य को सवेत्‌ छुरीवेभादिविरहे कुविस्ः कि. फरिष्यति ८॥॥ सुध्ठेः प्राक साधनानि फय पच सृष्टि: साधनेविनाओ अ्न्योस्पाधयदुप्टत्वादीशात सूध्ठेरसंमयः ॥) ॥7 अच्छा सान लो ईव्चर है और उतस्का थटीर भी है। किन्तु उसके पास सृप्टरभर्य उपकरण बया है ? तुरी-वेमा इत्यादि हो तो जुछझाहा क्या कर सकता है कोइ हो तो सोर्देगे कैसे ? सृष्ठि करो थो साधम पैदा होगा और साधन पहले हो तो सृष्टि वी जा सकेगी, इसप्रकार अन्योन्याश्वय होनेसे ईदवरसे सृष्टि मानना दक्य नही है ८-९ ॥। फिमाधार: कुसातों चुतले स्थित्वा ढुर्पाच्चफ्राथये घटम्‌ किमाघार: सुजत्येष भुव्ने परमेश्वर: १०॥

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झ्ोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌

पुर्वंमाधारसृूष्टि: स्थात्ततों भुवना आ्राधारसुष्टेराधारपूर्वत्वे... चानवस्थिति, कुम्हार भूतछ पर स्थित होकर चक्रादि आश्रयमें घट बनाता है। परमेश्वर का ऐसा कौनसा आधार है जिसपर स्थित होकर वह भुवन निर्माण करे ? पहले आधारकी सृष्टि मानी जाय तो उसकी सृष्टिके लिये अन्य आधार चाहिये ऐसे फिर अनवस्था होगी १०-११॥ किसुपादान:ः उपादान॑ वद तथा जगस्निर्माणकारणम्‌। नेष्टिकाचूणंतोयादिविरहे गृहनिमिति: १२ इसी प्रकार जगत्‌-निर्माणका कारणरूप उपादान भी बताना चाहिये। ईट, चूना, पानी आदि हो तो मकान कैसे बन सकता है ? १२ कुतकों वाचालयेत्‌ कुतकोडयं मूढान्‌ पण्डितमानितः प्राप्नुवन्ति ततो मोहमज्ञाः साघारणा जना: १३॥ ऐसा ऐसा कृतर्क अपनेकों पण्डित माननेवाल्ले मृढ़ जनोको वाचाल बना देता है। परिणाम यही होता है कि साधारण अज्ञजन भ्रममे पड़ जाते हैं १३ तर्कानू नेव निषिष्यामः कुतर्का स्तु प्रधन्महे पुक्ितः श्रुत्यनुफूला चेत्तबर्यंत्ां मा कुतवर्घताम्‌ १४ हम तर्कका निपेध नही करते, केवल कुतक निराकरण करते है। श्रुत्यनुकूल हो तो तक कीजिये, कुतर्क मत कीजिये १४ अतकव्येश्वर्य तर्क: प्रत्तरेग्यन्न कुतकंस्यथ तु का कथा। अतकर्षेश्वर्पमीशानमामनन्ति. शुतेधिर: १५ नपा तर्केण हि मतिरापनेयेति गीः श्रुत्ेः सूत्रकृच्चागदीत्तकाीप्रतिप्ठानादितीश्वर: १६ ॥॥ जहाँ तकंका भी अवकाश नही वहाँ कुतकंकी तोथात ही क्या ? श्रुति भगवानके ऐश्वर्यको तकाध्योचर कहती है। “यह मति तकेसे प्राप्त नही होती, और त्कंसे नप्ठ मत करो” ऐसी श्रुति है। सूत्रकार भगवान चेदव्यासने भी तर्कंकी अप्रतिष्ठा ही बतायी है। १५-१६

प्र श्री शिवमहिम्न स्तोत्रम्‌ [ पच्चस

कुतकेंप्रतिषेघाय. तथाषि.._ मतिवध्धेनान्‌ श्रुतिसंवादिनस्तकान्‌ दर्शयामोब्य काश्चन १७॥। फिर भी हम कुतके निराकरणार्थ बुद्धिवर्धक श्रुतिसमत कुछ तकोको यहा दिखाते हैं १७ किसुपादान:

उपादान किमित्ति तु भवता तस्य पृच्छचते। तन ब्रूम: स्वयं तावदुपादन महेश्वर १८॥ कतु: पृथक तत्स्थात्‌ स्बनेति सु साप्रतम्‌। वियमस्थापवादोडपि प्राय सर्वत हीदयते॥ १९ सथोर्णनामि सूजते गृह्लीयाच्चेति वेदगीः। अपवाद स्वयथ तस्य दर्शयामास विस्फूटम्‌॥ २० आपका प्रश्न है कि जभन्निर्माणमे उपादान क्या है ? उत्तर है-- स्वय परमेश्वर उपादान है कतसिे उपादान अलग होना चाहिये ऐसा सर्वत्र नियम नही है उसका अपवाद मकडीमें स्वय श्रुतिने ही दिखाया है मकड़ी अपनेसे स्वयमेव जाल बनाती भी है, खा जाती भी है १८-२० फर्तात्मा ननु लूताया उपादान तू तत्तनु सत्य कुविन्ददेहू कि पटोपादानमीक्षित ११२१ चेम्तियमभड्ध स्तु जात एवं सशयः। भग्मे नियमे त्फेः छुतकें: स्पात्तदाशितः २२ ॥। पुर्वेपक्ष *--मक्डीवी आत्मा कर्ता है और शरीर उपादान है, दोनों अलग हैं। उत्तर --ठोव है, इसी प्रकार जुलाहाकी आत्मा कर्ता और उसवा शरीर कपडढेंका उपादान ऐसा देखा गया है क्या ? यदि नही, तो नियमभग हो ही गया नियमभग हुआ तो उस नियमपर आश्रित तब॑ भी फुतव बन जायेगा २०-२२ कि घोर्णनाभे. फि तन्‍वा मृतया तन्तुवायकः तन्तु' शपनोति निर्मातु हेतुर्जीबत्तनुस्ततः॥ २३ दूसरों घात .--भरी मकद़ीके' दरीरसे कोई बारीगर तन्तु बना सबता है फया ? यहना पथ्टेगा वि' जीवित शरीर ही तन्तूपादान है। तय पर्ता और उपादानयों पृषर्‌ बसे वरोगे ?ै॥ २३ देहप्रधाना लूता चेसन्तृपादाममिष्यते चित्पपावा तथा लूता निमित्त सन्तुजन्मनित्त र४ीता

श्लीक: ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ हि

मायाप्रधान ईशोउस्तु तथोपादानमस्य हि। चित्मघानो निमित्तं ततः का हानिरुच्यताम्‌ २५ यदि कहे कि देहप्रधान मकड़ी जालका उपादान है और चँतन्य- प्रधान मकडी कर्ता है तो वैसे ही मायाश्रघधान ईश्वर जगतुका उपादान और चैतन्यप्रधान ईश्वर कर्ता है, ऐसा हम भी कहे तो उसमें क्या दोप है ? २४-२५ आरोहन्‌ पतितस्तन्तुमत्ति स्ंढकों यथा तथा. प्रलयकाले$त्ति जगदेतन्महेशवरः॥ २६ गिरनेपर चढ़ती हुईं मकडी धागेको खा जाती है। वेसे प्रढयकालमें परमेद्वर स्वसृप्ट जगतुको ग्रस छेता है ॥॥ २६ ॥॥ यस्य ब्रह्म तथा क्षन्रमुम भवत ओदनः। मृत्युधंस्थोपसेकश्चेत्पेवमाहू श्रुति: स्वयम्‌ २७॥ “जिसका ब्राह्मण और क्षत्रिय अर्थात्‌ तदुपलक्षित जगत्‌ भात जैसा है, मृत्यु चटनी समान है” ऐसी श्रुति है २७ किमाघार:

किमाघार इति प्रोक्‍त उत्स्गश्चाप्यपोच्यते नहिं सत्र साधारनियमों विद्यते यतः॥ २८ भे आपने किमाघार. ऐसा जो उत्सर्ग दिखाया उसका भी अपवाद है क्योकि सर्वत्र आधारका नियम नहीं है २८ विष्दरों हि. तवाधारों विप्टरस्थ गृह तथा। गृंहाघारों मही तस्या आधारस्तु फ्श्चन॥ २९॥ आप ( देवदत्तादि ) का आसन आधार है आसनका गृह आधार है। गृहका पृथिवी आधार है। किन्तु पृथिवीका आधार कोई नहीं। अतः यहीपर आधारनियमका भछ् हो गया २९॥ ननु व्योम भवेन्मह्या आधार इति चेनन ततू व्योम्न आधारता नोरीफ़ियते ताकिफर्षतः 4) ३० नमभस्युत्पतितं चल्तु_ निराधारमितीर्यते 4 निराधाराश्चर्द्रवारा वब्योम्नीत्येघ॑ प्रतीतितः ३१ यदि कहो कि पृथिवीका आधार आकाश है तो ठीक नहीं | वयोकि आकाशकी नैयायिकादि आधार नही मानते आकाशर्मे फेंकी गयी वस्तु कुछ देर निराधार रहती है, आकायमे चन्द्र, तारा आदि निराघार सड़े हैं इत्यादि व्यवहार देखनेमे आता है ३०-३१॥॥

पड श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रम्‌ [ पद्॑चमः

दिगम्बर इति हथुवितनिर्म्वरपर यथा। गगनाधार. इत्युवितनिराधारपरा तथा॥ शे२॥

जैसे दिगम्बरका अर्थ ही निरम्बर होता है वैसे गगनाधार कहनेका अर्थ ही निराधार होता है ३२ व्योमाधारा यथा पृथ्वी वृक्षादीन्‌ तमुते निजे व्योमाधार करथ्य नव कुविन्द. कुरतां पटमु॥ ३३॥ यदि व्योम भी आधार है तो व्योमाधार प्रथिवी जैसे अपनेमे वृक्षा- दिको उत्पन्न करती है वैसे व्योमाघार जुलाह्ाया भी वस्नादि क्यो नही बनाता ? ३३

अस्तु खं वसुधाधारः पस्याधारस्तु को वद। अनाधारं यदि नमो नियमो भज्यते तदा॥ रे४॥ अच्छा पृथिवीका आधार आकाश मान भी लछो आकादका आधार क्या है ? यदि गगन निराधार है तो आपका नियम टूट गया शे४ नन्‍्वाधारों नभसो व्यापरस्पेति चेचवा। व्यपकस्य. भहेशस्थ कंपाधारगवेषणा ३५ ॥॥

पूर्वपक्ष.-- भाकाद व्यापक है उसवंग आधार नही होता। सू््तका ही आधार होता है। उत्तर--तव आप व्यापक परमात्माका आधार क्यो ढूँइने लगे ? ३५ प्रतिष्ठितः कस्मिन्‌ हि स्वे महिम्तीति हाम्रवीत्‌ यदि वा महिम्नीति संप्रबोधयति श्रुत्ति ३६॥। वह भूसा परमेश्वर किसमे प्रतिष्ठित है ? कहा -अपनी महिमामे + अथवा अपनी महिमामे भी नही स्वय भ्रतिष्ठित है। इस प्रकार श्रुति भी समझाती है ३६ ॥। अत्युत ब्ूमहे व्योम्तोप्याधार मगवत्पदम्‌ सुने चाद्षरमाधारमम्बरान्तधृतेजंगो ।। ३७ ॥) प्रत्युत आकाश्का भी आधार हम परमात्माको मानते हैं। “कस्मि- जझ्ावाश ओतश्र पोतइच” इस प्रश्नके उत्तरमे अक्षर परमात्माको ही आधारखूपेण श्रुतिने बताया “अक्षरमम्वरान्तघृते.” इस प्रवार सूत्र में भो उसका निर्णय किया गया ३७ ॥॥ चेतनस्येंष हेतुत्वे. साधारत्व॑ नियम्पते महधादेज॑नफत्वे तु नियमो नेति घेन्‍न तत्‌ रेट

ख्ोक | स्पन्दवातिकसहितम्‌ प्पु

सदेहस्येवहेतुत्वे साधारत्व नियम्यताम्‌॥ सकोचाधिकृतिस्ते चेदस्ति, सा नास्ति मे नु किमू ३९॥ कर्तुराधारनियमों हेतुमानस्थ नेति चेतु। सदेहकतुंराधारनियमों. दृश्यते.. भुवि॥ ४० पूर्व॑पक्ष चेतन यदि हेतु हो तो उसके लिये आधारनियम है। पृथिवी आदि अचेतन जहा हेतु है वहा उक्तनियम नही है। उत्तर -- सदेह चेतनके हेतुत्वमे आधारनियम है ऐसा क्यो नही कहते ? नियमसकोच में आपको ही अधिकार है हमे नही है यह कैसी वात ? पूर्वेपक्ष --कतावा आधारनियम है। हेतुमानका नही उत्तर --सदेह कर्ताका आघारनियम देखा गया है | अत दृष्टानुरोधेन नियम बनाइए ईइवर सदेह क्ता नहीं अत वहाँ आधारबी जरूरत नही ३८-४० किमुपायः उपायनियमोडप्येव हि सा्वेत्रिको भवेत्‌ ! तस्याषि बहुधा लोकेप्वपवादो बिलोक्यले ४१॥॥ किमुपाय --यह्‌ उपायनियम भी सा्वंत्रिक नहीं है। उसका भी अपवाद देखनेमे आता है ४१ ॥। केचित्तु रोटफान्‌ कुयु बेंलनोपायसय्ुता अन्ये._ तसनपेदयेव हस्तमानेण कुर्दते॥ ४२ च॑ तनाप्युवायो$स्ति हस्ताविति तु साप्रतम्‌ बेलने सत्यपि स्तस्तावन्योपायस्त्वपोद्यते ४३ ॥॥ कुछ लोग बेलन उपाय रखकर रोटी बनाते हैं दूसरे छोग वेलनकी अपेक्षा रखे बिना हाथसे ही बना लेते हैं। कहो कि वहां भी हाथ उपाय तो है तो क्या बेलन रहनेपर हाथ नही रहता ? अन्य उपायका अपवाद हम बता रहे हैं ॥॥ ४२-४३ सामथ्यंविरहेष्पेश्षा साधनानामिति स्थिति सेलासहापो चुपति पर विजफ्त्तेदेदल ४४९ चतुर्देशसहल्लाणि राक्षतान हि खरादिकान्‌ प्रजंपीदेकलो राम सामर्थ्य तम्न कारणम्‌ ४५॥ सामथ्यं हो तो साघनोवी आवश्यक्ता होती है। निर्बेल राजा सेनाकी सहायतासे झत्रुओपर विजय पाता है। अकेले रामने चौदह हजार खरादि राक्षसोक्रो मारा ती वहाँ सामर्थ्य ही वारण था ४४-४५

$

५६ श्री शिवमहिम्नः स्तोश्रम्‌ [ पश्चमः

यन्व्रादिना सहायेन भार उत्थाप्यते महानू।

हस्तो बिनैव गन्‍्त्रादि महामारं सघुद्धरेत्‌ ४६॥॥

उपनेध्सहायत्वमसमर्थस्य चक्ष॒पि]

कि ज्वलज्ज्योतिषोरदणोरुपनेत्र फरिष्यति॥ ४७

यन्त्रादि सहायतासे छोग भारी बोझ उठाते हैं, बिना यन्त्रादि ही

हाथी उसे उठा छेता है। चश्मेकी सहायता कमजोर आसवालोको चाहिये तेज हो तो चइ्मेफा क्या काम ? ४६ ४७

परास्प शकब्ताविविधेत्येतच्छौत॑ थतिजेंगो

नत्तस्य कार्य फररामित्यप्याहापर बचः॥ ४८

“प्रास्य शक्तिविविधेव श्रूयते” इस प्रकार परमेश्वरकी अनन्तझक्ति को श्रौतत्वेन श्रुति कहती है। “उसका कार्य और करण नही" इत्यादि वचनोमे करणादि निरपेक्षता वतायी है ॥॥ ४८ ॥॥

किकायः किफाय इति चायुक्तः तडित्सु व्यमिचारतः। प्रकाशपेहो जयेच्च_ शीतयेच्चातमुस्तडित्‌ ४९ ॥॥ घातुतन्तुः शरोर घेन्च चेप्टादेरसावत- | चेध्टेन्द्रियार्थाश्रय॑ हि देहूं नेगामिका जगुः ५०॥॥

“के काय यह शभाक्षेप भी अयुक्त है। विजलीका कोई शरीर नही है। फिर भी बल्वसे प्रकाशन, पश्चेसे वायुचालन, फ्रीज आदिसे शीतन करती है। यह कहे कि बिजलीका तार आदि उसका शरीर है तो ठीक नही कारण“चेप्टेन्द्रियार्याश्षण शरीर” ऐसा न्‍्यायसूजमे कहा है--जिसमे चेष्ठा हो, इन्द्रिय हो और सुखादि हो वही शरीर है ४९-५०

देहो नास्तोश्वरस्येति फरत्वा चावश्चयत सले अदेह: शक्तिदेहश्व पर्चवक्‍त्रोडपि चेश्वरः॥ ५१॥

ईश्वरका देह नही है ऐसा दिमायमे ुसाकर किसमे तुमकों ठगा ?

शिवका ३“कार शरीर है, शक्ति शरीर है और पच्रवकक्‍त्र भिनेत शरीर प्रसिद्ध

ही है ५१ ॥॥ किसीहः एतेनघ निरस्त स्पात्‌ किमोह इति चोदितम्‌। सति देहे हि फापत्तिरीहातत्त्वे महेशितु३॥ १२॥ शरीर मान लिया अत एवं “किमीह इस भ्रदनका भी अवकाश नही रहा प्‌२॥

खोक, | स्पन्दवातिकसहितम्‌ घ्छ

किच संकल्पमात्रेण स्वेच्छामात्रेण शंकर:। सृजत्यवति हन्तोदमुत्सग5्नाप्यपोद्यते ५३ ॥॥ दूसरी वात--भगवानको चेप्टाकी आवश्यकता है और शरीर की ही। सकल्पमानसे इच्छामातसे परमेश्वर सृप्टिस्थितिसहार करता है। शरीर चेप्टादियुक्त ही कार्य करता है इस उत्सगेंका यहाँ भी अपवाद है॥ प३॥ मायावी वस्तु निर्माति स्वेच्छया संहरत्यपि। योगी च॒ स्वेच्छुया निर्मात्युपसंहरतेडषपि च॥ ५४॥ इस उत्सर्गापवादका लौकिक उदाहरण भी है। मायावी स्वेच्छासे निर्माण एव सहार करता है। योगी स्वेच्छामातसे निर्माण और उपसहार करता है, चेष्ठाकी कोई जरूरत नही है ५४ ससाारनियमः सर्व सापत्रादों विलोकित सतप्तारनियमे बन्घधुनोश मा साहस कुरु॥ ५५॥ ससारके सभी नियम सापवाद देखनेमे ये हैं। अत ससारनियममे परमेश्वरको वाँधनेका साहस मत करो ५५ ॥॥ नन्‍्घेव॑ सर्वनियमापोदर्न विदघासि चेंदू। शुन्यादेव जगत्कस्मान्नोत्पद्येत निगद्यताम्‌ ५६॥। चासत- समुत्प्ते स्यादसत्त्वानुवर्ततम्‌ क्षोरोत्पन्ने बव॒ वा दध्नि क्षोरस्प्रास्त्यनुवर्ततम्‌ ५७ चासतः समुत्पत्तिः सतो नैदावलोकिता॥ क्षीरध्वसात्‌.समुत्पत्तियंतो दध्न्यवलोकिता ५८ वा दधि क्षौरककणादुत्पद्येतेति साप्रतम्‌॥ क्षीराष््यले.. क्षीरकरणाद्ध्युत्पत्तिप्रसदड्भरत ५९ ॥॥ केवलान्महिं विध्वताद दुष्टोत्पत्ति. सतो यदि केवलाच्च सतो दुष्टा क्वोत्पत्तिरिति भण्यतामु॥ ६० ॥। असत्‌ सर्वत्र सुलभ सर्व सवंत्र चेदु भवेत्‌ सच्च स्वत भेवत. सर्व सर्वत्र नो कुत तर ६६॥ बौद्ध पुर्वपक्ष “सर्व नियमोका अपवाद आपने माना तो शुल्यसे जगवूको उत्पत्ति माननेमे क्या दोप ? यह फ्हो कि असतृसे घटादि उत्पन्न हो तो असत्‌की अनुवृत्ति होगी। तब घट है ऐसा होकर घट नहीं है ऐसी अ्तीति होगी, सो वात गलत है। दूधसे दही उत्पन्न हुआ तो वहाँ दधवी अनुवृत्ति वहाँ होती है ? असत्‌से सत्॒वी उत्पत्ति कही देखी नही यह कहना

पट श्री शिवमहिम्तः स्तोश्रम [ पच्चमः

भी अनुचित है। फ्योकि क्षीरष्यंससे दहीकी उतत्ति प्रत्यक्ष है। क्षीरध्वंस अभाव ही तो है। इसपर सद्वादी कहेंगे कि दीरध्यससे दहीकी उत्पत्ति नही, किन्तु क्षीरके कणोंसे दहीकी उत्पत्ति है। परन्तु उन्होंने यह सोचा नही कि क्षीरनाश होनेपर भी क्षीस्कण है तब क्षीरनाश हुए बिना ही दधि क्यों उत्पन्न नही होता ? अतः क्षीरध्यस दधिवारण है। सद्दादियोका रामबाण यही माना जाता है कि केवल क्षीरनाशसे दही उत्पन्न नही होगा, क्षीरकण भी चाहिये किन्तु अद्वैतवादियोंसे पूछेंगें-केवल सतूसे बस्तुकी उत्पत्ति भी यहाँ होती है, बताओ साधानन्तर तो चाहिये ही। अन्तिम बच्ध यही है कि असतृसे सत्‌ पैदा हो तो असत्‌ सर्वत्र है अत. आकाझमें भी बुसुम पैदा होगा। परन्तु सर्वजंगतकारण आपका ब्रह्म भी तो सर्वत्र है। उससे आकाह- मे पुष्प उत्पन्न क्यो नही होता 7 ५६-६१

अज ब्रुमः पुमर्थत्वं शुन्पस्प फ्यंचन।

परिपुणणपरानन्दो. पत्सवें: पुम्मिरथ्यते ६२॥

तर्केण सदसद्वंति निश्चेतु चेन्‍न शक्‍पते।

पुमर्यत्थ॑ भवेत्तम नियासकमिति स्थिति: ६३३

असन्‍्नेव भवत्ति भत्तद्‌ ब्रह्म ति बेद चेत्‌।

अत्ति ब्रह्मेत्ि चेद्‌ बेद सन्तमेव ततो विद्ुः ६४

कारण सत्‌ है या असत्‌, सर्वान्त्यमे सत्‌ रहेगा या असत्‌ रहेगा इस-

पर तकेसे कोई निर्णय होता हो तो वहाँ पुरुषार्थता ही निर्णायिका होगी शुन्य पुरुषार्थ नही होता परिपूर्ण परमानन्द ही सर्वेपुरुषेच्छाविपय है। ब्रह्मको असत्‌ माननेवाल्य असत्‌ भर्थात्‌ पुरुपार्थरहित हो जाता हैं; सत्‌ माननेवाला सन्त अर्थात्‌ पुरुपार्थयुक्त होता है॥ ६२-६४

नन्वनिर्णात्तत्वेष्‌ु पुर्पेच्छा निरइकुशा।

फर्थ निर्णाधिका बस्तुविकल्पापादिकेति चेतु ६५ ॥॥

झा वाज्य हृकमापि स्पएरलाप्टरे विमज्जला: ?

मज्जत्पेव तृणघालम्बी जलसंतरणाक्षमः ६६ ॥।

पूर्वपक्ष-सत्‌ अरशात॒का निर्णय होसेपर पुरुषेच्छा ( युरुवार्थता )

नियामिका कैसे होगी ? क्योकि पुरुषेच्छा मिरकुश होती है। चन्द्र-आनयन जैसे असभव अ्थेकी भी इच्छा हुआ करती है। एझुपेच्छामुसार वस्तु सिद्ध हो तो वस्तुविकल्प होने छगेंगा। यदि कहें--“डूबतेका तिनका भी सहारा” होगा तो वह ठीक नहीं। तृणका सहारा लेने वाला तेरना जानता हो तो डूब ही जायेगा ६५-६६

खझ्लोकः स्पन्दवातिकसहितम्‌ प्र

तन्नानभिभवे चुद्धे: सर्वे सत्पक्षपातिताम्‌। उपयन्त्यन्यया लोका जोचेयुः किबला इह ६७ उत्तर :--करणविश्येपसे अभिभूत हो तो बुद्धि सत्यपक्षपाती होती है। इस बातको सभी मानते हैं। बुद्धि पर विश्वास हो तो जीना भी संभव नहीं होगा जीनेका आधार ही बुद्धि है ॥। ६७ अशवक्यस्थितिके चात्र सत्त्वासत्वविनिश्नये अभिभावकराहित्यात्‌ सत्ये घीः प्रसरेत्स्वयम्‌ ६८ ॥। सत्व या अरुत्त्वका तकंसे निर्णय असंभव हुआ अभिभूत करनेर वाला रहा नहीं अब जो वुद्धिका प्रसार होगा वह सत्यमे ही होगा ॥६८॥ परिपूर्णपरानन्दाकाड्क्षा स्वाभाविकी धियः। तत्तादुक्तत्त्वसिद्धि नाध्पोदूं विधिरवि क्षमः ६९ और परिपूर्णपरानन्दाभिरापा बुद्धिकी स्वाभाविक गति है। अतः ऐसे तत्त्वकी सिद्धिको ब्रह्मा भी निवारण नही कर सकते ६९ झनादृत्य श्रुति मोरयाद्‌ बुद्धि चेसे तमस्विनः ्पेदिरे निरात्मत्वमनुमानेकचक्षुपः ७० इन नास्तिकोंने मूर्खताके कारण श्रुतिका अनादर तो किया ही, बुद्धिका भी अनादर किया। केवल तर्कंपर ये निरात्मवादी बन गये ॥७०॥ अचिन्त्यानन्तशक्तित्वात्‌ कय मेष्स्त्यव्यस्थिति:। त्वया शकक्‍्त्यम्युपगमात्‌ु पवासह्वातवितिप्ठते ७१॥ जो पहले दोष कहा कि 'सत्‌” रूपी कारण सर्वत्र है, सभी कार्य सर्वत्र होगा, वह ठीक नही ! अचिन्त्य शक्ति भी हम मानते हैं अत: अव्यवस्था नही है नास्तिक शक्तिसत्ता मानते हैं तो असद्भाद नहीं रहेगा ७१॥ शक्तिशक्तिमतोनेव प्रथगस्तित्वमिष्यते लोके चैनतच्छवत्योजोबितं गण्यते पृथरू ॥! ७२ ॥। शक्ति और शक्तिमानकी पृथक सत्ता नही, अतः द्वंतापत्ति भी नही लोफमें भी चैक और उसकी शक्ति ऐसे दो नही प्रिते जाते | छर अतक्येदवर्ये तत्त्वं ततु कीदृगिति चेत्‌ शुति ग्रुब्मुयाच्छुणु हिं तर्पोण विज्ञातुं यतस्वाध्तफंगोचरम्‌ ७३१४ पृच्छामि _ त्योपनिषदर्ित्याह पुरुष खुत्तिः॥ अतवर्षेश्वयंसुपेश्त: कुतर्क मा छुया यूया॥ उड़ |

च्ध्० श्री शिवमहिम्न: स्तोन्रसू [ पश्चमः

अचिन्त्पा: खलु ये भावा तांस्तकेण योजयेत्‌ यदि वा योजपेस्ताह तक श्ुतिमर्त नय॥ ७५॥ यत्नेनानुमितोध्प्यथे: कुशलंरनुमातृतिः अभिपुक्ततरैरन्ये रन्पर्यवातुमीयते ॥9७६ 0 ततोष्नवसरत्वेन. दुःस्थस्तकों.. महेश्वरे कुतकंस्त्याज्य एवातो भा सम भुद्धतधोर्नरः॥ ७७३ स्वयं झूठा हतधियों मोहयन्त्यपरानपि। परात्मघातिनस्तेडतिपापिनः. स्वात्मघातिनः ७८

वह सत््‌ तत्त्व कसा है यह जानना हो तो गुरुमुखसे श्रुति सुनो, स्तकसे जाननेका यत्न करो। वह पुरुष ओपनिपद है ऐसी श्रुति है। अचिन्त्य भावोंपर तर्कको जोडना नही, जोडना ही हो तो श्रुतिमत तक जोड़ो क्योंकि तकंका प्रतितर्क भी अवश्य होगा अतः परमेश्वरमे अवकाश होनेसे जो कुतर्क टिक ही नही सकता उसे त्यागना ही उचित है। थे कुरतर्की स्वय मूढ होकर आत्मघात करते ही है, दूसरोको मोहमे डालकर. परात्मघाती भी होते हैं, फलतः केवल पापजीबन होते है) ७३-७८

अतवर्येश्वरयंमतुल॑ सन्त चानन्तशक्तिकम्‌ पुमांससोपतिपद शिव बन्दे. परात्यरम्‌ ७९ जिसका ऐश्चयें तकेका अधिपय है। क्योकि वह अतुरू-उपमान दृष्टान्तरहित है ! तथापि सद्गूप है, अनन्त झक्तिसपच्च है, उस उपपितमात्र येद्य परात्पर पुरुष शिवकी हम बन्दना करते हैं ७९ ॥॥ इति श्रीकाशिकानन्दयोगिनः: कृतिनः छृतो। महिस्नःस्तोन्नविदृतो पश्चमस्पन्दसं प्रह:

१८४] पष्ठ: इलोक: ईहाथवास्तराक्षेपान्मुलाक्षेपो विवक्षितः। नास्तीशो यदि वास्त्येय ईहादिः इतीयते॥ १॥ हर पूर्वेदलोकमें किमीह: इत्यादिसे ईहा आदि जो अवान्तर तत्त्वका जआाक्षेप है उससे मूल ईश्वरका ही आह्षोप विवक्षित है पुर्वपक्षीका आशय है-ईइ्वर नही है, यदि है तो उसकी क्‍या ईहा, क्या चेप्टा क्या शरीर इत्यादि कहो १॥ तन चाबान्तराक्षेप: सुसमाधानव इत्यत'। मुलाक्षेप॑ निराचष्टे. सत्त्केणाधुना स्फुटम॥ .._ अवान्तराक्षेपोका समाधान सरल है ( हम दिखा भी चुके हैं ) अतः कुतकंबिपरीत सत्तकंसे मूलाक्षोपनिराकरण अब करते है अपि चास्तिकमेव स्व॑ मन्यमाना ग्रपीतरे। यदन्यथान्यया. प्रोचस्तानप्युद्धते मुत्ति हे ओर भी बात है। जो अपनेको आस्तिक कहछाते हैं वे भी ईश्वरके वारेमे तरह-तरहकी वातें करते हैं। जैसे हमने चतुर्थ इलोककी व्यास्यामे दरसाया। कुछ बाते मीमासकादिकी विलक्षण हैं। उन सबका महपि कात्यायन उद्धार करने जा रहे है अजन्मानों छोका: किमवयववन्तो5पि जगता- मधिष्ठातारं कि भवविधिरनाहत्य. भवति। अनोशो था कुर्याद श्रुवतजनने कः परिकरो यतो मनन्‍्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इसमे ६॥ क्या सावयव छोक भी अजन्‍्मा हो सकते हैं ? जगत्‌की उत्पत्तिका सिलसिला अधिप्ठाताकी अपेक्षा किये बिना ही क्या चल सकता है ? इस भुवनमण्डलक़े उत्पादनमे ईश्वरसे अतिरिक्त भी कोई तैयार हो सकता है क्या ? जिन बातोको लेकर हे देवदेव ! आपके विषयम ये मन्दबुद्धि तरह-तरहके सशय करते रहते हैं

चर श्री शिवमहिम्नः स्तोन्रमु [ पष्ठः

अजन्मानों

हस्तायास्तन्ववयवाः.. स्कन्धशापादयस्तरोः

गिरिसिन्ध्वादयः पृथ्वया घटादोमां सृदादयः॥ ॥।

अणवो. हृश्यकार्याणां._ तत्संयोगात्तदुः्भूवः

अध्राप्तयोस्तु या प्राप्ति: संयोग' तु कीतिनः॥

उत्पत्तिधष्वंसशालित्व संयोगादेरवेक्ष्यते

जानादित्वमतस्तेपा शबक्ययुद्परेक्षितु बरुघेः ॥(

संयोगे सत्ति जन्मपां फार्याणां सान्‍यया तथा।3

अजन्मानः कर्य तस्माल्लोका; सावयवा इमे

हाथ पाव आदि दरीरके अवयव हैं, डाली पत्ते आदि वृक्षके

अवयव हैं, वैसे गिरिसागरादि पृथिवीके अवयव हैँ, घटादिके मृदादि अवयव हैं। व्यणुकपर्यन्त सभी दृश्यकार्योकें अणु अवयद है इन अवयवोके सयोगरो इन कार्योकी उत्पत्ति होती है। सयोग भी उत्पन्न होता है। पूर्चमे जो अप्राप्त रहकर बादगे प्राप्त होते हैं उनकी वह प्राप्ति ही सयोग है। और सयोगादिकी उत्पत्ति और विनाश प्रत्यक्ष है। अतएवं ये सयोगादि अनादि हैं ऐसी शका नही की जा सकती इन अवयवोका संयोग होनेपर ही इन शरीर, वक्ष, पृथिवी आदिका अस्तित्व होता है। तव सावयव ये लोक बजन्मा कैसे हो सकते हैं ४-७ ॥॥

नमु वृक्षे स्थिते तस्मित्‌ शाल्यपत्रादयों नवाः।

उत्पयन्ते कर्य तलेंहि जरन्तुत्पद्यता तरः॥ ८॥

जाते मर्त्य ततस्तत्य क्रेशश्मश्ुस्तवादयः

जायन्ते तु तैर्जातर्जापते पुनरेव सवा ९॥

व्यज्यन्ते यदि केशाय मोत्यद्न्त इसतोर्पते

ब्यज्यन्ता निव्यलोकानां फुतो नावयवा अमी १०॥

वुक्ष तैयार हुआ उसके बाद भी शाखा, पन आदि नये पैदा होते हैं।

उन शाख्तायत्रादिसे थोड ही पूर्वभव वृक्ष उत्पन्न हुआ ? मनुष्य पैदा हो गया उसके बाद भी वेश, डाढी, स्तन भादि पैदा होते हैं। तो क्या इनके उत्पन्न होनेपर अवयवोंसे दुबारा वही मनुष्य उत्पन्न होता है ? यदि कहो बि डालो, पत्ता, डाढी, स्तन आदि बादमे केवक प्रकट होते हैं तो वैसे ही

लोकोके भी अवयव बादमे प्रकट हो उन अवयबोंसे छोकोको उत्पत्ति चक्‍्यो मानता ? ८-१०

छ्लोक ] स्पन्दवार्तिकस हितम्‌ द्रे

सत्यं, न्‍्यायमते कार्य सर्वनोत्पयते नवस। सर्व॑ सांख्यमते कार्य व्यज्यते हि घढाद्यपि॥ ११॥ घटादेव्येज्जक: कि वा जन्मदाता यथानयम्‌ अपेक्षित... कुलालादिस्तावन्मातमिहेक््यताम्‌ १२ उक्त पूर्वेपक्षपर हमारा कहना यह है कि न्‍्यायमत और साख्यमत दो पृथक हैं न्‍्यायमतमे नवीन शाखापनादिसे वृक्षादि भी नवीन उत्पन्न माना ही गया है और साख्यमतमे सभी कार्य कारणमे अभिव्यक्त होते है। घटादि भी मृत्तिकामे अभिव्यक्त होता है। चाहे उत्पत्ति मानछो चाहे अभिव्यक्ति, घटस्थलमे तदर्थ कुछालादि अपेक्षित है ही ( इसी प्रकार छोकोके जन्म या अभिव्यक्तिमे कर्ताकी अपेक्षा है ही ) इतना ही यहाँ विवक्षित है ११-१२॥ तथा जगज्जन्म कथम्रधिष्ठातारमन्तरा अप्राप्तप्रापकेणात्र भाव्यं फेनापि तद्ठविदा॥ १३॥ सावयव लोक सजन्मा सिद्ध हुए। वह जग्रज्जन्म अधिप्ठाता अर्थात्‌ कर्ताके बिना कैसे हो ? अप्राप्त अवयवोका प्रापक जोडनेवाछा उसका ज्ञाता जरूर कोई होना चाहिये १३ अवन्ते बालके भोक्तुमशक्ते मोदकादिकस्‌ फो5तनोज्जननीस्तन्यमनत्युप्णमशीतलम्‌ १४॥ तद्विदा ऐसा पूर्वइछोकमे कहा | ज्ञाता भी सामान्य ज्ञाता नही किन्तु औचित्यज्ञाता शिश्रु दन्तरहित है लड्डू आदि नहीं चबा सकता। उसे दूध ही उपयुक्त है इस बातको समझकर माताके स्तनोमे मुँह जले भी नही, ठढीसे पेटमे वायु भरे भी नही वेसा अधिक गरम अधिक ठण्डा दूध बनाकर भरनेवाला वह कौन है १४ ॥॥ भुम्या नेव बोजे रज्भो नेव दलादिपु॥ रख्धकारोध्म्यगात्को5्यं प्रसुन येन रसझिजितम्‌ १५॥॥ मिट्टी सामान्य है, बीजमे भी कोई रग नहीं। झाल्ापत्रादिमे भी खास कुछ नही तव इन प्रुष्पोपर रग चढानेवाला यह रगरेज कौन है बताओ १५॥ हिमदेशेडतिशेत्येन मा प्रियेरन्तिमे त्विति॥ केन वा घमंरोमाणि कृतानि पशुपक्षिणाम्‌ १६॥ हिमालयमे जाकर देखो वहाँके पशुपक्षियोके गरम ऊन जैसे रोम होते है इसलिये कि ये ठप्ढीमे मरें | यह कृपालु कर्त्ता कौन ? १६ ।।

डद श्री शिवमहिसम्नः स्तोत्रम्‌ [ पष्ठ:

भीमांसक, सांख्य एवं वैष्णवादिका यहाँ क्रमेण विचार है। प्रथम पादमें मीमांसक, द्वितीय पादमें सांड्य तथा तृतीय पादमें वेष्णवादिकी यहां आलोचना है २८-२९ ॥। अजच्सानो प्रलथ॑ नेवमन्‍्यन्ते जरन्मीसांसकाः किल। अनादिप़िद्धाः पृथ्व्यादाः क॒तु ; कि स्था्रयोजनस्‌ ३० ' वृक्षादयोध्ष्यक्षोत्पत्तिका इति सांप्रतस्‌। तत्र बीज तन्न वुक्षः प्रवाहानादिता यत्ः॥ ३१॥

अनादिनियमादेव बीजवृक्षपरम्परा

संपच्यते ततो नेवाश्पेक्षितो$स्ति वियासकः हेरे

पित्ता लत्पितुरुत्पन्न स्वपितुः सोइपि जायते

ब्राह्मणक्षत्रिपादीनां. तथाधनादि। परम्परा देरे

ईश्वराज्जायभानत्वे जातिवियमो भवेत्‌

बीजादुत्पत्तितिषमभड़ी नेब च॑. युज्यते रे४॥

प्रथम जीर्ण मीमासकोका मत सुनिये। वे प्रढटय नही मानते

उनके मतमे पृथिवी जलादि सभी अनादिकालसिद्ध हैं। अतः इन सबको बनानेवाके ईश्वर को मानमेका क्‍या प्रयोजन यद्यपि वृक्षकतादि उतन्न होते हैं यह प्रत्यक्ष है। किन्तु वी जसे वृक्ष होगा। वह्‌ बीज वक्षसे। इस प्रकार चीजवृक्षप्रवाह अनादि है अनादि नियम है कि अमुक घीजसे अमुक वृक्ष इत्यादि अनादि होनेसे ही नियम वतानेवालेकी आवश्यकता नही है। पिता उसके पितासे, चह पित्तामह अपने पितासे उत्पन्न हुआ अत्तएवं ब्राह्मण क्षत्रियादि जातिभेदपर॒म्परा रही | यदि ईदबरसे सब पैदा हुए तो कौन ब्राह्मण कौत क्षत्रिय ? इसका नियामक कौन होगा? प्रथम जन्म ईश्वर्से, वादमे थीजसे यह बीजोत्सत्तिनियमका भग है। वह उचित नहीं है २०-३४ ॥।

मुखतो जायमतानत्य ब्राह्मणरत्व॑ धदोष्पते

बाह्वादेः क्षत्रियादित्य नाधवत्ये तद्िलोब्यते ॥३५॥॥

तस्मादिप्रसुतों विप्रः क्षत्रिय: क्षत्रियोज्दूब:।

मानसाथुदख्रयोक्तेश्न प्रशात््पर्या तवा क्षुति: ३६॥

यजेत विप्र. इत्पादिरप्रमाणं. शुतिभयेत्‌

ज्ञातिमड़.. भलयतः प्रसयस्‍्तेव. नेष्पते॥ ३७ ॥ा

झोक. ] स्पन्दवाततिकसहितम्‌ ६७

यह नियम कहे कि ब्रह्माके मुखसे जो पैदा हुआ वह ब्राह्मण, वाहु आदिसे क्षत्रियादि ती ठीक नही क्योकि आजकल ब्रह्मके मुखसे कोई पैदा नही होता। अत. ब्राह्मणपुन ब्राह्मण, क्षत्रियपुत्र क्षत्रिय, यही नियम मान्य होगा ! दूसरी बात-पुराणादिमे वशिष्ठादिको मानसपुत्र माना ब्रह्माका शरीर द्विधा हो गया तो मनु और शतरूपा हो गये उनकी बाहयणता क्षत्रियतता असिद्ध हुईं। उस गोत्मे या परम्परामे जो जनमे वे किस जातिके होगे ? अत मुखसे सृष्टि आदि कथन श्रशसार्थ है। यदि ब्राह्मणादि जातिभेद नही मानेंगे तो “ब्राह्मणो यजेत” इत्यादि श्रुति अप्रमाण होगी। प्रलय हो तो जातिभग होगा अत प्रछुयको ही अमान्य करना उचित है ३५-३७ नम्वीश्वरात्समुत्पत्तावषि फर्मवशादिह जातिभेदों भवेन्मत्यंपशुपक्ष्यादिभिदवत्‌ ३८ तदसत्तदर्सिद्धत्याद्‌ भज्भश्चेन्रियमस्थ सु। प्रलयस्येव. भज्जोश्स्तु योड्न्तगंडुस्पेयते ॥॥ ३९ यदि ईश्वरवादी यह कहे कि ईश्वरसे भछे सभी पैदा हो किन्तु पूर्व- कल्पीय कर्मवद्ञात्‌ कोई ब्राह्मण, कोई क्षत्रियादि होगा। जैसे ईश्वरसे पैदा होने पर भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जाति कर्मबशात्‌ हुई। तो यह कथन असगत है। कैवलछ कर्मसे जातिभेद असिद्ध है। जन्मभेदसे ही जाति- भेद होता है | जन्मभेदसे जातिभेद इस प्रत्यक्षनियमको तोडनेकी अपेक्षा इस अप्रत्यक्ष निरर्थंक प्रछयका ही भग क्यो नही करते ३८-३९ ॥॥ ननु॒वेदेपु निर्दिष्ट देवा हरिहरादयः। सत्यं त्तददेवतात्वेव त्वोशत्वेन चोदिताः॥ ४० ॥। द्रब्यत्यागसमुद्देश्य उहिश्य यदि देवताः। यागादि क्रियते चेंतू तत्कर्म स्थात्‌ फलदातु वः ॥॥ ४१॥॥ पूर्वपक्ष :--वेदोमे शिव, विष्णु आदि सबका निर्देश आया है। “'विष्णवे शिपिविष्टिय द्वादशकपाल निर्वपति” इत्यादि वाक्य अर्थवाद नही है। उत्तर --ठीक है, किन्तु शिव, विष्यु आदिको देवताके रूपमें बताया है। ईश्वरके रूपमे नहीं जिसको उद्देश्यकर द्वव्यत्याग (होम) क्या जाता है चह देवता है। उसके उद्देश्यसे यागादि करेंगे तो वर्म सफल होगा इसमे जगत्सृष्टिकर्ताके रूपमे ईश्वरप्रतिपादन कहा है ? ॥४०-४१॥ अन्नोच्यतते सावयवा: सजन्मानों सक्‍न्त्यमुम्‌॥ नियस॑ हसि नियमपक्षपाती कर्म स्वयम्‌ ४२॥।

ध्ड श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रम्‌ [ पष्ठः

अधिष्ठातारं०

रलोमेहीं सा राव सो5पि सत्यं बम्भ्रम्यते परि। ऋणाणवो धनाणुंथ्र को नव यन्‍्त्रचालकः १७१ चन्द्रमा पृथ्वीकी चारों ओर प्रमण कर रहा है। पृथ्वी सूर्यकी चारों ओर भ्रमण कर रही है| भय सत्यलीककी परिक्रमा कर रहा है। ऋणाणु घनाणु की परिक्रमा कर रहे हैं। आखिर इस प्रकार यन्त्र चलानेवाला यह कौन है ? १७॥ चुभुक्षोरन्ननिर्माता पिपासोर्ज लबर्षणः दिनाप्नक्तं दिनमिति को व्यवस्थापको न्‍्वयमु॥ १८ पे भूखेके लिये अन्ननिर्माण गौर प्यासे के लिये जल वर्षण करने- वाला कौन ? दिनके बाद रात फिर दित ऐसी व्यवस्था करनेवाला कौन है ? १८ भुक्तमन्न रस रक्तमिति रीत्या तत्रु नयन्‌। फ्रोष्य॑ वेज्ञानिकः फीक्षातन्तरादीत्‌ रचयन्‌ प्रभु:॥ १९ खाये अन्नको रसरक्तादि क्रमसे शरीर पर्यन्त वनानेवाला यह कौच है? कौन यह वैज्ञानिक है जिसने पेटमे जन्‍्त्रादि निर्माणकर भन्नकों अहंं बना डाछा 2 १९ कि यात्र ब्लुमोक्तेन जगदेतव्चराचरम्‌। प्रत्यण्वत्यद्भृतं तद्दि सुविज्ञेन बिता कूयम्‌ २० ॥४ सुध्ययध्थितसचारं नियमावद्धवियपहम्‌ $ अनम्तमद्भुत विश्वमधिप्ठाधा बिना कथम्‌॥ २१ ॥॥ हम अधिक क्या कहे यह चराचर जगतमें अणु-अणुम आदचर्य ही आशइचर्य है। यह किसी सुविज्ञके बिना कैसे पैदा द्वो ? व्यवस्यित वार्योत्यत्ति एवं सहार चल रहा है। सभी अपने-अपने नियमोर्में आवद्ध हैं। ऐसे अनन्त असस्य अद्भुत विदय अधिष्टाताके बिना कैसे हो ?॥ २०-२१ ॥॥ जनोझशो बा० पर्तारोइमदायाः स्पुरसमर्या अतीय ये। जपत्फतू त्या शवयाः फेम परत्पयितु हिं ले॥रर॥ा कया ऐसे जयतपग निर्माता हमारे तुम्हारे जैसा गगोई होगा जो अत्यन्त असमर्थ है? एक सामान्य धरभी अकेले बनाना जिसके छिये संभव नी उम्र जगत्कर्ता के रुप में कौन सोच सवता है॥ २२

झलक: ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ द््ष्‌

नैक्षलानां प्रयत्नोइस्ति मित्तिताना हस्यते। तस्मादपर एवासो सर्वेज्षः सर्वशक्तिमान्‌ २३॥ हम छोगोमे अकेले जगतुको वनानेका प्रयत्न कोई कर नहीं सकता सब मिलकर बनावें यह तो देखनेमे नहीं आता आगे-पीछे जनममे-मरने वाले मिलकर कँसे बनायेगे? अतः दूसरा ही कोई संबंज्ञ सर्वशक्तिमाव्‌ जगत्कर्ता है।) २३ ॥॥ भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति भास्करः। भयादिद्धश्व॒ वायुश्र मृत्युधावति पच्चम:॥ २४॥। उसी सर्वज्ञ परमात्माके नियस्नणसे जंग्तूका नियमित सचार हो रहा है। उसीके मियन्त्रणसे अग्नि तप रही है, सूर्य प्रकाशित हो रहा है, इन्द्र ( मेघ ) तथा वायु स्वकार्य कर रहे हैं | पाचवी यह मृत्यु यथासमय उपस्थित होती है ॥। २४ | अमरवर

न॑ तस्प मरणं येन जन्मदोउन्यिप्यतां परः। अमराणां यरो नपेक्षिकी हामरता यतः 8 २५॥॥ उस परमात्माका भी जन्मदाता कोई है बया ? न्रही। क्योकि बह मरता नही, अमर है। आपेक्षिक कल्पपर्यन्त स्थायित्वरूप अमरता भी वही, किन्तु नित्य शण्त अमरता है अतएब अमखर है २५ मन्दास्त्वां० मनन्‍्दा;. सुमन्दसतथों मन्दमाग्या उपद॒ता:। संशेरते णगद्धेतो शिवे हि. पनोन्मुसाः॥ २६॥ मन्द अर्थात्‌ जो मन्दमति यो मन्दभाग्य हो अथवा मादा-ससार- रोगरुण हो वे ही जगतृकर्ता परमेश्वर शिवके विषयमे समय करते हैं जिनका पत्तत निकट है २६ व्याय्यात एवं चामान्यविधया श्लोक एथ तु। विशेषेण वर्य फचिद्‌ विचार यर्तबामहै # २७ हमने यह इठोककी सामान्य व्यास्या की अब ुछ विशेष विचार प्रस्तुत करते हैं २७ ॥ा मीमांतकाध्य साँस्पाश्व _ वेष्णयादय एयच क्रमेणाप विचार्पन्ते जिविधा भेदर्यशमः॥ २८ मौमासद एतु.. प्रयमे द्वितीये. सांदयवादिन:। बंष्पयाद्यास्तृुतीये पादेश्य सुविचारिता:॥ २९॥

६६ श्री शिवमहिम्न, स्तोमम्‌ [ पष्ठ'

मीमासक, साख््य एवं वैष्णवादिका यहाँ क्रमेण विचार है। प्रथम पादमे भोीमासक, द्वितीय परादमे साख्य तथा तृतीय पादमे वेष्णवादिकी यहां आलोचना है २८-२९

अजन्मानो० प्रलय नेव सन्यन्ते जरन्मोमासकाः किल। बनादिसिद्धाः पृथ्व्याद्याः फतु: कि स्यात्ययोननम्‌ ३० च॒ वृक्षादयोष्ष्यक्षोर्पत्तिका इति साप्रतम्‌। तन बोज तत्र चृक्षः प्रवाहमनादिता यत ३१३

अनादिनियमादेव बोजबुक्षपरम्परा सपद्यते ततो नेबाष्पेक्षितो४त्ति मिश्शमकर र२

पिता तत्पितुरुत्पन्नस्वपितु. सौडपि जायते

ब्राह्मणक्षत्नियादीना तयाइनादि. परस्परा ३३

ईश्वराज्जायमानत्वे जातिनियमो भबेतू।

बीजादुत्पत्तिनियममभड़ोी नेच च॑. युज्यतते॥ रेड

प्रथम जीर्ण मीमासकोका मत सुनिये। वे प्रलय नही मानते

उनके सतमे पृथिवी जलादि सभी अनादिकालुसिद्ध हैं। जत इन सबको बनानेवाले ईश्वर को माननेका कया प्रयोजन ? यद्यपि वृक्षझतादि उत्पन्न होते हैं यह प्रत्यक्ष है। किन्तु वोजसे वृक्ष होगा। वह बीज वृक्षसे। इस प्रकार बीजवृक्षप्रवाह अनादि है जनादि नियम है कि जमुक वीजसे अमुक वृक्ष इत्यादि अनादि होनेसे ही नियम बनानेवाडेकी आवश्यकता नही है पिता उसके पितासे, वह पितामह्‌ अपने पितासे उत्पन्न हुआ अतएव ब्राह्मण क्षत्रियादि जातिभेदपरम्परा रही यदि ईश्वरसे सब पैदा हुए तो कौन ब्राह्मण कौन क्लेत्रिय / इसका नियामक कौन होगा? प्रथम जन्म ईंडइवरसे, बादमे वीजसे यह वीजोतल्पत्तिनियमका भंग है। वह उचित नहीं है ३०-३४

मुखतो जायमानस्य ब्वाह्मणत्व॑ यदीष्यते

बाह्वदे.. क्षत्रियादित्त नाचत्वे तद्चिलोवयत ३५१

तस्माद्िप्रसुतों विप्रः क्षत्रियः क्षत्रियोड्भवः

मानसाद्ुद्धवोक्तेश्वप्रशस्त्यर्या तथा खुतिः रे६॥॥

यजेत विप्र. इत्पादिरप्रमाण श्ुतिभदेतु॥

जातिमड्रे भलपतः भप्रलयस्तेन नेष्पते॥ ३७

झ्लीक ] स्पन्दवातिकस हितग््‌ ६७

यह नियम कहे कि ब्रह्माके मुखसे जो पैदा हुआ वह ब्राह्मण, बाहु आदिसे क्षतियादि तो ठीक नहीं क्योकि आजकल ब्रह्मैके मुखसे कोई चंदा नही होता। अत ब्वाह्मणपुत्र ब्राह्मण, क्षत्रियपुतर क्षत्रिय, यही तियम मान्य होगा दूसरी बात-पुराणादिमे वशिष्ठादिको मानसपुत्र मामा ब्रह्माका शरीर द्विधा हो गया तो मनु और शतरूपा हो गये। उनकी बाह्मणता क्षत्रियता असिद्ध हुई। उस सोतमे या परम्परामे जो जनमे थे किस जातिके होंगे ? अत मुखसे सृष्टि आदि कथन प्रशसार्थ है। यदि ब्राह्मणादि जातिभेद नही मानेंगे तो “ब्राह्मणो यजेत” इत्यादि श्रुति अप्रमाण होगी प्रछय हो तो जातिभग होगा अत प्रछूयको ही अमान्य क्रना उचित है ३५-३७ नन्वीश्वरात्समुत्पत्तावषि कर्मवशादिह जातिमेदो भवेन्मत्येपशुपक्ष्याद्भिदवत्‌ ३८ तदसत्तदर्सिदत्वाद भज्जइचेन्रियमस्थ तु। प्रलयस्येव. भज्जगोह्स्तु. योअ्न्तर्मडुरुपेयते ३९ यदि ईश्वरवादी यह कहे कि ईशवरसे भले सभी पैदा हो किन्तु पूर्व- कल्पीय कर्मवश्ञात्‌ कोई ब्राह्मण, कोई क्षत्रियादि होगा। जैसे ईश्वरसे पैदा होने पर भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जाति कर्मवशात्‌ हुई। तो यह कथन असग्रत है। केवछ कर्मसे जातिभेद असिद्ध है। जन्मभेदसे ही जाति- भेद होता है | जन्मभेदसे जातिभेद इस प्रत्यक्षनियमको त्तोडनेकी अपेक्षा इस अप्रत्यक्ष निरर्थक प्रढयका ही भग क्यों नही करते ३८-३९ नमुचघेदेपु निर्दिष्ट देवा हरिहरादयः। सत्य तद्देवतात्वेत त्वीशत्वेब चोदिताः ४० ॥॥ द्रव्यत्यागसमुद्देश्या उद्दिश्य यदि देवता यागावि क्रियते चेत्‌ तत्कर्म स्थात्‌ फलदातु घः ४१ पूर्वपक्ष --वेदोमे शिव, विष्णु आदि सबका निर्देश आया है। “विष्णवे शिपिविष्टिय द्वादशकपाल निर्वेप्ति” इत्यादि वावय अर्थवाद नहीं है उत्तर --ठीक है, किन्तु शिव, विष्णु आदिकों देवताके रूपमें बताया है। ईश्वरके रूपमे नहीं जिसको उद्देश्यकर द्रव्यत्याग (होम) किया जाता है वह देवता है। उसके उद्देश्यसे याग्रादि करेंगे तो कर्म सफर होगा इसमे जगत्मृप्टिकतकि रूपमे ईश्वरप्रतिपादन वहा है ? ॥४०-४१॥॥ अन्नोच्यते सावयवा सजन्मानों मवन्त्यमुम्‌। नियम हमसि नियमपक्षपाती फय स्वयम्‌ ४२ ॥।

६८ श्री शिवमहिम्भः स्तोचम्‌ [ पष्ठः

मीमांसकोंके प्रति उत्तर यह है कि आप इतने भारी नियमपक्षाती हैं ती सावयव सजन्मा होता है इस नियमको क्‍यों तोड़ने लगे ? ४२ मियस॑ सापवाद चेत्त्वमप्यस्युपगच्छसि प्रलयं॑ शसत्रसंप्रोष्त त्यपतुमुत्सहसे कुतः ४३ बाह्मणाद ब्राह्मणोत्पत्तिः छुत एवं नियम्पताम बोजादेव त्रूत्पत्तिः कुत्तोड्य॑ वियमो5पि ते ॥॥ ४४ प्रथमा सृष्टिरीशात स्पात्‌ सृष्टात्सृष्ठिस्ततःपरम्‌ चजातोयात्‌ सजातोया द्वितीयादी निषम्यते ४५ दधि स्याइृधिप्रुकुक्षोरात्तन्वच दध्यन्तराहधि बाद्य दधि फर्थ जात॑ किमनादीप्यते दि ४६) सावयव सजन्मा होता है इस नियमका अपवाद यदि आप मानते हैं तो गास्त्रोक्त प्रछयका भी खण्डन क्‍यों करते हैं ? ब्राह्मणसे ही ब्राह्मणकी उत्पत्ति, बीजसे वृक्षोत्पत्ति इत्यादि नियमोंका भी अपवाद हो सकता है प्रथम सृष्टि विना किसी नियम ईश्वरसे हुई आगे सजातीयसे सजाततीयकी सृष्टिका तियम चलछा ऐसा माननेमें क्या आपत्ति ? दूधमें दही जामन डालते हैं तो दही बनेगा परंतु आतंचन दही उससे पुर्व आतंचन दही सहित दूधसे बना। इस नियमको यदि आप मानते हैं तो दहीकों भी अनादि पदार्थे मानना पड़ेगा ( किन्तु ऐसा नही होता प्रथम दही उपाया- न्तरसे बन जाता है) फिर दहीसे दही यह तियम चलता है ) ॥॥ ४३-४६ !॥ बूहदारण्यकोरत॑ रा ढ्वं घात्मानमपातयत्‌ ततः पतिश्व पत्नी च॑ म्यहेत्‌ बभूबतुः॥ ४७ थे बडवेकेतरोज्श्बोडसूदितिरीत्या महेश्वर: एक एवामबन्नाना बिनेषि अलयात्‌ कुतः॥ ४८ जध्यापयत्‌ सर्गादी चेदान्‌ प्रह्माणमीश्वरः ततस्तदर्थभपि ते भय युज्यते सखे ४९ यो ब्रह्मार्ण व्यधात्‌ पूर्व तस्मे बेदोंश्व प्राहिणोत्‌ इत्येव॑ श्रुतिरप्याह फुतों मीः प्रलयात्तव ५०४ स॑ एव सकल॑ बीजमकरोखझ्धगवयान शिव: तत्मिन्‌ परिसमाप्ति: स्पाप्नियमानामशेपतः ५१॥ बुहृदारण्यकवचन है कि उस परमात्मामे अपनेको द्वेधा किया। उससे पतिपत्नी हुए। उससे फिर मनुप्यजाति हुई इधर एक घोड़ी, दूसरा घोड़ा हुआ उससे अश्वजाति हुईं | इसरीनि एक ही परमात्मा नाना हुए।

झोक: ] स्पन्दबा तिकस हितम्‌ ६९

तव प्रलयसे क्या भय ? उसी परमात्मात्ते सर्गादिमे ब्रह्माकों वेदोपदेश दिया। अत वेदाध्ययनपरम्परानाशभयसे भी भ्रल्यको मातना बेकार है। “यो ब्रह्माण विदधाति पूर्व” इस श्रुतिमे उक्त अर्थ स्पष्ट भी है। उसी परमेद्वरने सभी वृक्षादि बनाये कहो या सभी बीज बनाये कहो जैसा भी हो समस्त नियम परमेद्वरमे समाप्त हैं ४७-५१ अधिप्ठातार कि० सार्याः प्रत्यवतिष्ठन्ते प्रलय मन्‍्महे चयम्‌॥ प्रकृतिजजंगतः कर्नो सर्वेबीजात्मिका हि सा॥ ५२॥ विश्व सुजति मोगार्थमपवर्गार्येमाहरेतू भोगापवर्गदा सेपा सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ५३ अ्ज्ञानए्संसरेज्जीदो. ज्ञताव्देव विधुच्यतते | ईश्वरस्पात्र किंचित्च नेद फार्यमवेदयते ५४ प्रथम पादसे मीमासकमतापाकरण हुआ | वहां साझ्य खडे हो गये वे कहने छग्रे गुणीकी साम्यावस्थारूप प्रछयको हम मानते हैं। जगतुका प्रादर्भाव भी मानते है किन्तु प्रकृति ही जगत्‌को बनायेगी ( ईश्वर नही )। प्रकृति सर्वजगतवीजरूपिणी है जीवोके भोंगके लिये बह विश्वसरजंन करती है। अपवर्ग ( मोक्ष ) जब देना है तो सृष्टि कार्यसे उपरत होती है। यही प्रकृति भोग तथा अषपवर्ग देनेवाली है। यही प्रकृति जगतु सृष्टिस्थितिकय- कारिणी भी है। भज्ञानसे जीव ससारमे पडता है, ज्ञानसे मुक्त होता है। इस प्रक्रियामे ईश्वरका कोई काम देखनेमे नही आता है ५२-५४ ।॥ अनोच्यते कर्य सृुष्टिरधिष्ठातारमन्तरा चित्र कर्गले बवापि प्रकृति' कुरुते स्वयम्‌॥ ५५॥ सास्यमतका उत्तर दिया “अधिष्ठातार कि” इत्यादि मूलमे॥ अधिष्ठाताके विना सृष्टि कैसे हो? किसी कागजपर कोई चित्र स्वय प्रकृति चना डालती हो ऐसा देखनेमे नहीं आया। जापके मतके अनुसार तो स्वभावत- रग इधर उघरसे उडक्र आते और कागजपर राम, कृष्ण, देवदत्त, अफरत्तादिया विर बन जाता 7 ९९ #४/ प्रागृब्या््यातदिशा सर्थ॑ सब्यवस्थं चराथरम्‌। किमज्ञा प्रकृतिः कुर्पादावश्यक्यधियं विना॥ ५६॥१ हम पहले व्यास्या कर चुके हैं कि जहाँ वालक पैदा हुआ वहाँ स्तन्य तैयार है. हिमालयमे ठठी है तो वहांके पथु आदिये' लम्बे घने बाल हैं। इस आवदयकताके ज्ञानके बिना अज्ञ प्रद्वति इस प्रदापर व्यवस्थित ससारबो कैसे बना सकती है ? ५६

छ० श्री शिवमहिम्न: स्तोचग् [ चच्छः

ययायोग्यविधिनज्ञः सन्‌ व्यवस्थितिकरः प्रभः॥ * «

फर्ता यो नाम भवत्ति सोइधिष्ठाता निगद्यते ५७

एतत्सव यदि भवान्‌ भ्रकृतों मन्‍्यते तदा॥।

ईश्वर चेतन भ्रूपे प्रकृति नामभेदतः॥ ५८

नाशब्दसीक्षतेः ल्प्ट्रिव्पेदमाहु सम सुत्रकृतू

भगवत्पादभाष्ये तत्तात्पय॑ स्फुटीकृतम्‌ ५९

पराक्कान्त॑ बुधेरत्न॒ बहुधेति विरस्यते॥

अधिष्ठाता ततः सिद्धों जगतोइस्थ महेश्वरः॥॥ ६०॥॥

अधिष्ठाता उसी कर्ताकी कहते हैं जो भ्रावश्यकत्मको समझता हो,

व्यवस्था करता हो और समर्थ हो ये सारी बातें यदि प्रकृतिमें आप मानते हैं तो चेतन ईश्वरका नामान्तरमात्र प्रकृति होगा। “ईक्षतेनशिब्दं” इस सूत्रमें ओर उसके भगवत्पादीय भाष्यमें ये सभी बातें स्पष्ट की गयी हैं। विद्वानोंने इसपर पर्याप्त विचार भी किया है। अतः हम विस्तार नहीं करते। इस जगतका अधिष्ठाता महेश्वर है इतनी वात तो सिद्ध हो ही

जाती है ५७-६० अनीशझो वा कुर्यादु०

प्रत्यवास्थिषतान्ये चाप्याश्तिकत्वेनम कोलिताः ! शवदेष्णवश्ाक्ताओा: परस्परविरोधिनः ॥॥ ६१ भे पुराणान्तरमग्राह्म॑ नेदर्य शास्त्रान्‍्तरं॑ तथा विष्णुशिवयोरंबर्य फर्यंचिद्‌ भुणभेदत:॥ ६२३ एवं परिच्छिन्नविदोध्परिच्छिन्नेशटूरगा: अनीशमेव जगतः कर्तारं जगदुबंलातू ६३ शव, वैष्णव, शाक्त आदि जो आस्तिक कहलानेवाले हैं, कहते है कि ( स्वपुराणसे ) अन्य पुराणोंको पढ़ना नही चाहिये। श्ञास्त्रान्तर देखना नहीं चाहिये शिव औौर विष्णु कभी भी एक नहीं हो सकते। वे परस्पर विरोधी वातें करते हैं परिच्छिन्नदर्शी वे अपरच्छिन्न ईश्वरसे टूर रहते हैं अनीश्वरको ही वलपूर्वक जगत्कर्ता मानते है ६१-६३ ॥॥ भन्‍्वोशत्ये फर्थ सेपाँ मेदसान्रण होयते। चच्यते भेदिनां प्राह्मदोशत्य॑ शास्जमेव यत्‌ ६४४ शज्दत होगी--शिव, विष्णु आदिके भेदमावसे ईइवरत्वकी हानि बयों होगी ? ईबवरत्वमें प्रयोजक सामर्थ्य है, कि भेदाभाव। समाधान है कि शास्त्र स्वयं कहता है कि ईश्वर भेदवाऊा नहीं है ६४

झोकः ] स्पन्दवातिकसहित म्‌ ७१

यत्र पश्यति नंवान्यन्न चैवान्यच्छुणोति हि। स॒भूमा मरत्यमल्पं यवित्येब॑ श्रुत्िरत्रवीत ) ६५ जहाँ अन्यको नही देखते, अन्यको नही सुनते वही भूमा परमेश्वर है, जो परिच्छिन्न है वह मरत्यं-मरणशील है ऐसा श्रुतिवचन है ६५ ॥॥ गेष्प्यन्यदेवता मक्ता इत्येब॑ भेददशिनः। उपक्म्याब्रवीन्‌ कृष्णो गरीतायामजुर्न प्रति॥ ६६॥॥ न॒ तु सामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते इत्यादिक॑ ततोष्नीशा विष्ण्वाद्या भेदयोगिनः ६७ गीतामे भी “येप्यन्यदेवता भक्ता” इस प्रकार भेददर्शियोंका उप- क्रमकर भगवानने कहा है वे मुझे ठीक तरहसे नहीं जानते अत. वे पतित होते हैं इससे भेददर्शनके विषय विष्णु आदि अनी€्वर हैं यह सिद्ध होता है ६६-६७ ईशस्तु शिवमद्व॑ त॑ शान्तमित्यायमोदित: देवानेव भजन्त्येते वेष्णबाद्या संशयः ६८ ॥। ईइवर तो “शान्तं शिवमद्वेत” इस श्रुतिमे कथित द्वेतभेदवर्जित शिव ही है। बैष्णवादि तो “देवानु देवयज:” इस गीतोक्त देवताओंका ही भजन करते हैं, ईश्वरका नही ६८ ॥। परिच्छिन्नत्य मत्यंत्वात्तदुत्पादयिता न्रु॒ कः। अपरिच्छिन्न एवासावनवस्थास्यथा भवेत्‌ ६९ परिच्छिन्नको श्रृतिने मर्त्यं बताया मृत्युग्रस्तको उत्पन्न करनेवाला कोई दूसरा मृत्युग्रस्त हो तो अनवस्था होगी। अत अपरिच्छिन्न ही ईइबर है ६९॥ नन्वीश व्यापक सूमो विष्ण्यादिमिति चेत्तदा। नासौ गोलोकवेकुण्छदेशभेदनिरुद्धमूः ॥| ७० ॥। व्यापकस्थय चाकारः फल्पितादन्य इष्यते शिवादिश्द तथवेति मेदवार्ता गता तव॥ ७१॥ हम विष्णु आदिको व्यापक मानते हैं, परिच्छिन्त नही, ऐसा यदि वे कहते हैं तब इन्हे मोलोकवासी, बैकुण्ठवासी ऐसे देशविशेषस्थित नहीं कहना चाहिये व्यापक आकाशका कोई आकार या हाथ पाँव नही होता वैसे व्यापक ईश्वरका भी वास्तविक आकार नही होगा | कल्पित आकार होगा। तब शिव दुर्गा आदि भी व्यापक हैं, आकार कल्पित हैं तो शिव- विष्णुका भेद कहाँ रहा ? ७०-७१॥॥

छ्र श्री शिवमहिस्नः स्तोप्रम्‌ [ पप्ठः

व्यापकानामनेकेधां विष्ण्वादीयां. प्रफत्यना सर्वेशात्नविदद्धत्वास्पूठानामेब शोभते ७२ ॥। सर्वेमुतेप॒ गुढोध्यमेफी देव इति भ्रुतेः॥ ' सानात्वकल्पना व्यर्था नानाकारास्तु कल्पिता: | ७३ ॥॥ यदि कहें कि व्यापक ही अनेक देव शिवविष्णु आदि हैं त्ती यह सर्वे शास्नविरुद्ध मूढकल्पतामान है “एको देवः सर्वभूतेषु गूढः” ऐसी श्रुति है। नानाकार स्वेच्छया कल्पित है ७२-७३ झसण्डमपरिच्छिन्न जेदनयविवर्नितम्‌ चैतन्यमीश: स॑ शियो विश्व॑ जनपतीश्वरः ७४ साराश यही है कि अखण्ड अपरिच्छिन्न त्रिविध भेदवर्जित चैतन्य ही ईश है, वही शिव है, वही ईश्वर विश्वका स्रप्टा है ७४ ॥॥ इमान्‌ सावयवांल्लोकान्‌ जनयन्ते कृपानिधितू। श्रधिष्ठातारमौशान॑ नमामस्ते सुनिश्चिता: ७५ इन समस्त सावयव छोकोकों उत्पन्न करनेवाले अधिप्ठाता दयामय ईंदा भगवानकों मिश्चितमति होकर हम प्रणाम करते हैं ७५ ॥| इति कली काशिकानन्दपोमिनः कृतिन: कृतो सहिस्नः स्तोयविवृतो स्पन्दः पष्ठोध्यघुज्ज्वलः ७६

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3 सप्तम: इछोकः ननु नएस्तिव्वत्‌ रैंक सांखपम्रीम्पंसकादय:॥ बैष्णवाद्याश्षा पतनमृच्छन्ति. शुभकारिणः पूर्व'्लोकपे द्वितीय व्याय्याके अनुसार मीमासक, साख्य एवं वैष्ण-

बादि सभी मन्दमति ही सिद्ध हुए तो नास्तिकोंके समान वे भी पतनको प्राप्त

होते हैं क्या ? यह वात नही जेंचती क्योकि ये सभी शुभकारी माने जाते हैं॥ १॥॥

अन्नोच्यते तल हिं बबापि बेदसार्गावलम्विनः ऋषच्छन्ति पतन किचिदषि घ्यत्यस्तबुद्धयः

झोक: | स्पन्दवातिकस हितस्‌ छ्३्‌

उक्त बड्धाका समाधान यह है कि कुछ कुछ मति विश्रम होनेपर भी वेदमार्गावलम्बी कही पतित नही होते वेबमार्गावलम्बित्वाच्छुद्धतत्वा:.. क्रमेण ते विज्ञाय परम तत्व विमुच्यन्ते विलम्बतः॥ ३॥ वेदमार्गावहुम्वी होनेसे धीरे धीरे वे भी शुद्धान्त करण बनेगे। फिर शास्त्र और आचार्यक्रपासे परमतत्त्वको भी जानेंगे। भले विलम्ब हो लेकिन अन्तमे मुक्त हो ही जायेगे तेष्पि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपुर्वेक्म्‌ इत्युक्तत्वादीशयजि बैयर्थ्यासंमवादवि भगवानने ही बताया कि अन्यदेवताकी उपासना करनेवाला भी अविधिपूर्वक मेरी ही पूजा करता है। तब परिच्छिन्न विष्णु आदि पूजा भी अविधिपूर्वक ईश्पूजा ही हुईं। ईशपूजाका वैयथ्थ्यं तो हो ही नहीं सकता ४॥ न॒हि कल्याणक्ृत्कश्िद्‌ दुर्गेत तात थच्छति इति चोकक्‍तेः क्रमेणयामस्युद्धारों सवेत्ततामू ॥५॥ “कल्याणकर्मकारीकी दुर्गति नहीं होती" इस वचनसे यदि वे सत्‌ युरुप है तो अवश्यमेव क्रमश उनका उद्धार होगा ५॥ तदेतहुशंयन्तेव... प्रुप्यदन्तो.. महानुनि:। अशेषशास्त्रतात्पर्य मपि सूचयतोश्वरे इस बातको दिखाते हुए महामुनि पुष्पदन्त समस्त शास्त्रोका तात्पर्य भी ईश्वरमे सूचित करते हैं ॥। त्रयों सांख्य॑ योग: पशुपतिमत वैष्णवर्मिति प्रभिन्‍्ने प्रस्याने परसिदमदः पथ्यमिति च। रुचीनां चैचित्याहजुकुटिलनानापयजुर्षा नृगामेकी ग्रम्यस्त्वमसि पयसामणंव इब॥ मीमासा, साख्य, योग, पाशुपत, वैष्णव इस प्रकार मिन्न-भिन्‍्त प्रस्थनो ( दर्शनों ) मेसे कोई कहता है यह मत ठीक है, दूसरा कहता है यह मत हितकारी है इस प्रकार रुचिव॑चित्र्य होनेसे सीधे ठेढे नाना मार्गसे चलमेवाले लोगोके लिये चाहे वह इनमे कोई भी हो, एकही गन्तव्य स्थान आप है, जैसे सीधे टेढे चलनेवाले नदीनालोके लिये गन्‍्तव्यस्थान एक ही समुद्र है ॥॥ ॥॥

छ्ड श्री शिवमहिसम्नः स्तोतवम्‌ | सप्तमः

श्रयी

भ्रयोत्ति बेदत्रस्युक्ता मोमांसाउतश्व गम्यते। द्विविधा सा भोमांसा कर्मबह्यार्थमेदततः ७।।

ज्यीका तीत वेद अथे है। उससे मीमांसा गरम्यमान है। मीमांसा दो है। कर्ममीमांसा ओर ब्रह्ममीमांसा ॥| द्विधा कर्ममोमांसा सेश्वरा निरीश्वरा। उभयोरच मतयोः संग्रहों मुनिना कृतः ८॥॥ कर्ममीमासा भी सेश्वर तथा निरीश्वर भेदसे दो प्रकारकी है। दोनों मतोंका यहां सग्रह है ८॥॥ फलदानप्रतिभुव॑ ये बुद॒ध्वा कर्मेणीश्वरम। कुर्वीन्ति वेदिकं फर्म सेश्वरास्ते प्रकीतिता:॥ ९॥॥ ईशकारुण्यमासाथ.._ फदाचिल्लब्धदेशिकाः | तत्व विज्ञाप गच्छन्ति शव ते परम पदस्‌ १० सेश्वर मीमांसक वे है जो परमेश्वरको कर्म फलदाता समझकर वैदिक कर्म करते है कदाचित्‌ भगवर्क्ृपासे वे सदुगुरु पाकर तत्त्वज्ञ बनते हैं और शैव परमपदको प्राप्त होते हैं ९-१० पत्करोषोत्यादिवचसामप्टकादिस्मृतेरिय प्रामाण्यपुररीकृत्य कु: कफर्मापणं तुये॥११७ ते शुद्धभावसाः सन्‍्तः क़रमाज्जानमवाप्य च। गच्छन्ति शिवमद्बंत पन्‍या तेपामृजुर्भवेत्‌॥ 4२॥ - अयभेव यतः पनन्‍्था वेदान्तेष्‌ निरूषितः३। यज्ञेविविदिषन्तीति पेठुर्वाजसनेयिन+ १३ अष्टकादि स्मृतिके समान “यत्करोंपि यदश्नासि” आदि स्मृतिका प्रामाण्य स्वीकारकर जो कर्मोको भगवदर्षण करते है उनका अन्त.करण शुद्ध होता है, क्रमेण ज्ञान भाप्त होता है और अच्तमें शैव परम पदको वे प्राप्त होते हैं। यह ऋणजुमार्ग ही हैं। वयोकि वेदान्तमें यही मार्ग बताया है। “विविदिपन्ति यज्ञेन दानेन” इत्यादि श्रुति है ११-१३ तस्मात्कुटिलमार्गस्थाः सकामा एव फर्मिणः। कादाचित्कमुद्धप्राप्त्या ग्रेषामुद्धारसंमवः १४ इसलिये सकाम कर्मी ही कुटिक भागेंगामी है। कदाचित्‌ सदगुरू प्राप्ति से उनका उद्धार हो सकता है। जैसे कि पहले दरसाया १७ !॥

झ्लोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ७५

निरीश्वरापि मीमांसा देवतास्तित्ववादिनी॥ कि सत्कमंतात्पर्यान्नवैषा पतनोन्मुखी॥ १५॥ कुसोदाय गतः कश्चित काशी भागोरथीजलम्‌ | इष्ट्वा स्पुष्ट्वा पर पुण्य प्राप्नोत्येब तथात्र १६॥॥ निरीश्वर मीमांसामे भी देवताका अस्तित्व माना ही गया है मन्त्रात्मक ही देवता इस पक्षमे आखिर सत्कर्म करनेमे तात्पये होनेसे वह पतनाभिमुख तो नही ही है। जैसे कोई उघार दिये घनका व्याज लेमेके लिये ही काशी गया था। फिर भी उसमे गगाका दर्शन और स्पर्श कर लिया उसका पुण्य उसको मिलेगा ही वैसे स्वार्थ कर्म करते हुए भी वेदोच्चारण स्मरणादि पुण्य यहा भी होगा ही १५-१६ ॥॥ मन्‍्वीश्वर॑ विधुवतः पापमेव._ भवेदतः फथमुद्धारशडूरापि विधातूं शवयते किल॥ १७॥ सत्य परं॑ वेदपुष्य॑ महदेवाभ्युपेयते॥ तस्मान्मीमांसकानामस्त्युद्धारसुपिरं स्फुटम्‌ १८ ईश्वरा5्मा निनोष्प्येवाघीयीौरन्‌ स्वर्गेकाम्यया चेदानित्येव. तात्पर्य तत्प्रवर्तनकारिणाम्‌ १९ थे पुर्वंपक्ष :--ईबवरका जो खण्डन करते है उन महापापियोकी उद्धार- शका ही कहाँ हो सकती है ? उत्तरः-वेदाध्ययनपुण्य भारी माना यया है अतः वह भीमासकोंके उद्धारका सुपिर है। निरीश्वर मीमासा मत प्रवर्तेक आचार्योका इतना ही अभिप्राय है कि ईश्वरको माननेवाले भी कमसे कम स्वरगेंच्छासे वेद तो पढें १७-१९ नन्‍्वमादी हि. संसारे घर्माधर्मप्रवृत्तितः। जन्ममृत्युसुखादीनां. प्राप्ति: सकलसम्मता २० वेदाधौतिकृतो घममं: संसारस्थेव कारणम्‌ | अनधीतथृति फंचिज्जीवात्यान मन्‍्महे २१ सप्तान्नसगे. विस्पष्ट॑ जगदुत्पत्तिकारणम्‌ फर्मोपास्ती विनिध्दि. ततश्चंतत्समर्थनम्‌ २२॥॥ कपुययोनिगसन स्वगन्ति. कमिणामपि। श्रूयते तेत सामान्य वेदाध्ययनमीयते २३ संसारे वा तबुद्धारे फाचित्पक्षपातिता। अत्रय्यास्ततः कथ त्तस्या एको गम्यो महेश्वर: २४ ॥॥

छद्‌ श्री शिवमहिम्न- स्तोचम्‌ सप्तमः

पूर्व॑पक्ष .--अनादि ससारमे धर्म एवं अधर्मकी प्रवृत्तिसे ही जन्म, सुख, द्‌ खादिकी प्राप्ति होती है यह सर्वसम्मत है। तब वेदाध्ययनपूर्वेक जो धर्म किया वह ससारका ही कारण सिद्ध हुआ। केवल अधर्मसे नरक- पतन भले हो पर यह प्रत्यक्षससार तो धर्माधमंजन्य ही है। बतएव अनादिकालसे सर्वेधा वेदाध्ययनसे शुन्य कोई जीवात्मा ही नहीं है यही हम मानते है ( क्योकि नरक जानेके लिये भी मनुष्यजन्मकृत पाप चाहिये और मनुप्यजन्म पुण्यपाप उभयसे होगा | ) बृहदारण्यकमे सप्तास्नसर्गप्र- करणमे कर्मे और उपासनाओी ही ससारकारण बताया भी है। कर्मसे स्वर्ग जानेवाछोमे पतनोत्तर कपूययोनि ( सूकरइ्वानादि योत्रि ) को प्राप्त होनेवाले भी बहुत हैं, ऐसा श्रुतिमि कहा है। अत एवं वेदोकी ससार या ससारोद्धार दोनोमे सामान्यगति है तब त्यीका एक ही गम्य परमेश्वर है यह बात कैसे ? २०-२४ सत्य कारको वेदों ज्ञापकस्तुपगभ्यते॥ घर्मादीन्‌ कुर्देत: स्वोक्तान्‌ ससृती स्वं दोपयुक्‌ २५ स्वोक्तानधर्मास्त्यजतो धर्माश्वाचरतः सतः। स्वपुण्येन शिवप्राप्तिरिति तस्य सदाशय; २६॥॥ उत्तर- वात सत्य है। किन्तु यह स्मरण रहे कि वेद कारक नही, ज्ञापक है। वेदमे धर्म और अधर्म बताया। किसीने दोनोको किया और उससे ससार पाया तो वेदका क्या अपराध ? वेदोका यही सदाशय है कि अपनेमे दरसाये अधरमको छोडकर लोग धर्माचरण करें। कर्मे सकाम होने पर भी वेदाध्ययनपुण्य पृथक्‌ है ही उससे भिवप्राप्ति होगी २५-२६ ट्वितीयाः ब्रह्ममीसासा भगवदुव्यासदर्शिता ऋज़ुमागं. सप्रोक्तो वेदान्तार्यबिचारणा २७ ।॥। श्रवण. सतत चेव निधिध्यासनमेव उ। विचाराण्यानि कुर्वेज्िगंस्थते परम पदस्‌ २८॥॥ ज्ञयीपदके भर्थ दो मीमासाओ मे द्वित्तीय ब्रह्म मीमासा है। भगवान चेदव्यासजीमे उसे बनाया वेदान्ता्थे विचारखूप बह मीमासा ऋजुमार्ग है ऐसा विद्वान मानते है श्रवण, मनन और निदिध्यासन, जिनको विचार भी कहते है--करने वाले परमपद को प्राप्त होते है ॥॥ २७ २८ ॥॥ प्रहाय परम सत्य विज्ञातानन्दलक्षणम्‌ इृश्य जड परिच्छिन्न जगत्‌ पारभायिकम्‌ २९ ॥३

झोक ] स्पन्दवातिकसहितग्‌ ७७.

घटादिपु सती मृत्सना सद्‌ ब्रह्म॑ब जगत्यपि। शिव शान्त तदद्व तमिति वेदन्तडिण्डिम ३०

ब्रह्म ही परम सत्य है, वह विज्ञान एवं आनन्दरुप है। यह दृश्यमान,

परिच्छिन्न, जड जगत्‌ पारमाथिक नही है। घटादिमे यथार्थत मिट्टीको ही सत्ता है वैसे जगव्‌मे भी ब्रह्म वी सत्ता ही है। वही शान्त अद्देत शिव है ऐसा वेदान्त वा उद्धोप है २९-३०

जीवपरपोर्मेद स्वतो हौपाधिकस्तु स॒

अनुपाधि पर भ्रह्म जीवेशों मायया छूतों॥ २१

मापाब्यप्टिसमप्टिस्या स्यातां प्राशेश्वरो हि तो

सुक्ष्मव्यप्दिसमष्टिम्या तेजल सूनमेव च॥रेर

स्थूलव्यप्टिसमष्टिम्या_ विश्ववेश्वानरो मतो।

माय्यमिथ्यात्वत कार्य त्पृलइुक्मादिक तथा ३३

तदूबाघे.. जगतों.. बाधादेकमेवाचशिष्यते

तत्रवाखिलवेदान्ततात्पयं. भानूटे वक्‍चितृ॥ रे४

तत्त्वमस्थादिभिववियेर्भाप त्यागपुर सरम्‌।

श्रुत्वा मत्वा निदिध्यास्य पर ब्रह्माधिगच्छति ३५

जीवात्मा और परमात्माका ऑपाधिक भेद है बास्तविक नहीं। मिरुपाधि चित्‌ ब्रह्म है। माया से जीव और ईश्वर हुए। मायाकी व्यप्टिसे प्राज्ञ और समप्टिसे ईश्वर हुए। सूक्ष्म जगत्‌की व्यप्टिसे तेजस समध्टिसे हिरण्यगर्भ हुए | स्थल जगतुकी व्यप्टिसे विश्व और समप्टिसे विराट हुए मायाके ही सूक्ष्म जौर स्थूल कार्य हैं। याया मिथ्या होनसे वे भी मिथ्या है मायाके वाधस जगतूका बाघ हुआ तो एक अद्वितीय ही अवश्निष्ट रहेगा उत्तीमे समस्त वेदातोक्ा तात्पय है मिथ्या जगवेमे नहीं। तत्त्वमसि आदि वाक्यस भागत्यागकर श्रवणमनननिदिष्यासन करनेपर परब्रह्मस्पेण स्थितिख्प शिवप्राप्ति होती है ३१-३५॥ निमुंणोपासना या ठु वेदान्तेयु निरूपिता। साफ़ क्रग्मीपदार्य स्थाज्र्जुर्ने कुटिलापि स्वरा? ३६)) सानापदमत.. भोक्त मध्यमार्गररुत्सया पुष्पदन्तेव.. मुनिता. तारताम्यादनेकघा ३७ निमु णोपासना भी अयीपदका अर्थ है। उपनिषदोम उसका प्रति पादन है। वह ऋजु भी नहीं बहुत कुटिल भी नही। मध्यमार्ग है! उसके सग्रहार्थ ही मुलइ्छोकमे नानापद है। थोडा सीधा ज्यादा कुटिल, थोडा

७८ श्री शिवमहिम्त. स्तोभग््‌ [ सप्तमः

कुटिल ज्यादा सीधा इस प्रकार मध्यमार्गमें तारतम्य है। अतः मध्य ने कहकर नाना कहा॥ ३६-३७॥

जगस्मिय्यात्ववोधेन विनेय परस॑ शिवम्‌ घ्यायतस्निपुदीभावा निमुणोपासना मता॥ र३े८ संप्रवाध्प जगत्सवें ध्यातृष्याने विहाय च। घ्यायतोष्देतमाब॑ तु निदिध्यासनमिष्यत्ते ३९ निर्गुणोपासना और निदिध्यासनमे फरक यह है कि उपासनामे जगत्‌- चाध नही होता, निपुटीभाव रहता है। निदिध्यासन जगतुबाधपूर्वक होता है, ध्याता और ध्यातके बिना ध्येयमान्रविषयक होता है ३८-३९ संवादिश्वमवद्‌ ब्ह्मोपास्त्या कालविलम्यतः। विज्ञाय तत्त्व॑ पुरुषः आप्नोति परम॑ शिवम्‌ ४० ॥। विचारे त्वपन्ोयंव प्रतिबन्धान्‌ महाप्रत्िः साक्षादेवजू मार्गेण भाष्लोति परम शिवम्‌ ४१॥॥ उपासना सवादिभ्रमके समान है, भ्रमसे प्रमापर पहुँचकर कालवि- हूम्बसे उपासक पर्मशिवको प्राप्त होगा विचारमे तो प्रतिवन्धोको ड॒ठाते हुए साक्षात्‌ ऋजुमार्गसे परमशिवको प्राप्त होगा ४०-४१ सांख्यं अथ सांडय॑ द्विधा तच्च सेशवरं निरोश्वरम्‌ श्रोमद्भूगवतायुक्त' सेश्वर॑ कापिल सतम्‌ 3 ४२ निरीश्वरं पुनव्यंक्ता5व्यक्तप्रन्नविबेकतः प्रकृत्या फ़रियते मोक्ष इत्पासुरिसुखोंदितम्‌ ॥॥ ४३ अब साख्यमत सुनिये साख्यमत भी मीमासाके समान सेश्वर तथा निरीह्वर दो ग्रकारका है। श्रीमस्भभागतमे देवहूृतिको कपिलने जो तत्त्वो- पदेश किया वह सेश्वर साख्य मत है। कपिल भगवानके शिप्य आसुरि नामके मुनि हुए उन्होने निरीश्वर साख्य प्रवर्तित किया उनका कहना है कि व्यक्त, अव्यक्त प्रकृति और प्रज्न पुरुषका विवेक ज्ञान कराकर प्रकृति ही मोक्ष दिला देती है ४२-४३ प्रकृतिर्पात्वविक्ृृतिस्तदव्पक्तमितो रितस्‌ सह॒दाद्यास्‍त्तु प्रकृतिविकृत्युमयरूपिरय: ४४ ॥। महत्तत्वमहुंकारस्तन्मात्राः पञ्च सप्त ते योडश स्थुविकृतपों ने ताः भकृतयों मताः॥ ४५॥

खोकः ] स्पन्दवातिकस हितस्‌ ७९

एकादशे निद्रियाणां स्पादहुंकारात्समुद्भूव: घोत्रत्वगक्षिरसनाप्राणाः:. ज्ञानेन्द्रियाण्यमी शे बाक्‌पाणियादपायूपस्था: स्थुः कमेंन्द्रियाण्यमी ४६ मनश््य॑ कादर्श प्रोक्ततथ तन्‍्सात्रसंभवम्‌। प्थ्व्यप्तेजोमरुद्ब्योमसंज्ञक॑ सृतपण्चकम्‌ ४७॥ एतत्पोडशसंस्याक॑ प्राग्ुक्त॑ सप्तक॑ तया। व्यक्तमित्युच्यते शास्त्रें पद्चविशस्तु पुरुषः॥ ४८ नायं स्यास्पकृतिनों वा विकृतिश्व तनः पुमान्‌ असड्भोष्प्पविवेकेन. बद्धः संसारबन्धने ४९ विक्रृति प्रकृति चेब विविच्यासौं निज यथा। जानात्यपतद्धं तझोंद मुक्तो भवति संसुतेः ५० सांख्यशास्त्रपराम्यासबैराग्याम्यामयं खलु। स्वरूपस्प विवेकाच्च तत्त्व पश्यन्‌ बिमुच्यते ५१॥ व्यक्त-अव्यक्त भ्रज्ञका विवेक उन्‍्हीकी गणना आदिरूप साख्य विचारसे होगा। प्रथम तत्त्व प्रकृति है, वह मूल है अर्थात्‌ विकारह्प नहीं है, वही अव्यक्त है बादमे सात प्रकृतिविकृति उभयरूप हैं। महत्तत्व, अहंकार, शब्द-स्पश-रूप-रस-गन्ध तन्मात्रा ये सात हैं। इसके वादमे होने वाले सोलह केवल विक्रृति हैं। किसीकी प्रकृति नहीं। अहकारसे उत्पन्न ग्यारह इन्द्रिया और पचतन्मात्रा्से उत्पन्न पसतचमहामृत ये सोलह है। श्रोत्, त्वचा, नेत्र, रसना, प्राण, ये पाच ज्ञानेन्द्रिय, वाकू, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ ये पाच कर्मेन्द्रिय और ग्यारहवा मने मिलानेपर एकादश इन्द्रिय होते हैं। पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश्न ये पाच भूत हैं! ये सोछह विकृवति और पूर्वोक्त सात प्रद्नविविकृति ऐसे तेईस व्यक्त परदार्य हैं प्रज्ञ पुरुष प्रकृतिविकृति दोनो नही वह चेतन असग है! अविवेकसे ससारवधनमे वध गया है। विकृति (व्यक्त ) और प्रकृति ( अव्यक्त ) से पृथक कर अपने को जब वह असम देखता है तभी मुक्त होता है। एतदर्य साख्यतत्त्वका परम अभ्यास और वैराग्य दीनों चाहिये तब स्वरूपविवेकमे तत्त्वदर्शन कर मुक्त होगा ४४-५१ सनु॒ सेश्वरसांढ्यानां. प्रमुमक्तिर्दोरिता। ईशकारुण्यतस्तेषां शिवप्राप्तिश्य. पूर्ययत्‌ ५२॥ मनिरोश्वराणों. न॑वेशकृपासंभावना मयेत्‌ तेपां चेदपुष्यं लेपां ग्रम्पप कर्य शिवः॥ ५३॥

<० श्री दिवमहिम्नः स्तोत्रम [ सप्तम:

सत्य पेराग्यमात्मानुचिस्त्न चेति यवृद्टयम्‌ पुण्यमेथ पर तेन तेषामीशकुपा भचेत्‌॥ पड क्षणिक सफल विश्व॑ व्यवतमेतन्तिरीक्ष ते लमनन्‍्ते घनदारादिवेराग्यं सांस्यकोविदा: ५५॥ असज्भमकलं. शुद्धमात्मानं चिन्तयन्ति यत्‌ भोकतृत्वेत विपयंस्यथ परमात्मानभेव तत्‌॥ ५६ कि घ॒ तेष्प्पास्तिकत्वेद निजाम्नायानधीयते | चेदयुण्येन राहित्यमतस्तेषा युज्यते ५७॥ असज्भ चेतनात्मा चर परमात्मसमीपग-॥ ततः कुडिलपद्धत्या तेषां गम्यो महेश्वरः॥ ५८॥

पूर्वपक्ष -सेश्वर सास्योका सेश्वर मीमासकके समान ईश्वरकृपासे शिवप्राप्ति हो सकती है। किन्तु निरीक्वर सास्योकों शिवप्राप्ति कैसे ? निरीश्वर मोमासक तो वेदमीमासासे वेदपुण्य प्राप्त करेगा। किल्लु निरीश्वर साख्य तो प्रकृतिपुरुषममीमासा करता रहता है। उसको वेदपुण्य भी कहासे होगा ? उत्तर -यह कथन यथार्थ है। परतु सास्योमे वैराग्य और अत्मचिन्तन ये दो पुण्य हैं ही, उससे भी ईश्वरक्षपा हो जायेगी व्यक्त जगत्‌को क्षणिक देखते-देखते घनदारादिसे वैराग्य होता है॥।और असग अंकल शुद्ध आत्माका जो चिन्तन है वह भी आखिर परमात्मचिन्तन ही है। केवल भोक्तृत्व की उन्हे भ्रान्ति है। फिर साख्य भी तो आस्तिक है भर्थाव्‌ बेदप्रामाण्य मानते है। अत अपनी शाखाका अध्ययन जारी रखेंगे, तो वेदपुण्य होगा नही ऐसा कैसे कह सकते हैं ? यह असग चेतन आत्मा परमात्मा के नजदीक पहुँच भी जायेगा अत कुटिलमार्गसे उनको भी शिव प्राप्य है ५२-५८

++ योग ३--- योग" पातझजल: सोष्यं सेशसास्यत्मम स्मृत प्लेशाचसस्पुक्‌ पुरुष विशेष वदतीश्वरमु॥ ५९॥

ईश्वरप्रणिघावेत. लब्धपुण्यः समाहितः। तत्त्व द्ुदमभिज्ञाय योगी पाति शिव परस्‌ ६० यमस्तथेब नियत आसन. प्राणसयमः। भ्रत्याहारों घारणा ध्यानं थे ससमाधिकुम्‌ ६१ ॥६ अध्टावड्धान्यतुष्ठाय. समाधि निविकल्पकम्‌। प्रविषध्य बासनसयुक्तः पायः शुद्धमवेक्षते इश॥ा

आलोक: ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ पं

घर्ममेघलमाधिस्यः स्फुरहेदान्तवाबयत: विज्ञाय तत्त्वं घ्रुच्पेत ऋजुप्रायपथस्त्ववम्‌ ६३ ॥॥ ५... महपि पतज्णलि श्रोक्त योग प्रायः सैश्वर सांस्य मतके बरावर ही है। क्लेशकर्मविपाकआगयोंसे असंस्पृष्ट परृश्यविशेषकों ही थोगने ईश्वर बताया है। ईश्वर प्रणिधानसे पुण्य सम्पादन कर समाधिस्थ होता हुआ योगी तत्वको शीघ्र जानकर परशिवको प्राप्त होता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और सविकल्पक समाधिरुपी आठ योगाज्रोंका अनुष्ठानकर योगी तिविकल्पक समाधिमे प्रवेश करता है। किच्ित वासनायुक्त होनेसे वहाँ श्रायः शुद्ध महेश्वरकों ही देखता है। घर्ममेघ सम्राधि लगनेपर उसके महापुण्यसे उसको बेदान्तवाक्योंकी स्फुरणा हो जाती है. ( स्वतः या ग्रुढ्से ) | उससे परमतत्त्वदर्शन कर बह मुक्त होता है। यह मार्ग प्रायः ऋजु है। प्रायः इसलिये कहते है कि जगत्तत्यत्व वासना हुँ बाव्यसे उसके वाधनमें 80४४4] है। अतएवं निर्विकल्पक समाधिमे त्रिपुटीरहित चूतर पर वह प्रायः क्योकि लगरलरववासमा उपकहित है ५९-६३ ॥। दे 7 ही है। पशुपतिमर्त भरत पाशुपतं साम पदायथस्तित्र खल्विमे। कार्य च्‌ कारणंयोगो विधिद्ठ:घान्त एवं च॥ ६४॥ जडजीबवी मवेत्कार्यी कारण तु महेश्वरः॥ जीवस्पेश्वरसंपोगो योगों मपत्यादयों विधिः॥ ६५ अज्ञानाधधमंशक्तीनां नाशों दुःखान्त ईरित:। तदा पशुत्वहानिश्वशिवाद्र तस्यितिस्तथा ६६ पशुपतिमतम कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त ये पाँच पदार्थ हैं। जड जगव्‌ और जीव कार्य हैं। कारण शिव है। जीवेश्वरसंयोग ही योग है भक्ति आदि विधि है। अनान, अधर्म भोर आसक्ति इनका नाश दुःसान्‍्त हैं। तब पशुत्वहानि और शिवाद्वैत होता है ६४-६६ पराशवन्तो हि. पशवः पाशः पश्वविधो भवेत्‌ सले फर्म थे माया चर रोधर्शाक्तः सबिखुफा॥ ६७ पशुका पाग्यद्ध अर्थ है। मछ, कर्मे, माया, रोधगक्ति औरविस्दु ये पाँच पाश है॥ ६७॥ है मसलमावरणं श्रोक्त॑ कर्म पर्मादिलक्षणम्‌ शक्ति: कलादिछुन्माया ही त्वस्ते शियंगे मते ६८॥॥

८१२ क्री शिवमहिम्नः स्तोवम्‌ [ सप्तमः

रोधशक्तिस्तिरोधान॑.. बिल्दु्विद्येश्दरादिकः ऊध्वंगे पातमयतो विद्धन्तः पाश ईीरितः॥ ६९॥

उनमें ज्ञान शक्ति ओर क्रिया शक्तिका आवरण ही मल हू, धर्म अधम थे दो करे हैं कछा आदि की कर्मी झक्ति माया है। अन्तिम दों शिवगत हैं। तिरोधान रोधशक्ति हूँ | विद्येश्वर आदि विन्दु हैं।! वे -ऊपर गये हुए हैं। अतएवं पतनभय होने से पाशरूप हैं ६८-६९ ॥॥ ' चाता पशुनां फर्मादिफलदाता महेश्वरः स्वतन्धः परमानन्दचितिः पशुपतिः स्पृत्तः ७०

पशुओंका ( जीवोंका ) रक्षक पति कर्मफलदाता स्वृतन्त्र परमानन्द

घचैतन्यरूप महेश्वर ही पशुपति है ॥॥७०॥

विद्यां क्षियां योगं चर्यां चेति चतुष्टयोम्‌

माणितान्‌ पाति जीवानू ततः पशुपतिमंतः ७१॥

विद्या मन्त्रादिविज्ञानं, शिवताक्षात्कृतिस्तथा

साज्भपूजादिकविधिः क्रिया विद्याप्रयोजिका ७२

प्राणायासादयो योगाः क्तियासिश्विप्रपोजकाः।

चर्या विधिनिषघनुवृत्तिः पूर्वन्नयोपकृत्‌ ७३

एतंश्व साधनैयु क्तो मिथ्याज्नानादिक फ्रमातु॥

तीर्ता पाशांश्र संछिदय शिवत्वं॑ प्रतिपय्यते ७४

विद्या , क्रिया, योग और चर्या इन चारों को अपनाने वाले जीवपशु

को रक्षा करने से पशुपति हे इनमें मंत्रादिज्ञान और शिवसाक्षात्कार दोनों धिद्या हूँ विद्याका हेतु साज्भपूजाविधि क्रिया हैं.। उप्त क्रिया की सिद्धिमें हेतु प्राणायामादि योग है। विद्या, क्रिया, योग इन तीनोंकी उपकारिणी विधिनिषेधानुवर्तिता ( विहितकरण और निपिद्धत्याग ) चर्या है इन साधनोंसे यूक्त पुरुष मिथ्याज्ञानादिको३क्रमेण पारकर, पाशोंको भी छेदकर शिवभावको प्राप्त होता है ॥। ७१-७४ ॥॥

भेदवर्शनयुक्तत्वादिद. पाशुपत॑ सतम्‌

न॒सोक्षसाथन साक्षाइजुर्नेंषा स्मृतिस्ततः॥ ७५॥

नात्यन्तकुडिलाप्यन्ते... शिवेकयप्रतिपादनात्‌

शतो. निशु णविद्येव मध्यमार्गत्मक मवेत्‌ ॥| ७६

शिवदीक्षां गृहीत्वता च. पश्माक्षरपरायण:

शिवकारण्यमाप्नोतोस्पेतद्व शेष्यमत्र तु॥७७॥

अोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ८१

दीयते ज्ञानसद्भावः श्षीयते पशुमावना। दानक्षपणर्सयोगाहोक्षेति 'विनियद्यते ७८

इस पाशुफ्तमतमें भी भेददर्शन रहता है अतः यह साक्षात्‌ मौक्षसाधन नहीं है अत्एवं ऋजुमार्ग नही है। और अत्यन्त कुटिल भी नही है। क्योंकि अन्तमें शिवैक्यका प्रतिपादन किया है अतः निर्मुणोपासनाके समान मध्यम मार्ग है। निर्गुणोपासनासे इसमें विशेषता यह है कि शिवदीक्षा छेकर पद्चा- क्षर जप करते रहने से शिवक्षपा प्राप्त होती है। दी” माने ज्ञाव दिया जाना और 'क्षा” माने पशुभावका क्षयकरना इन दोनोंके योगसे दीक्षा शब्द बना है ७५-७८

वेष्णवरम्‌ सगवद्विष्णुभक्तानां. मत॑ वंष्णवमुच्यते। तच्च मानाविध॑ लोकफे नानासिद्धान्तहेतुतः॥ ७९ विशिष्ठाइतितः केचिद्‌ द्वेत्ताइंतपराः परे। शुद्धाद्ेतपराश्वन्ये. तयान्ये. द्वेतवादिनः ८०

+ भगवान विष्णुके भक्तोंका मत वैष्णव कहलाता है। सिद्धान्त- भेदसे वह नानाविध है। कोई विश्विप्टाद्रेत मानता है, कोई द्वैताद्त कोई शुद्धाहत मानता है और कोई द्वैद ही मानता है ७९-८० ॥॥

शिवबिह् पिण: प्रायः सांप्रतं बेष्णवा भुवि। नेंवोद्धार: कथमपि तेपां संभाविता ववचित्‌ ८१॥ तथापि शिवभक्तो हि महाविष्णुः कृपानिधिः। समुद्धन्तु प्रयतते स्वानभीष्टानपीहशान्‌ ८२ बहुजन्मोत्तरं तेषपि.. भगवद्धिष्णुयलतः शिवद्वेंप॑ परित्यज्य गच्छेयु. परम पदम्‌ ८३ आजकल अधिकतर वैष्णव शिवद्वेपी होते हैं। उनका से भी उद्धार संभावनीय नहीं है तथापि उनके उपास्य महान्‌ विष्णु स्वयं शिवभक्त हैं और दयालु भी हैं वे अपने अनभीष्ट भी ऐसे शिवद्वेषियोंकों गलेपादुकान्यायसे अपनाकर उद्धार करनेका प्रयत्व करते हैं। भगवान विष्णुके अथाह प्रयत्नके परिणाम हजारो जन्मोंके बाद वे क्ंचित्‌ भरिवद्वेप छोड़कर परमपद शायद प्राप्त कर रे ऐसी संभावनासे भी इनकार नहीं जा सकता ८१-८३ है पु

<४ श्री शिंवमहिम्नः स्तोश्रस्‌ [ सप्तम:

अधिवद्देधिणो यें घु वेष्णयाः शेमुपोजुपः। सत्त्वशुद्धिरमेणते. शिव परममाप्तुयुधत ८४॥॥

जो शिवह्वेपी नहीं हैं ऐसे कुछ समझदार वैष्णव हैं। वे अन्तः* करण शुद्धि क्मसे अन्तमें परमशिवपद प्राप्त करते है ८४॥. संक्षेपाहरयामोधत्र॒यत्किंचिद् प्णयं मतम्‌ घोघायनादिभिः प्रोफ्त॑ समवजूक्तिसिउये ८५7 घासुदेव: परे ब्रह्म. कल्पाणग्रुणसंयुतः भूवनानामुपादान॑ कर्ता जोवनियामकः ८६ ॥॥ अन्तर्यामिशुतेजों व्रपन्चो तत्कलेवरम्‌ | स्‌ चार्चाधिभवव्यूहसुक्ष्मान्तर्या मिमिदमाकू._॥ ८७ ॥६ अवतार: सर्वार्थ प्रतिमादिः छुपानिधेः। रामादयस्तु विभवावतारा ध्यानयोग्रिनाम्‌ ८८ ॥# संफर्षणो. बायुवेवात्मशुस्तोइतो४निरुद्धकः

. व्यूहश्नतुविधः पुजामण्डले तस्प सिद्धिदा:॥ ८९ संपर्णघड्गुणं सुक््ममुपास्थं ब्रह्म तद्धुदि | घततोहधिकारी भवत्ति ह्मयन्तर्यामिणमीक्षितुम्‌ ९०१ तस्य पत्चविधोपास्तिस्तन्नामिगमन॑ तथा। जपादान सथैवेज्या स्वाध्यायो योग एवं च॥ ९१ ॥१ संमार्जनोपलेपादिः पूजा. संभारसंभृतिः देवपुजाजपादिश्व क्रोशध्यानं च॑ ताः क़म्तात्‌ ९२ ॥। एतसेस्पासिते विष्णो सत्वशुद्धि्भवेश्ुणास्‌ ज्ञाम तत्कृपया लब्ध्वा ते गच्छान्ति शिव परम्‌॥ ९३ !।

संक्षेपसे कुछ वेष्णवसिद्धान्त हम दिखाते है जिसे बोधायनादि ऋषियोंने भक्तिसिध्यर्थ बताया | कल्माणगुणगणसम्पन्न परत्रह्म वासुदेव झुवनों के उपादान तथा कर्ता एवं णीवतवियामक हैं अन्तर्यामी श्रूतिके अनुसार जीव और जगत वासुदेवका शरीर हैं। वह आर्चा, विभव, व्यूह, सूम तथा अन्तर्यामीरुपसे पत्चधा स्थित है। अज्ञानीको भी सिद्धि देनेवाला अर्चावतार है ध्यानादिनिमित्त रामक्ृष्णादि विभवावतार है। वासुदेव, संकर्पण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध ये चार व्यूहू है जितकी मण्डलमें पूजा होतो है। पड्गुणसपन्न हृदयमे उपास्य ब्रह्म सूक्ष्म है। ध्यान पूजा आदि करने से अन्तर्यामिदर्शनयोग्यता होती है। मन्दिरमा्जेनादि अभि- गमन, पूजासमग्री सपादनरूपी उपादान, देवपुजादिरूपी इज्या, जपादिखप

ब्लोकः ] स्पन्दवातिकसहितध प्‌

स्वाध्याय, हरिध्यानरूपी योग ये पांच उपासनाप्रकार हैं इनसे उपासित यासुदेव अन्तःकरणशुद्धि होनेपर ज्ञान प्रदान करते है। और वे मनुष्य क्रमशः परमशिवपदको प्राप्त होते हैं ८५-९३ ॥|

सोक्षस्तृपास्तिक्मंश्यां. देवदर्शनतो . मवेत्‌

इति बोघायनायुक्तः पन्‍्या तावत्‌ प्रदर्शितः॥ ९४॥

अन्‍्ये हु प्रेममश्त्येय भगवत्माप्तिरिप्यते

भक्त्या त्वनन्यया लम्य इत्यादिस्मृतिदर्शनात्‌॥ ९५

साथ्या भक्तिरियं प्रोक्ता परमप्रेमलक्षणा।

साथ नवधामक्तिबहुधा.. रवचिदोरिता ९६

श्रवर्ण कोतंव ब्रिष्णोः स्मरण परादसेवनम्‌।

अर्धन चद्ध्न दास्थ॑ पसत्यमरात्मनिवेदनम्‌ ६७

महत्तैवादिक चान्ये योजपित्वा मनीषिणः।

तामेकारशधा. प्रहुन्यु नाधिकतपापि ची॥। $८॥॥

पाशारात्रादितन्त्रेषु पूजाविधिददीरितः

हँतादतादिक तत्र दर्शनेष्‌ु_, विभिद्यते ॥॥ ९९

बोधायनादि मतानुमार उपासनादिसहित कर्म से देवदर्शन होनेपर मोक्ष माना गया है। दूसरे छोग प्रेमछक्षणा भक्तिसे भगवत्प्राप्ति मानते हैं। “भवत्या त्वनन्यया लभ्य इसी गीतावचनसे उसका समर्थन होता है। प्रमभक्ति साध्यभक्ति है। साधन नवधा भक्ति है। प्रकारान्तर भी है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन. अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन यह नवधा भक्ति है। महापुरुपसतेवादिकों जोडकर कोई एकादशधा भक्ति कहते हैं। स्यून जौर अधिकरूपसे साधनभक्ति तत्रतत्र प्रदिषादित हुई है पाइरात्रागमादिमें जो पुजाविधि आदि बतायी उसमें विशेष मतभेद नही है। द्वताईंतादि दर्शनभेद अवश्य है ९४-९९ इति

इतिंशब्दः भ्रकारार्य तेनास्य्पोँ संग्रहः।

वैशेषिकाश्व शाक्ताश्य. गाणपत्यादयरतया १०० ॥।

द्रव्यादितत्त्वविज्ञानान्मोर्त्त वैशेषिका जगुः।

श्रीविधोपासना दिम्यो भोक्क शाक्‍्ताः प्रचण्यिरे ॥| १०१

गाणपत्यादयश्व व॑ चित्तशुद्धिकरं पबचित्‌

ववचिद्वियेकादिकर शिर्द प्रापपक्ति क्रमात॥ १०२४७ ॥२३« हू

<६ श्री शिवमहिम्सः स्तोभग्‌ [सप्तमः

वेणाबमिति यहां इति दाब्द प्रकारार्थमें है। इस प्रकारके अन्य मत-वैशेषिक, शाक्त, गाणपत्पादि भी ग्राह्य हैं। द्रव्यगुणकर्मादितत्त्वज्ञानसे वश्षेपिक मोक्ष मानते है। श्रीविद्योपासना प्रभृतिसे शाक्त मोक्ष मानते है ऐसे ही गाणपत्यादि मत भी है। ये सब कहीं चित्तशुद्धिमें और कहीं विवेकादिमें उपयोगी है और विवेकादि क्रमसे अन्तमें शिवपदको प्राप्त कराते हैं ॥००-१०२ अतज्राचायंवराः शोसन्मघुसूदनयो गिनः झष्टादश भ्योविद्याप्रस्यानानीति संजगुः॥ १०३ चेदा ऋणगाश्याश्रत्यारः षडड्भज्योतिषान्तिनेः शिक्षाकल्पव्याकरण निय्वतच्छन्द जाह्रगैः १०४ पुराणन्यायमौमांसाधमंशास्त्रे्पाड् की | गन्धर्वासुधनुर्वेदार्य शास्त्र: सहितास्तया १०५ ॥॥ भोसांसायां हि वेदान्तो न्‍्याये गैशेषिकं तथा। साँख्य योगः पाशुपतं शैष्णर्व भारतं॑ तथा॥१०६॥। रामायणादिक॑ धघर्मज्ञास्त्रेष्वल्तभंवन्ति हिं। प्रस्थानभेदबोधार्थ सांज्यादोह्‌ पृथय्‌ जयो॥ १०७ ॥॥ इस इलोककी व्याख्यामें आचार्यप्रवर मधुसुदन सरस्वतीने तश्रवीपदसे तदन्तगेंत अठारह्‌ विद्यात्रस्थानोंकी विवक्षा होनेसे यहां परि- गणनामें न्यूनता नही है, ऐसा वताया है। चार बेद, छः अंग, चार उपांग और चार उपवेद मिल्गकर अठारह विद्यात्रस्थान होते है। ऋहग्वेद, सजुर्वेद, सामयेद, अथर्व॑वेद ये चार बेद हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त' छन्द और ज्योतिष ये छः अंग है पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र ये चार उपांय है) भायुर्वेद, गन्धर्ववेद, धमुर्वेद, अर्थेशास्त्र ये चार उपबेद हैं मीमांसामें ही वेदान्तका अन्तर्भाव है। न्यायमे वैशेषिक और घर्में- शास्त्र में सांख्य, योग, पाशुपत, वेष्णव, महाभारत, रामायणादि जन्तभूंत होते है। ऐसी स्थितिमें मूलमें त्रयीसे गतार्थ होमेसे साख्ययोगादि पृथक क्यों कहा यह प्रश्न होगा। उत्तर है--उनके उपादानसे ही तो अस्थान- भेदका बोध होता है १०३-१०७ झन्नेदे चित्पते नास्ति सकलास्तिकसंमते।॥ शिक्षाकल्पादिके काचित्पव्यापस्यवितच्चारणा ॥॥ १०८॥ दिवादास्पदमेवात:. पशथ्य्रापथध्यविकल्पितम्‌ अमिषित्सितमत्रास्ति पुष्पदन्तेन योगिना १०९

खोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ८७

तस्माहेदत्रयोक्तार्थ: कर्म वा ब्रद्म वा स्फुम्‌।

शिक्षाकल्पादिमिर्नातुपर्याप्तुमपि शक्‍यते ११०

इत्यतस्ते विनिदिष्ठा.. बालब्युत्पत्तिहेतवे

तदुक्त तेहि बालावां य्युत्पत्तय इति स्वयम्‌ १११॥

मोमांसद्रयमेवातस्त्रयी शब्दविवक्षितम्‌

शाकतादिक॑ त्वितिपदसंप्राह्ममिति युज्यते ११९॥

मधुसूदनी टीकापर कुछ विचार करना आवश्यक हो गया है। वेद एव शिक्षाकल्पादिकी सर्व आस्तिकोंने ऐकमत्येन माना है वहां पथ्य-अपध्य विचार है नही। तव “परमिदमदः पथ्यमिति च” यह पश्क्ति कैसे लगेगी ? अतः इलोकमे विवादास्पद मतविशेष ही जो पथ्य अपथ्यसे विकल्पित है, पुण्पदन्त योगीके विवक्षित हैं अतः त्रयीपदका मीमांसाद्वय ही अथे है (वह भी कर्म ज्ञानका उपकारी है मानकर अन्यथा कर्मकाण्डी और ज्ञानकाण्डी दोनोमें भी मतभेद है। कर्मकाण्डी कर्मसे मोक्ष मानता है, श्रेष्ठ मानता है। ज्ञानकाण्डी सकाम कर्मको अपथ्य कहकर ज्ञानसे ही मोक्ष मानता है) साख्ययोगादिमे पथ्यापथ्यविवाद तो लोकप्रसिद्ध द्वी है। विवादास्पद झाक्त एवं नैयायिकादिमतकों मुलगत इतिपदसे संगृहीत करना चाहिये, यह हम पहले ही बता आये हैं तब आचार्य मधुसूदन सरस्वतीका प्रस्थानभेदवर्णनके प्रयासका तात्पर्य इतना ही समझना चाहिए कि नयी पदार्थ कर्म या ब्रह्म सम्यक्‌ तभी जाने जा सकते हैं और कर्मेविशेपानुप्ठान तभी संभेव है जब शिक्षाकल्पादि प्रस्थानोंका भी वध्ययन हो। अर्थात्‌ एक प्रकारसे ज्रयीपदार्थोपापादनोपयोगी होनेसे बालकोंकी व्युत्पत्तिके लिये भेदप्रदर्शन है स्वय मधुसूदन मरस्वतीने भा वीचमें “बालव्युत्पत्त्यर्थ मैं वर्णन करता हूँ ऐसा बताया है १०८-११२॥ अ्भिन्ने प्रस्थाने

भ्रस्थोगते यदेतेन परमार्थपरायण:ः

प्रस्थान मार्ग इत्येततु प्रमिन्नः शास्त्रलक्षणः॥ ११३ ॥।

शास्त्रभेदश्व॒ शास्त्रार्यमेदादेव_ भवेदतः

बुध: शास्त्रो दितार्थोडपि प्रस्थानमिति कब्यते ११४ ॥।

परमार्थपरायण पुरुष लक्ष्यकी ओर जिससे प्रस्थान करते हैं वही

प्रस्थान है। अर्थात्‌ झ्ास्त्ररूपी पराम्यंभार्ग ही प्रस्थान दब्दका दार्थ है। शास्त्रभेद प्रतिपाद्य अर्थ के भेद से माना जाता है। अतएव श्वास्त्रोत्त अर्थ भी प्रस्थान ही कहा जाता है॥ ११३-११९४

<डट श्री शिवमहिम्नः स्तोश्रम्‌ [ सप्तम -

फर्लेक्येध्प्येव विषयमभेदातृप्रस्थानमेदिता «.. भ्रस्थानयोर्यायवेशेषिफपोहि, यथा सिदा॥ ११५३

विपयेषयेर्धपि तन्माग भेदात्प्रस्थानमेविता | प्रस्यानभेदों भामत्या यथा विवरणत््य थ॑ं॥ ११६॥॥

फल एक होनेपर भी विपयभेदसे प्रस्थान भिन्न होता है। जैसे न्याय और. वैद्येपिकर्में दु खध्वंसरूप मोक्षफल सम होनेपर भी प्रतिपाथ- विपयभेदसे प्रस्थानभेद हुआ। विषय एक होनेपर भी मार्ग भिन्न होनेपर प्रस्थानभेद होता है जैसे ब्रह्मात्मंवय विषय एक होनेपर भी भागमतीप्रस्थान और विवरणप्रस्थान पृथक है १९५-११६॥।

परमिदमदः पश्यम्‌

सेनिरे. मार्गमेगेके. गस्तव्यस्थानमात्मनः ४2 - दी्घेयात्रारता थाप्पयानादि गृहवद्यया ११७ विश्वामस्थानभुर्ता ये घर्मशालां स्वम॒न्दिरम्‌। ; सन्वोरंस्तहि से मन्दाः फर्थ स्वगृहमान्लुयुः ११८ ब्रह्मलोको४पि सार्गो वा विश्वामस्थानमेव वा झनन्तरं त॒ गन्तव्य॑ परम पदमुच्यत्े ११९॥ अ्रह्मणा सह ते सर्च संप्राप्ते प्रतिसंचरे। परस्यान्ते कछुतात्मान: प्रविशन्ति परं पदम्‌॥ १२० बह्ालोकप्रभेदा हिं भ्रेकुण्ठाद्य उदोरिता:।॥ चतंग्ते सर्व एवेते सौवर्ण मेरुपवंते॥ १२१॥॥ अन्ये तु ब्रह्मलोक॑ हिं सेकुण्ठ ग्रेष्णवा जयुः। कंलास शेवमार्गाश्य त्येव.. सप्रतिपेदिरे ॥| १९२ ।। सर्वथा मार्ग एवाय वैक्ुण्ठादिकृमिष्यते गम्यस्थानं पर जज्ञ: सम्यद नो दौष्णयादयः॥ १२३ हत: स्वं स्व मतं धूत्वा प्राहुत्ते मन्‍्मतं॑ परम मन्मते पशथ्यमित्येव॑ बादिनो भेदद्शिनः॥ १२४॥ केवछ मार्गभेद है तो पथ्यापथ्य विवाद क्यो है? सो सुनिये। बहुतसे लोग मार्गको हो गस्तव्यस्थान समझ बैठे हैं। जैसे गाडीमे मासया- आदि हो तो घीरे-धोरे गाडीको ही घर समझने लगते हैं और विश्वामस्थान घर्मशालाकों ही घर मानने लग जाते हैं. तो ऐसे मन्दमति अपना घर कैसे पहुंढेंगे ? ब्रह्मलोक भी मार्ग या विश्वामस्थानमात्र है। गन्तव्यस्थाव तो परमपद ही है मतएव कल्पान्तमें ब्रह्मके साथ परमपदमें प्रवेश करते

आऔोकः ] - स्पन्दवातिकसहितम ८९

हैं। ऐसा शास्त्वाक्य है। वैकुण्ठ, कैछास ये सभी ब्रह्मलोकके ही भेद हैं सब सुवर्णेमय सुमेरुपवेतपर स्थित हैं ऐसा कुछलोग मानते हैं। दूसरोंका कहना है कि पचश्चाम्युपासकादि उसीको ब्रह्मलकों समझते हैं तथा वैष्णव विष्णुलोक एवं शैव कैलासलोक समझते हैं। छोक एक ही है, भावशेदमात्र है। सर्वेथा ये वैक्रुण्ठादि मार्म ही हैं। गम्यस्थान परक्षिव- पदको ये वैष्णव शैयादि बराबर नहीं समझते। अतः अपना-अपना मत छेकर मेरा मत श्रेष्ठ है, मेरा मत वास्तविक है, इत्यादि झगड़ा करते हैं। क्योकि वस्तुतः ये सभी भेददर्शी जो ठहरे ११७-१२४॥ मिन्नत्वाच्च परिच्दिन्ता उपास्यास्ता हि देवताः 3 अनीश्वरास्ताश्वच नेब भुवनोद्भावनक्षमाः १२५॥॥ अनीशो वा कर्य कुर्मादित्येयमत एवं च। भेदवादिमतोपास्थ देवताधऋ्रप्ट्तोदिता १२६॥ थे सब प्रभिन्न प्रस्थान हैं। विष्णु आदि भी भिन्न-भिन्न सबके उपास्य हैं अतएव परिच्छिन्न होनेसे वे अनीश्वर हैं, भुवनसृष्टिमें अक्षम है इसीलिये पूर्वश्लोकमें द्वैतववादी आस्तिकमतोंको लेकर ही “अनीशो वा कुर्याद शुवतजनने” इत्यादिसे इन सबकी खप्टताका प्रतिक्षेप किया १२५-१२६॥ अनादर्शममर्भाद॑ फ्रृष्णं॑._ रामातुयायिनः अल्पशक्तपसप्पुर्णणाहु राम॑ कारप्णयः॥ १२७७ !. भेदवर्शिन एवं ये तदुपास्या: स्वकल्पिताः! अल्पाः कय्य भवस्तीशा अनीशा एवं ते ततः॥ १२८॥ रामभक्त कहते हैं-श्रीकृष्ण आदर्शरहित हैं, मर्यादारहित हैं! ृष्णभक्त कहते हैं--राम अल्पशक्तिमान है, अपरिपुर्ण है। इन भेदद्शियोके उपास्य उन्हीके कल्पित परिच्छिन्न देवता हैं। वे कैसे ईश हो सकते हैं अतएव वे बनीश ही हैं।॥ १२७-१२८॥

रुचीनां ननु तत्तत्पुराणेधु॒ तथा वर्णनदर्शनात्‌ | कयमेतन्मस सर्वमल्परमित्यमिघीयते १२९ ॥।

अन्ये त्वंशकलाः प्रु सः कृष्णरतु सगवात्‌ स्वयम्‌ इत्यादिक हिं. यधने तम्र तत्र_ विलोक्यते १२०॥ शका :--भिन्न-भिन्न पुराणोमें व्यासजीने वैसा वर्णव किया है अतः इनके मतोंकों आप अल्प कंसे कहते हैं ? उदाहरणार्थ भागवतमे

१७० श्री शिवमहिस्नः स्तोचम्‌ [ सप्तम:

कहा-रामादि अंशकछा है, कृष्ण पूर्णभगवान है। ( ऐसे ही शिव, विष्णु, आदिके विपयमें भी कथन है। ) १२९-१३० * उच्यते रुचिवेचित्र्यात्तया व्यासेन बणितमू) _ यतो. भिन्नरचिह्ंद लोक इत्येतदीदयते ॥-१३१ सर्यादादचयों राम वात्सल्यरुचयो$म्बिकाम्‌। लीलामिद्चय: क्ृष्णं समाधिरुचयो हरम्‌ १३१२ ॥॥ भजन्तु मक्‍त्या सिद्धच्य॑ तेषां पवाप्पन्यनिन्दनम्‌ निन्‍दा निन्दितु किन्तु विधेयं स्तोछुमुच्यते १३३॥॥ समाधान ':“-छोगोंकी रुचि भिन्न होनेसे व्यासजीने वैसा वर्णन किया। 'छोग . भिन्‍न रुचि वाले होते हैं। मर्यादा रुचिवाले रामवा, वात्सल्य रुचिवाले अम्बाका, लीछारुचिवाले कृष्णा, समाधिरुचिवाले शंकरका भक्तिसे भजन करे उनकी सिद्धिके लिये कही अन्यको निन्‍्दा है + वह निन्दार्भ नही, किन्तु विधेय स्तुत्यर्थ है १३१-१३३ ॥। कला- विज्ञान - गणित प्रभृुतो हि यथारुत्ति प्रवर्तमानाः साफल्‍ये लमन्ते तद्वदत्न च॥ प३े४॥ जैसे छात्र अपनी झचिवो अनुसार' कला, विज्ञान, गणित आदि विपय लेते हैँ तो सफल होते हैं वही वात यहा भी है १३४ विधाय भेद हेप॑ चर शिष्पवित्तापहारकाः। युष्म्रवोी जडघधियों जगन्मोहाय युज्जते १२५ अध्टादशपुराणानि निर्ममी बादरायणः॥ प्रामाणिफानिसर्वाण किचिप्तानथेक भवेत्‌॥॥ १३६ परस्पर भेद डालकर द्वेंप करामेवाल़े शिष्पवित्तापहारक गुरुपद- वीधारी विषयपरायण छोग ही जगतको मोहमें डालते हैं। भगवान चादरा- घणने जो अठारह तुराण बनाये सभी प्रामाणिक है। उनमेंसे कोई-कोई पुराण अप्रमाण है ऐसा कहना घृष्टतामात्र है॥ १३५-१३६॥ मया तथापि था विष्णुशिवादोनामुपासनम्‌ पन्यवाजासिलस्थेव घुत्रनारायणाक्लपः १३७ जैसे तैसे विप्णु शिवादिकी उपासना भी मार्ग ही है। जंसे अजामिछका स्वपुत्र नारायण को बुछाना भी उपासना हुआ १३७ भेंदद्व धादिजात्‌ पापान्मा सम भूवप्निमेश्धियः। इविष्ठा भगवजूणवादित्यतर्तन्निरस्पते .१३८

झ्लोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ९्पः

भेद एवं द्वेपादिसे भगद्भावसे अत्यन्त दूर हो एतदर्थे इस भेदभावादिका हम निरास कर रहे हैं १३८ ऋजु० ऋतजवः के5पि पन्थानः पन्यानः कुठिलाः परे नानापयजुपो लोका यथारुचि ययाम्नति॥ १३९ कोई मार्ग सीधा है। कोई ठेढ़ा है। अपनी समझ एवं रुचिके अनुसार लोग नातामार्गसेवी होते हैं ॥॥ १३९ शण्वन्ति मन्वते नित्य ध्यायन्त्यपि परं शिवम्‌। नित्यं.. विज्ञानमानन्दमृजुमागरतास्तु तैत १४० नित्य विज्ञान आनन्दस्वरूप परम शिवका श्रवण, मनन, निदि- ध्यासन णो करते है वे ऋजुमार्गगामी हैं !! १४० सतो विविदिषार्थ ये निष्कामं कर्म कुर्वते। देवानुपासतते बापि ते चजुपयरामितः॥ १४१॥ “विविदिपन्ति यज्ञेन” के अनुसार जो निष्काम कर्म करते है और विविदिपार्थ ही देवोपासना करते है वे भी ऋजुमागंगामी है ॥॥ १४१ रामकृष्णशिवाम्वादिस्पमा थित्य भेदतः मताग्रहा भजन्ते ये कुटिलाध्वायनाश्व ते॥ १४२॥ न्यायसांख्या दिसिद्धान्तमाथित्येव. भजन्ति ये। नित्यमेव भवन्त्येते कुटिलाघ्चपरायणाः १४३ राम, कृष्ण, शिव, अम्बा आदिका आश्रयणकर भेदव॒द्धिसे मताग्रह रखकर जो भजन करते हैं वे कुटिलपथगाभी हैं वे ही मतताग्रह्म॒दि छोड़ें तो पूर्वोक्तरीत्या ऋजुमार्गी होगे न्याय, साख्य आदि सिद्धान्तकों आश्रयणकर जो भजन करते है वे तो नित्य कुटिलमागंगामी है। अयात्‌ कुछ छीड़नेपर ये भी ऋजुगामी हो ऐसी बात नही १४२-१४३ नम्रु चर्जू परित्यज्य कुतः कुटिलमाथयेत्‌ श्रवणादिपरः कस्मादु सर्व ईशस्य नेति चेत्‌॥ १४४ उच्तते पर्वतारोहे छुटिला रोचते सूतिः॥ पातित्यशड्ा भवत्ति #ऋणजूष्यंपमने सति १४५॥ बलेशो5पघिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तदेततामू._॥ अव्यक्ता हिं गतिदु्स देहयड्धिरवाप्पते १४६ #

नर श्री शिवमहिम्नः स्तोचरम्‌ [सप्तम

सकाम प्रथम कृत्वा कर्म सहासनः पुमान्‌। निष्कामभावमासाद्य प्राप्छुयात्‌ परम पदम्‌॥ १४७॥॥ शड्भा :--सीधा मार्ग छोड़कर लोग टेढे मार्गमें जाते क्‍यों है ? सभी श्रवणमननादि क्‍यों नही करते ? उत्तर--पर्वेतपर चढनेवाले ढेढें मार्गको ही पसन्द करते हैं। सीधे चढेंगे तो आदमी गिर भी सकते हैं। अतएव गौतामें निर्गणममागंको अधिक क्लेशकारी वताया। भोगवासना भरी है तो पहले सकाम ही कर्म करो। उससे भी सद्दासना होगी। पश्चात्‌ 'निप्काम- “भाव प्राप्त कर क्रमश: परमपद पा सकेगे १४४-१४७ नृणास ४!

' सर्वेपां नृणामेको ग्रम्योपतते परमः शिवः। अनोशोपासनाप्पेव. क्रमात्हाहनी. भबेत्‌ १४८ 0 ग्रामाधिपत्यं प्रथम कामितं॑ प्राप्प सानवः। विरज्यति सतोड्तुप्टो राज्य कामयते घृशम्‌॥ १४% पे तल्प्रप्यापि.. ततोष्तुष्ठश्यक्नव्तित्वमीप्सति परिच्छिन्ते मरः क्वापि संतुष्पति नवस्तुनि॥ १५० वैकुण्ठादिकमध्येब॑ प्राप्य भर्त्यों तुष्यति। अपरिच्छिप्नसंप्रेप्पा सर्वेदामन्ततोी भवेत्‌ १५१ तत्न शकृपया पुण्पवलादा .प्रागुदीरितातू जायते ब्रह्मजिज्ञासा गच्छन्त्पन्ते वरं शिवमु॥ १५२॥7

सभी त्र॒यी सादिके अनुगामी मनुष्योका अन्तमें गन्तव्य एक परेमेश्वर

ही है। अनीक्ष की उपासना भो वहाँ ले जामेवाली है। कैसे ले जायेगी यह देखो--साधारण मनुप्य ग्रामपत्ति जमीदार बनना चाहता है। पर ग्राम मिलनेपर उसमे सम्तोष नहीं होता। उसे राज्यकी दच्छा होती है, ग्रामसे विरक्ति होती है। राज्य मिलनेपर चक्रवतित्वकी इच्छा होती है परि- डिछत्तमें कभी भी मनुप्यको सन्‍्तोप नहीं होता, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है। वैसे वैकुण्ठादि मिलनेपर भी सनन्‍्तोष नही होगा 7004 भी ऊँच-नीच भाव है। अपरिच्छिन्नकी ही अन्ततः इच्छा होगी विशेषता यही कि आस्तिकोंपर भगवत्हपा हो जाती है या उनका पुण्य प्रवल होता है तो अपरिच्छिम्त- प्राप्तिहेतु ग्रह्मजिगासा हो जाती है। उमसे फिर अन्नम परमशिवपदप्राप्ति होती है १४८-१५२

ज्लोकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ९३

पयत्तामरणंव इंच

गड्जा था यमुना घापि भ्रह्मपुत्राध्यया परा। पारम्पर्येण साक्षाद्वा ग्रजत्येव महाणंदस्‌ १५३ चाहे गद्भा हो, चाहे यमुना, चाहें ब्रह्मपुत्ना हो या और कोई हो परम्परया या साक्षात्‌ सागरमें ही पहुँच जाती है। गज्भा सीधी सागरमें' जाती है। यमुना गरद्भामें मिलकर। ब्रह्मपुत्रा सारे हिमालयकी परि- क्रमाकर १५३ ॥। गते पतित्वा यदि था शुप्येत्तोयं कदाचन। पुर््वाष्पः पुनस्तोय॑ भूत्वान्ते याति सागरम्‌ थे १५४॥ कदाचित्‌ पानी ग्रड़ढेमें पड़ा और सूख गमा तो भी भाप वनकर/ फिर पानी धनकर अन्तमें सागर पहुंच ही जायेगा १५४ सांस्यवेष्णव्शेवाद्येस्त्रमीमार्गपरेरपि पारम्पयंण साक्षाद्वा गम्यं बन्दे महेश्वरम्‌ १५५॥ पयसामर्णव इव गरतिदेंव त्वमेव मे पाहि मां परमेशान सनन्‍्ततं ते नमो नमः॥ १५६॥ सांख्य, वैष्णव एवं दौवादिके तथा वेदवेदान्तमार्गस चलनेवालोंके परम्परया या साक्षात्‌ गन्तव्य महेश्वरकी मैं वन्‍्दना करता हूँ हे भगवन्‌, पानीके लिये परमगति-आधार समुद्र है। वैसे मेरी गति आप ही हैं। मेरी रक्षा करो सदा मैं आपको वारम्बार प्रणाम करता है १५५-१५६ इति श्री फाशिकानन्दयोगिन: कृतिन: कृतो। सहिस्नः स्तोन्रविवृतों भतः स्पत्दस्तु सप्तमः॥ ७॥।

2०, मे

'ऊ» अष्टम: इलोक:

ईशस्तुतिः.प्रतिज्ञाता सोपपत्ति सहेतुकम्‌।॥ वार्णी पुनामोत्यन्तेन प्रोक्तेशस्तुत्यतापि च॥ ॥॥

तीन शलोकोंमें प्रथम ईशस्तुतिप्रारम्भप्रत्तिज्ञाकी तथा युक्ति और फल ख्यहिंत इसकी स्तुत्यता भी दिखाई १॥ ब्याक्री स्पत्तुत्यताल्पाना श्रोक्ता जडधियां ततः कुतफंभानचरूपत्व॑ व्याक्तोश्य: प्राग्रयोत्ततः ॥॥ स्तुत्यता समर्थन विरोधी अस्तुत्यता विषयक व्याक्रोशीको चतुर्थ क्लोकमें वताया। और वह व्याक्रोशी कुतरकंमात्र हे यह पश्चम झ्छोकमें -दरसाया २१॥ सुतर्क दर्शयामास पप्ठेन ज॑ महामुनिः। सर्वशास्त्रेकमम्यत्वात्सवंस्तुत्यत्वमप्यतः ।8:5॥| उस कुृतकंके विपरीत सुतक॑ पप्ठ क्ोकमें बताया वल्कि सर्वेशास्त्र- मतकगम्य होनेसे सर्व॑स्तुत्य है यह सप्तममे अर्थात्‌ अयी साख्य॑ इत्यादि पूर्व शौकमें बताया अर्वाचोनपद॑. स्तोतुमपुनारभते.. झुनिः। महोक्षाद्यपकारत्वमर्वाचीनवदस्य हि॥४॥ अब अर्वाचीन पदकी स्तुतिका आरम्भ करते है क्योकि महोक्षादि खपकार अर्वाचीन पदका ही है, नि्मुणका नहीं ४॥। अअ्ेंद शद्धूपते स्तुत्याः सप्तकलोषया समर्थनम्‌ कृत॑ तदेव ले श्लोके नवसेष्पि विल्लोन्‍यते ॥। तदेष सतयनारम्मो विहितः कंथमप्टमे। नवम॑ प्राकू पहठित्देय वयुम्यते पठितु ततः॥ यहापर घका होती है कि मात शोझोमें स्तुतिका समर्थन शिया और यही नवम इछोकमे भी है। बीचमे अप्टम श्लोकम्ते एकगएक स्तुतिगा अरम्भ फंसे कर दिया ? नवम शोक "ुव॑ कप्मित्‌” इत्यादि पहले पढ़कर बादमें /महीसः सट्धाजु" इत्यादि पढ़ना उचित था ५-६ !॥॥

रु

ख्ोकः ) स्पन्दवातिकसहितस ९५

अन्र केचिदु, द्विधा रूप महेशस्य प्रदर्शितम्‌। परापरविभागेन व्याण्यातं तथा स्फुटम॥ ७॥ तत्रोमयविषस्तोन्नौचित्यं तु ॒प्राइनिरूपितम। मर्वाचीन॑ पुरस्कृत्यः तदौचित्यमथोच्यते ॥॥ प्ुवाध्ुवबिचारोध्पमर्वाचीने प्रवतते याचामगस्ये तेषां हि विकल्पानामसंभवात्‌ पद्यप्पपररूपे. स्थाद्‌. प्लुवाध्ुवविचारणा तथापि पररुष प्राकू सुठयत्वेत निरूपितम्‌॥ १० यहा यह उत्तर है कि पहले महेश्वरके तीन रूप सूचित हुएं। पर अपर और अर्वाचीन उनमे पर और अपर रूपकी व्याख्या पहले की गयी (१) वाइूमनसागम्य पररूप (२) जगदुदयरक्षाप्रछयकारी गुणभिन्नतनु व्यस्त “शिव, सदाशिवादि अपररूप (३) कंलछासवासोी पार्वतीपति अर्वाचीनरूप अभी ब्याख्यातव्य है ) इसमे परापररूप स्तुतिका ओऔचित्य पहले सिद्ध किया। अब अष्टमसे अर्वाचीन पद उपस्थित कर उसकी स्तुतिका औचित्य नवममे वताने जा रहे हैं। क्योकि ध्रुवाधुवादि जगत्‌ सम्बन्ध अर्वाचीन 'पदसे है। वाडमनसातीत परतत्त्वसे नहीं है। यद्यपि अपररूप धरुवा ध्ुव विकल्पवाले जगत्‌के स्रटृप्त्वादिको छेकर ही है। तथापि पूर्वग्रन्यमे मुख्य तो पररूप प्रतिपादन ही है ॥॥ ७-१० यत्त्वन्न निगुणं रूप प्राग्प्रन्येन निरूपितम्‌ प्रस्तृपतेष्धुना रूप॑। सम्रुणं यत्स्तवोड्ग्रतः ११॥ स्तुतिप्रकारक्थनं_ नवमेन. विषास्पते। दशामादो स्तुतिरिति किचित्तत्र तु चिन्त्यते॥ १२॥ कुछ मनीषियोका कहना है कि पूर्व ग्रन्थमे निर्मेशरूपक्ा वर्णन किया गग्मा, अब समुणरूपको प्रस्तुत करते है, जिसकी आगे स्तुति करेगे। नवम श्लोकसे स्तुति प्रकार क्यन है | दशमादिमे स्तुति है। इस व्यास्याका थोडा विमर्श करना उचित है ११-१२ ॥। सघुवागादिनिर्माता गरुणभिन्नतनुस्यितः भ्रधिष्ठाता भवविधेनिगु णस्तु कर्य भदेत्‌ १३ अतद्व्यावृत्तिनिर्देश्यमनुमेयं_ कर्य. तथा। अर्थान्तरन्पासयुतस्तुतिरत्र॒ स्फुटापि च॥ १४॥ भहोक्षादियुतस्थंव. स्तुतिर्नाप्रे.. करिष्यते घमतः स्तवार्थ समगुणप्रस्तावः कब्ममराग्जसः॥ १५७

५९९ श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रन्न [ अष्ठसः

“मधुस्फीता वाच:” इस इलोकमे मधुवाडूनिर्माताके रूपमे, “व्यस्त तितृपु गुणभिन्नासु तनुपु”में गुणभिन्नशरीरस्थितके रूपमे, “अधिष्ठातार कि” श्त्यादिसे ससारनिर्माणाधिष्णताके रूपसे जिसका वर्णन पूर्वेमे आया वह निगुंण कैसे होगा ? “अतदृव्यावृत्या य” इत्यादिसे जिसको श्रुति भी अन्यव्यावृत्तिद्वारा निर्देश्य बताया वही “अजन्मानों छोका.'” इत्यादिरूपेण अनुभेय कँसे बन गया ? आगे दसवें झ्लोकसे महोक्ष खट्वाद्भादि धारीकी स्तुति है यह भी युक्त नही है। “तवेश्वयं यत्नात्‌ृ” मे ही ज्योतिरछिंगादि स्वरूप वर्णन है अतः अग्रिम स्तुत्यनुरूप समुणरझूपका यह्‌ उपस्थापन है यह बात कैसे सगत होगी ? आगे जैसे भर्थान्‍्तरन्यासके साथ स्तुति है. वैसे इस श्लोकमे भी है। अतः यह स्तुत्यरूपका भ्रस्ताव नही किन्तु स्तुति ही है १३-१५॥

अभ्निहोत्रं जुहोतोति यवागूं पचदोति च।

श्रुतेष्थक्रमद्‌ व्यादया कार्या व्यत्यस्य वा बुधेः १६॥

अथवा “अग्निहोत्र जुहोति”, “यवागू पचति” ( अग्निहोत्र करते है,

लपसी राँधते हैं) इस वैदिकस्थलमे पाठक्लमसे अर्थक्रम बलवान होनेसे यवागूपाक'पहले और अग्तिहोत्र होम बादमे होता है, वैसे यहाँ भी अथेक्रम बलवाब्‌ होनेसे प्रथम नवम॒ झुक व्याख्या समझो और वादमे अष्टम खोक व्याख्या १६ ॥।

घस्तुतस्तु॒कर्य स्तुत्यमर्वाचीन चर हरा

इन्द्रादिवज्भावनीयो यज्ञायेदेचवात्मक: (३ १७ ॥॥

तत्त्वं परं होई स्ोपाधीत्यपि सांप्रतमू

तत्किमिद्ादयी_ नेव परतत्त्वमुपाधिमत्‌ १८ ॥३

समानत्वाच्च विष्ण्वाद्यः शद्धभूरे कत्तवाग्रहः।

इत्पेबपुत्यितां शद्धां सुनिरत्र परास्यति १९॥

वस्तुत: इस छ्लोकका उत्थाव बीज यह है कि अर्वाचीनपद शब्भूर

स्तुत्य किस प्रकार ? शद्धर भी इन्द्रादिके समान एक देवता है। यज्ञादिसे हाड्डूरकी भी भावना करना उचित है यह कहे कि शद्भूर उपाधिविशिष्ट परतत्त्व परब्रद्म ही है, अतः स्तुत्य है,तो क्या इन्द्रादि देवता उपाधिविशिष्ट ग्रह्मरूप नही है ? कुछ आगे भो बढे तो भी दाद्भूर तो विप्णु आदिके समान हैं ही। तब दाड्भूरम आपका विशेष आग्रह क्‍यों है ? इस श्रकार उत्पन्न घद्धाका यहां पुष्पदन्तमुमि निराकरण करते हे १७-१९

श्लोक: ] स्पन्दबातिकसहितम्‌ ९७

तथा हीन्द्रादयों वद्धा मावनोयाश्व कर्मनिः। परस्पर भावयस्त इति गोतासु चोदितम्‌॥ २० अविद्यासंयुताः सर्वे मवन्तीद्धादयः सुराः मायोपाधिहंरस्त्वेप नाविद्याबन्धसंघुततः २१ आत्मारामो हाप॑ तुच्छतन्त्रोपषफरणेड्धि तः आत्मारामास्तु सस्तुत्याः नरा; किमुत्त शद्भूरः॥ २२

विष्ण्वादिभ्यश्च.. वैशेष्यमात्मारामत्वहेतुना विद्यते पण्डपरशों. पक्षपातोचिती ततः 9 २३॥

अल्पत्तोध्त्पल्पशक्तिश्च॑वात्मारामोडषपि सानवः अविद्यालेशतो नेब शद्भूरत्तु सुरद्घिदः॥ २४

अर्वाचीनपदस्यापि स्तुत्यत्वमत एंव हि। तदेतदाह. श्लोकेन... तत्स्तुत्यत्यप्तमथिवा २५

इसी बातको स्पष्ट करते हैं--इन्द्रादि देवता तो बन्धनवाले है। वे यज्ञादि कर्मोेस भावनीय है। “परस्पर भावयन्त*” इत्यादि शब्दोमे गीतामें भी उसका प्रतिपादन है। अतएवं इन्द्रादि सभी अविद्यायुक्त है ( अन्यथा इन्द्रादिको मनुप्यज्ञत भावनाकी अपेक्षा क्‍यों है? ) भगवान्‌ अद्भूर मायोपाधिक है, अविद्याबन्धन दझाद्गूरमे नहीं है, तथा आत्माराम भी है। यही महोक्ष, सट्वाइग आदि नुच्छ तन्धोपकरणोसे इंगित किया जाता है। आत्मारगामन्व ही विष्णु आदिकी अपेक्षा विशिप्टता होनेसे हेतु है। (विप्णु आदि आत्माराम होते तो बैकुण्ठव भवादिकी अपेक्षा क्यों होती ?) अतएव छाड्डूरके प्रति पक्षपातका भौचित्य भी है। आत्मा- राम मनुष्य भी स्तवमीय है नो दादूरकी वात ही कया झद्भूर मनुष्य समान नहीं है। क्योंकि मनुष्य नले आत्माराम हो फिर भी उसमे छेशा- विद्या रहती है। अतएवं वह प्रारत्धशरीरपर्यन्त अल्पज्ञ अ्यज्षक्तिवाला ही रहता है। शद्भूरम अविद्यालेश भी नहीं है। अतएव सर्वन मर्वगक्त है इसमे प्रमाण है 'सुरास्ता ताम्रद्धि "_। अर्थात दवताओया उचित सर्वद्धिप्रद हैं। फ़लत आत्माराम मनुष्यापक्षया सवजसवर्धाक्तमतता आर बिप्णु जादि- की अपेक्षा आत्मारामता अधिक होनेसे अवचीनपद भी घशादूर स्तुत्य है। यही वात स्तुत्यन्वसमर्थगपरक इस छोड़ते प्रुष्पदन्ताचाय बता रहे हैं २०-२५

है श्री शिवमहिम्नः स्तोतन्रम्ु [ अप्टमः

महोक्ष: खट्धाड़” परशुरजिनं भस्म फणिनः

कपाले चेतोयत्तव चरद. तम्त्रोपफरणम्‌ सुरास्तां ता्मद्धि दधति तु भवदश्नू प्रणिहितां

न॒हि स्वात्मारामं॑ घिपयम्गतृष्णा श्रमयति ८॥

हे वरद ! बूढा बैल, सद्वाइग, फरसा, मृगचर्म, भस्म, सर्प और कपाल इतनी ही आपके पास वृुद्धुम्ब चलानेकी सामग्री हैँ। किन्तु देवता आपके इथरे मातसे सम्पन्न हुई उन-उन सगृद्धियोके मालिक बने हैं। सत्य है कि आत्माराम पुरुषको विपयरूपी पृमतृष्णा भ्रमित नहीं करती गृहस्थी भगवान्‌ शम्भुलोक्संप्रहतोष्मवत्‌ विरक्तो गिरिकेलाबसासी चित्नरचरित्रवान्‌॥ २६॥ कंलापस्तु गृह तस्य पार्वत्यर्धाडुगिनी शिवा। पुआवभवतां हो. पडाननगजाननो २७ एवं गार्ह्व्यसंपन्नो. विरज्यनश्नेष तिप्ठति। तपस्यति समाधत्ते. रुंलासशिखराश्ितः रेट यूहस्थोषपि त्पः दुर्यात्समाद्याद्विरक्तघी: अन्येपां . का. कयेत्येतदर्शयत्यम्विकापतिः २९ ॥। लोकसग्रहार्थ ही भगवान्‌ श्डूर गृहस्थ हुए और विरक्तरूपेण ग्रि- कैछासवासी विचित्रचरिनयुक्त हुएं। कैछास उनका गृह हे। गृहिणी अर्धागिनी पार्वेती है। पडानन, गजातन दो पुत्र हुए ऐसे गाहईस्थ्यसम्पत्त होकर भी विरागी रहते हैं कैछासशिसरमे तप करते है, सभाधि रुगाते है गृहस्थको सनसे विरक्त हो तप करना चाहिये, समाधि ऊूगाना चाहिये, दूसरोकी वात ही क्या ? यही थे दिखाते है॥॥ २६-२९ स॒ एप फिट पूर्वेपामप्यमृत्‌ परमो गुरुः॥ विरागेण मवेत्सिद्धिरिति लोकान्‌ प्रशिक्षयन्‌ ३० तत्यानुकरण चक्कः. पूर्वजाता महपंयः। गोन्रप्रवर्तकास्तेपुस्तपो गिरिवनादिपु ३१

_ छोकसपग्रह क्यो करने छगे ? इसलिये कि वे ही पूर्वजोके भी परम गुरु थे। विदागसे सिद्धि होती है यह झिक्षा लोगोको दे रहे है। उनका अनुकरण हमारे पूर्वेज ग्रोप्रप्रवतंक महँपियोने किया वे भी जगलोमे तप करते रहे ॥| ३०-३१ ॥।

की

झुक: ] स्पन्दवातिकसहितम्‌ ९९

सार्केण्डेयादयो$मुवन्नूषयो ब्रह्मचारिण: वह्तिष्ठकश्यपाद्याश्व बसुव॒ग हघर्मिण: ३२ फ्ष्वादय: सममवत्‌ वानप्रस्याअ्मस्थिता: नारदाशपिदुर्वातऋग्धाद्या. न्‍्यासिनोइसवन्‌ रे३े सर्वेषपि तपश्चक्र: सर्वेषपि समादधुः। जस्मुश्र सिद्धि परमां विरूपाक्षानुशिक्षिता: ३४॥। गृहस्थ भी तत्र करे, अन्यकी क्या बात-इस शिक्षाक्रा ही परिणाम कि सर्व आध्रमी ऋषि तपस्त्री हुए। मसार्कण्डेयादि ब्रह्मचारी, वशिष्ठ कश्रतदि गृहस्य, कम्त्र आदि वानप्रस्य, नारद, आरणि, दुर्वाता ऋणभु आदि सन्‍्यासी ऋषि हुए। सबने तव किया, समाधि छगायी और परमसिद्धि प्राप्त की ये सभी ज्ञानप्रदाता शकरसे अनुशिक्षित थे ॥३२-३४ !। नन्‍्वेब॑ दक्षिणामृतिस्वरूपं से कुतो$ब्रिन्न कतु' सद्‌ यच्छ (ति; प्राह न्यास एवात्यरेचयत्‌ २५॥ इतनेसे ही शिक्षा सभव थी तो दक्षिणामूर्ति सन्‍्यासी किसलिये बने ? सन्यास सर्वश्रेष्ठ है इस श्रौत अर्थको सिद्ध करनेके लिये ३५ सहोक्ष: मस॒ पुष्पकविमानादि महोक्षस्तस्प बाहनम्‌। कदाचिदुपयोगी स्थाद्‌ गृहस्थे क्षेत्रकर्ंणे ३६ विरक्त है शंकर | वाहन पुष्पक विमानादि नही, बैल है। इसलिये कि शायद कभी खेतीके काममते भी जाय ३६ खट्वाड्ू सद्वाड्भमायुं॑ तत्य शत्रूणामपसारणे खद्वापाट्यप्रमड्रे. स्पादुपयोथि कदाचन॥ ३७ दागुओको हटानेके छिय्रे सद॒वाज्ञू नामका आयुध है। शायद खटियाका पाव टूटनेपर वहा छग्रानेके वामसे भी जाय ३७ ॥॥ परशुः परशुस्त्वपर... शस्त्र शब्रूणामुपमर्दने यदि मोजननिर्माणे. काप्ठट्फालमकार्यपि ३८ |

१०० श्री शिवमहिस्व. स्तोचम्‌ [ अष्टम:

शत्रुमर्दनार्थ दूसरा शस्त्र फरसा है। श्ञायद भोजननिर्माणकालमें लकड़ी फाड़नेके काममें भी जाय रेट

अजिने अजिन॑ सन शुद्ध शेत्यवृष्टयादिवारणम्‌ शबय्यायां परिधाने चाप्पासनेध्प्युपपोगि यत्‌ ३९ वस्त्र तो मृगमर्च है। नित्य शुद्ध होनेसे धोनेकी झझट नही ठंढीमे गरम, बारिपसे भी बचावे। लेटनेके विस्तरेके काममे भी आवे, पहननेके काममे भी आवे, आसन भी हो जाय ३९॥

भस्स पुण्य॑ शेत्यहर' भत्म पब्रचित्पात्रप्रधावनस्‌ शरीरगौरतावृद्धि-हेतुचू्ण मिदापि घतू ४० 0

भस्मका तो कहना ही क्या | तिलक छगाओ उद्धछन करनेसे ठटी नही लगती कभी वरतन माजनेके काममे भी आवे। मुखादिकों गोरा बनानेवाला पाऊडर भी वह हो सकता है ४० ॥॥ फणिनः फप्रिमूपः से नागेखहारों सुमहारघुकू कटिवस्त्र स्वथ बध्नन्‌ कूपास्बूद्धरणक्षमः ४१॥ लम्बा सपे भूषण है। पुण्पहार नही, जो एक दिनमे सूंखकर वैकार होता है। यह नाग तो कटिवस्त्र पाजामा आविको स्वय बाधकर बेल्टका काम देता है। कभी जरूरत पड़े तो कुँएसे पानी निकालनेके काममे भी जाय 'ड१॥ कपाले

खर्परश्वौरभीशून्यो.._ वास्तादिपरिभावभाकु मस्तके दोपिफातुल्पो चातबुष्टयातपावस: ४२ खष्परकी तो वात ही क्या ? यह ऐसा बरतन है कि चोरका भय नही, खट्ट दही आदिसे वासाता नहीं और मस्तकपर रखों तो टोपी बन जाय और हवा, वृष्टि और धूपसे मस्तकको बचावे ४२ | चर्मद्ध० हुनत दारिद्रसमेतद्धि मैं चेराग्यमोीशितु:॥ मुराः स्ूरद्धि दर्धति निजश्तृस्पसदनोत्यिताम्‌ ४३

झ्लौकः ] स्पन्दवा तिकसहितम्‌ १०१

यह महोक्षादि तो दरिद्रतावा लक्षण हुआ। नही। यही प्रभुका वेराग्यकृक्षण है। क्योकि अपनी भ्र.फुटी चालन मानसे उत्पादित अनेक ऋषद्धियोको ही देवता भी घारण करते है ४३ कुबेरस्त्वत्कृपालेशात्‌ कुबेरत्वमपद्यत अन्येपां किल का वार्ता सर्वेसिद्ध्ृशिदायित्रि ४४ शकरकी लेशकृपासे ही कुवेर धनपति बना | दूसरोका फिर कहना क्या ? समस्त ऋद्धिसिद्धि भगवान शकर देते हैं ॥॥ ८४ ॥। नन्‍्वेब कथं श्ुस्न॑ सवय नेव दघात्यसी। मृग्तृष्णोपमा: सर्व यत्तो हि विषया इसे॥ ४५॥ तनन्‍्नीपकरणार्थय हि. येपामपरिहायंता त्तेघधा द्विधोषयोगार्थ क्लियते तु परियग्रहः॥ ४६॥॥ तब स्वय घनादि सग्रह क्यों नहीं किया ? चूकिये सभी विपय मृग्रतृष्णोपम है। कुटुम्बभरणार्थ जिनकी अपरिहायेता है उतनेका सग्रह किया जाता है ४५-४६ ॥। सत्यां कौ कि कशिपुना कि ब्राहाबुपबहेण:। अडजलावन्नपात्या कि दुकूले कि दिगम्बरे॥ ४७ नामस्वर्थों भवेद्यावान्‌ प्रमादों तत्र नो भवेत्‌। यत्नवांस्तत भवेदन्यथार्थें. प्रप्तिध्यति ४८ इति भागवतादुक्त लोकानू समनुकारयन्‌ | नि.ह्पृहः सन्‌ गृहस्थोषपि जगत्पतिरवर्तत ४९ काम निकलना चाहिये। अतएवं भागवतमे वहा कि जमीनपर लेट सकते है तो बिस्तरा विसलिये ? बाहुसे काम चलेगा तो तक्रियेका क्या काम ? अजलिसे काम हो गया तो बरतन क्‍यों रखे ? दिगम्बरसे काम चला तो वस्त्र किसलिये ? नाम्रात्मक जगतूमे जितनी उपयोगिता है उनमे प्रमादी मत बनो। सरल प्रकारसे काम चलता है तो इन नामसग्रहके पीछे मत लगो इसीका अनुब रण कराते हुए शक्र गृहस्थ होनेपर भी, जगत्पति होते हुए भी नि स्पृह्ठ होब रहे ४७ ४९

स्वात्मारास

आत्मा तु परमानन्दः संप्लुतोदकर्सनिभः। तंदारामो विषपानन्दखाताम्थुलोलुपः ५०

(०२ श्री शिवमहिम्नः स्तोचम्‌ [ अप्डम।

विक्लीडतो$मृताम्भोधो कि क्षुद्र: खातकोद्फः। आत्मानन्दस्य कि भोगेम गतृष्णोपमरिति ५१ लबलबाते सागर सरोवरादि सदृद्ष आत्मा परमानन्द परिपूर्ण है।

उसमे रमनेवाऊझा विपयानन्दरूपी गढ्ढेके जलमे क्यों छोलुप होगा ? अमृतसा- गरमें . खेलनेवालेको खातकोदकसे क्या मतलब? आत्मानन्‍्दरतिको मृगतृष्णासदृश भोगोसे वया सरोकार ? ५०-५१ ॥।

यधाशुतार्थ तमिमसमिधायाधुना. वयम्‌।

व्यद्भचार्थभस्य श्लोकस्य बशंयामोध्च्र लेशतः॥ ५२॥

यह हमने इलोकका यथाश्रुत अर्थ बताया अभिव्यद्धच अर्थ भी अब हम थोड़ा सा दिखाते है ५२

महोक्षः धर्म! हि. मगवान्‌ साक्षाद्र,परूपेण संस्थितः। तपः शोचं दया सत्य तस्थ पादाः छृते स्थिता: ५३ ॥। अर्य॑ छु परमो धर्मों यद्योगेमात्मदर्शगम्‌। महीक्षत्व॑ततः प्राह स्वात्मारामत्वमेब च। पछ भगवान धर्म ही वृषभरुपमें स्थित है। उसके तप, शौच, दया और सत्य चार पाद हैं इत्यादि भागवत्तमे बताया है | यही परमधर्म है जो कि योग द्वारा आत्मदद्दन करते है उस पर स्थिति महोक्षवाहनता और स्वात्मारामता है॥ ५३-५४ खदवाड़ा खब्वा चतुष्पाज़ूबति त्देतत्सावंलीफिकम चतुष्पादेव से द्ह्म माण्ड्क्यशुतिविधुतम्‌ ५५ तबदज्ू चव॒तुरीयाखर्य तत्त्व॑ धारयतीत्यतः खट्वाद्भधारी भगवान्‌ भीयते प्रमयाधिपः ५६ काइक्षयमाणाद्धताहेतो रप्पर्थेश्यं॑ हि सभ्यते। खटबते पुय्षाय॑त्वात्‌ काइक्षयते पुरषेरिति॥ ५७३ सदिया चार पादवाली होती हे। भ्रह्म भी चतृप्पात्‌ है। उसके अभज्ूसदुश चतुथपाद तुरीयवत्वको शकर धारण करने हूँ। 'खट कारक्षाया

इस धात्वर्थानुयमसे भी पुख्पावंतत्वदाभ होता है। पुरपार्थ होने से पुण्ष द्वारा काक्षित होता है ५५-५७

झ्लौकः | स्पन्दवातिव सहितिस १०३

परशुः परमन्य॑ श्युणात्येथप.. परशुद्वेतसण्डनः दृढेनासज्भशस्तेण छिन्तेईश्वत्यं विरागवान्‌ ५८ ॥॥ पर अर्थात्‌ द्वित्रीयकों जी श्ृणातति-समाप्त करता है वह असग शस्त्र द्वैतविवारक है। यही गीतामे “असज्भुशस्त्रण दृढ्न छित्वासे चताया ५८ अजिन॑

गजासुराजिन॑ धत्ते खल्वसुरभेव सः। आसुरों संपदं मा गा त्वचं बाह्यां तु घारय॥ ५९ जानम्षपि धर मेधावी जडबलल्‍लोकमाचरेत्‌ अज्ञानीव क्‍्बचित्क्रोधीवाभिमानीव संसूततों ६० सक्ता; कर्मेण्याविद्धांसो यथा कुर्बन्ति मारत। कुर्याद्िद्वांस्तथासक्तश्रिकोपु लॉकिसं प्रहमु ६१३ जिनश्रावंदिकत्त्तस्माड्न्त धत्ते महेश्वर:। वेदिकानू. मत्तियुक्तांश्न ततोडजिनधरों हरः॥ ६२॥ गजासुरकी वाह्म त्वचा धारण करते है। आसुरी सपदाको नही, उसके वाह्याकारको घारण करते है। जानते हुए भी मेघावी जड समान बरतते है, भज्ञानी जैसे, क्रोधी जैसे, अभिमानी जैसे गीतामे भी कहा-- अविद्वान आसत्तिपूर्वक वर्म करते हैं। विद्वान्‌ अनासक्त होकर वैसे ही कर्म करते हैं। 'जिन' अवेदिक मत वाछा है उससे भिन्न वैदिकमतवालो और भक्तोंको धारण करते है इसलिये भी शिव अजिनधर हैं ५९-६२

भस्म संतारदाहे सति यः सारो भस्म तदीरितम्‌ स्पप्ट॑ शंबपुराणादावेददेव.. निरूपितम्‌॥ ६३ मुक्तामस्मादिक॑ तावत्‌ तत्सारों नेव संशयः) अस्ति भाति प्रियमिति सारो बाघे हि संसूतेः ६४ सामरूपजयद्वाध._ इस्घे. ज्ानमहाग्विना। शिष्यते भासनाख्ूस्मभ सब्चिदानन्दलक्षणम्‌ ६५ ससारदाह होनेपर जो सार बचता है उसे शिवधुराणादिमें भस्म बताया है। जैसे मोतीका भस्म सार ही है वैसे अस्ति, भाति, प्रिय

ब्‌ग्ड क्षी शिवमहिस्नः स्तोम्रम्‌ [ अप्दम)

ससारयाधोत्तर सार है ज्ञानाग्निसि नामरूप जगद्दाध होनेपर बचनेबारा सच्चिदानन्द ही भस्म है ६३-६५ ता फणिनः संत्तारबाघे सति सच शिप्यते शेपसंज्ञितः। फणी सच्चिदानन्दरिनिफणस्निगतिहि सा ६६॥॥ सद्यप्य्वेतमानत्यं स्थाउूस्मफ्णिनोरिह्‌ दाहप्रधान्यतो भस्म शेपप्राधान्यतः फणी ६७ सपारयाधोत्तर जो गेष रहे वही शेपनाग और फणी है। सत्‌, चित्‌, आनन्द ये तीन फभ है। “फण गतो"” तीन गति है। इस प्रकार भस्म और फण्णीमे भेद नही रहता तथापि दाहुकी प्रधानतासे भस्म और अवशेपकी प्रधानतासे फणी समझना चाहिये ६६-६७ ॥॥ फपाल क॑ सुर पालयेयल्तु फपालःस सु कोतितः | आनन्दरक्षहेतुश्वच॒ ह्यद्व प्दुत्वाययो ग्रुणा:॥ ६८॥ उत्पश्चतत््तज्ञामस्य दावा प्टुत्थादयों गुणाः अयत्तती मवन्त्यस्थ तु साधनएपिणः ६९ ॥। कपाल शददमे कम्न्सुसका पालन्न्जो पादन करे ऐसी व्युत्पत्ति है। “अद्वेप्टा सर्वभूताना” इत्यादिम कथित भट्डप्ट्त्यादि गुण ही कपाल है | ज्ञानियोके वे स्वत उत्पन्न होते है॥ ६८-६९ ॥। तम्न्ोपकरणम्‌ तन्‍नर छुटुम्ये ज्ञानेच ज्ञानोपकरणं त्विदम। ज्ञानोपकरणान्येत्र ज्ञान वा शंभुना घृतम्‌ ७०॥ तन्त्रका ज्ञान भी अर्थ है। उनवा उपकरण या ज्ञान ही शंकरजीने धारण मिया है॥ ७०॥ ता त्ां ऋरदि ता तार्माद्ध जगत्यस्मिन्‌ दष्युविषयलक्षणाम्‌ | तदेदालिति शुत्युत्तत्वदस्ूप्रणिहिता सुराए्या छववा _ “तरदेक्षत बढ़ स्या” इस ईक्षणसे उत्पन्नकों ही यहा 'भवदुभ्रप्रणि- हिला'से बाबा ऐसी विपयरष ऋद्धिफों देवता पाते है॥ ७१

श्लौकः

स्पन्दवातिकसहितम्‌ १०५

पुरुपस्तु महोक्षः सन्‌ खद॒वाड्ं प्रकृतिः सती सहत्तरव॑ थे परशुरहडूगरोइजिन॑ तथा॥ ७२ भस्मंव पद्चतन्मात्रा फणिनस्त्यिन्द्रियाण्यपि। कपाल पश्चमुतानि भृत्वा हरमसुपासते ७३ इत्यागमप्रसिद्धायं मधुसूदनयोंगरितः दर्शयामासुरजंच सकलायमकोबिंदा छ४॥

पुरुष, प्रकृति, महत्तत््व, अहकार, पश्चातन्माव्रा, इन्द्रिय और पचमहाभूत ये सात क्रमश महोक्ष, खट्वाड़ू, परशु, अजिन, भस्म, फणी और कपाल बनकर ग्रुप्तत्पसे शकरकी उपासना करते है ऐसा सकलागमविश्ञारद श्रीमस्मधुसृदन सरस्वतीने आगमप्रसिद्ध अर्थके रूपमें

यहापर व्याख्या की है।॥। ७२-७४

महोक्षादिधरं शस्लूं_ देवानां. सकलड्िदमू। स्वात्माराम विषयवितृष्णं निश्चेम्र स्तुबे ७५

महोक्षादिधारी, देवोके स्वंसपत्प्रदाता, स्वात्माराम, विपयवितृष्ण,

शभुकी ( स्तुत्य होनेसे ) में स्तुति करता हूँ ७५

इति श्री काशिकानन्दयोगिनः कृतिमः कृतौ महिस्नः स्तो त्विवृत्ती स्पन्दो5्यं निर्मतोष्प्टमः॥

८,

53»

नवमः इलीकः

स्तुति: स्तुत्यगतीत्कर्पवो धर्क वावयमुच्यते

उत्कर्षोश्नुप्रहदया-ज्ञानकाम क्वियादिभिः ॥१॥

सर्दे सविषयास्ताव-दनुग्रहदयादय: 4

घुनिस्पाणि विषपयफलादीनि सदात्मना २३

शोव्याधोव्यादिक तेपां विवादास्पदसोक्ष्यत्ते

ततः फर्य स्तुतिपु क्ताइन्नातरूपदेयाविभिः ३े 0

काचमुक्तामणिमिदं यर्थवाजानतः स्तुति:

काचहारसुशोभीति निम्देवातत्तववे दिन: ४॥॥

स्तुत्य व्यक्तिके उत्कर्षको बतलानेवाला वाक्य स्तुति कहलाती है

अनुग्रह, दया, ज्ञान, इच्छाश्वक्ति, क्रियाशक्ति आदिको लेकर उत्कर्प होता है अनुग्रह, दया आदि सभी सविपय होते है। बिपय, विपयी एवं फछ ये सभी दुरनिरूप अनिर्वेचनीय हैं। क्योकि ये सब ध्रुव हैंया अश्युव इत्यादि विवादास्पद है। तव अज्ञातस्वरुप दया आदिको लेकर स्तुति करना कंसे संभव है ? काच और मोतीको एक समझनेबाछा कोई आदमी स्तुतिरूपमें बोलता है--अहां ! कैसे बाचहारसे यह दोभायमान हो रहा है। कितु अनभिज्ञकृत यह स्तुत्ति नही निन्‍दा ही है १-०४ ॥॥

कि चोत्कर्पो निरुप्योध्यम्पकर्षेश फ्रेनचितृ

गुरुज्येप्ठपितृत्याद्याः. शिप्यभावादिभियंया

डुविज्ञेयं जगदिदमपकृष्ठतया.. मतम्‌

झ्रुवाध्तुवादिबहुल-विकल्पप रिफल्पतम्‌

सृजतीशो नम इति श्षुत्वा पशेषिको हसेतु॥

महेशाज्जगदुृत्वन्न॑ शुत्वा सांप्यो विडम्बयेत्‌ (१ ७॥

अपकर्ष निरूषित होनेपर ही उत्तर्प समझमे आगेगा। गुर, ज्येप्ट,

पिता भादि शिष्य, कनिप्ठ और वुयादिसे निमपित होना है। अपरप्ट्टपसे अभिमत दतर प्रपद्चकों समझना पहले कठिन है। क्योंकि घुव-अध्ुवादि विकल्पपीदित है। ईश्यग्ने आकाशफों बनाया सुनव< वेशेषिक हेंसेगा। परमास्मामे जगस्‌ उत्पन्न हो गया खुनफर सास्य बद्देया यद वगा विडंबला

झ्लौकः ]

स्पन्दबातिकसहितमस्‌

पृ०७छ

हो रही है। तब जब अपकर्षन्ञान ही नहीं, तो उत्कर्षवोधक स्तुति किस प्रकार ? ५-७ ॥।

अ्रश्रोच्यते स्ठुति कठ प्रवृत्तस्य निरागसः। जगत्तत्त्वानभिन्ञत्वचिन्ता नास्व्येष मे हुदि॥ ८॥7 अवनि तु समुद्दिश्य तियंगुध्येमघो४पि वा। यथाकर्थयंचिदषि या क्षिप्तो भुवि पतेद्‌ हपतू ९॥ तथोत्कपंवचः: काम यधाक्थमपोरितम्‌ मगवत्येव पति सर्वोत्कर्पाणये.. हरे १०७ सदर्था बाइसदर्था वा माया कि तेन से सचेत उत्कर्षस्तु सदर्थोष्य॑ महेशस्यथ विवक्षितः ११॥॥ झ्रसदर्यंददाभातु स्ववपोत्सेदगी रिव प्रशस्तत्व.. पुननासत्‌॒यत्तावत्स्वविवक्षितम्‌ १२

उक्त पूर्वपक्षका उत्तर यह है कि मैं तो स्तुति करनेके किये प्रवृत्त हैँ, किसीके खण्डनमण्डन था अपराध करनेके लिये नहीं। और पराण्डित्य दिखानेके लिये ही तव जगत्तत्वकी अनभिनज्ञताकी चिन्ता मुझे क्यों होगी ? प्ृथ्वीको छदय रखकर ऊपर, नीचे अगल, वगल़ जैसे तैसे भी पत्थर फेंको वह प्ृृथ्वीपर ही पडेगा। वैसे स्तुतिवचन जैसा तैसा भी बोले सर्वोत्कर्पाश्रय भगवानमे ही पहुँचेगा। भाषा चाहे वाच्यार्थेतया सदर्थ हो या असदर्थ। उससे क्‍या होगा ? पर, महेश्वरका उत्कपं जो विवक्षितार्थ है बहू तो असम्‌ नही है। “प्रजापतिवेपामुदखिदत्‌” यह स्ववपोत्लेदनव वन असदर्थवे: समान भले भासे, विन्तु विवक्षित याग की भ्रशस्तता असन्‌ तो नही है। ( वेसे शिवस्तुति सुदते समय असभवार्थ किसीको लगे, किन्तु विवक्षित उत्कर्प तो असत्‌ नही है ८-१२॥

विवक्षित तदुत्कर्पमप्यसन्त॑ परो.. यदि ! प्रसाधयेत्तदाप्येधव. में चिन्ता प्रवर्तते १३ स्वस्वसिद्धान्तसम्यवत्वस्थापका: स्थापयन्तु त्तत्‌। से किचित्स्थापनीय मे स्तुतिमात्रं चिकोषंत १४४ परो.. मामाक्षिपेदकय तद्विरद्धार्थकीतंनांत्‌ इत्पप्पेव ने चिन्तास्ति घृष्टस्थ मुखरस्य मे १५ परस्परविरुद्ध हि. नानामतमदेक्यते | विरोधचिन्ता मामेव कुत आविशतुर्जिता॥ १६॥

१०८ श्री शिवमहिम्नः स्वोत्रम्‌ [ नवमः

यदि कोई वादी परमेश्वरके विव्षित उत्कर्पेणो भी अमत्‌ सिद्ध करना चाहता हैं तो भी सुझे चिन्ता नहीं है। क्योंकि वे अपना सिद्धान्त स्थापित करनेके फिकरमें हें। मुझे कुछ स्थापना फरनी ही नही है। भुझे केवल स्तुति करनी है। स्तुति करते समय कुछ छोग स्वविरुद्ध अर्थ कहनेका आक्षेप मुझपर छगायेंगे यह भी चिन्ता मुझे नही है। क्योंकि मैं एक वाचाल हूँ, जत्तजव धृप्टता भी रखता हूँ थे अपनी बात करेंगे। मैं अपनी बात करता रहूँगा वादियोंके नानामत परस्पर विरुद्ध हैं, तब एक दूसरेके विरोधकी चिन्ता क्‍यों नहीं करते हैं ? जब उन छोगोंको विरोधकी चिन्ता नहीं है तो यह्‌ बछ॒वती पिश्लाचिनी वनकर मुझमें ही क्यों घुसने छग्री ? १३-१६ ॥।

म्ुर्वं कडिचत्‌ सर्व सकल्मपरस्त्वल्रमिद

परो प्रोब्याक्नोन्ये जर्गात गदति ब्यस्तविषये। समसस्‍्तेष्प्येतरिसत्‌ पुरमथन तैविस्सित इच

स्तुवण्जिल्लेमि त्वां खजु नन्र घृष्टा सुख्रता कोई इस प्रपच्चको झाख्त सत्य कहता है, दूसरा उससे विपरीत अप्लूव कहता है। तीसरा कुछ श्रुव है और कुछ अषश्लुव है ऐसा व्यस्तरूपसे कहता है, और समस्त घिपयम ध्रुउ-अप्लुव प्विद्धान्त भी है। इन सब मतमतान्तरोसे मैं विस्मित सा होकर भी स्तुति करता हुआ लज्जित नही होता ययोकि वाचालता बड़ी ढीठ होती है प्रूब॑ फश्चित्‌ तथा हि सकले कश्चिद्‌ विश्व धुधमवोदत। प्लुव॑ नित्पं झ्ुवं सत्यं सांस्या नित्यम्नचक्षत १७॥ सत्फकार्यवादिन: सांख्या: कार्य सत्‌कारणे सदा। अभिव्यक्तिस्तदुत्पत्तिनशिश्वाभिभवो.... मत. १८॥ वादियोंका परस्पर विरुद्ध मत इस ग्रकार है कि कुछ लोग विश्वकों सर्चेथा ध्युव कहते है घुबका नित्य और सत्य दोनो अर्थ हैं। साख्यवाले नित्य कहते हैं, वे सत्कायंवादी हैं। कारणमे कार्य हमेशा रहता है उत्पत्ति केवल अभिव्यक्ति हैं और नाझ अभिभवमात्र हैँ यही सत्कायंबाद है १७-१८॥

ख्लीौकः ] स्पन्दवातिकसहितम्‌

तेल तिलेष्डकुरो वीजे सर्पिदेध्न्यनलो5रणौ , प्रागेव सद्‌ व्यज्यते तु पश्चा न्रिष्पीडबादिमि: १९ ।॥। तिलमें तेल पहलेसे ही है।॥ बीजमें अंकुर, दहीमें माखन, अरणि ( लकड़ी ) में अग्ति पहलेसे है। पेलने, उगाने आदिसे केवक प्रकट होते है १९ सुवर्ण कुण्डलं जात॑ द्रावि्त कनके पुनः कि त्त्र जात॑ कि नप्ट व्यज्मवाभिभवाहते॥ २०॥ सोनेका कुण्डल बनाया, गछानेपर फिर सोना हो गया। यहां अभिव्यक्ति और अभिभवके मिवाय क्या उत्पन्न हुआ क्या नष्ट हुआ २०॥ किचित्परज्ज्वलत्सिक्यवत्तिकाया विनश्यति। पुनस्तादष्यमागच्छेत्तद्यम:ः .. संप्रियेत चेत्‌ २१ मोमकी बत्ती जलायी तो क्या जलकर नप्द हुआ ? कुछ नहीं। उसका धुआ (वाप्प ) तरीकेसे पकडा जाय तो फिर वह मोम बनेगा २१ पवर्थित सल्रिलं नश्यदिव लोफेः प्रतीयते॥ बाप्पभावागत॑ तच्च जलमापथते पुनः॥ २२॥ पानी उबर्श तो छोगोंको छंगेया कि उबकर प्रानी सख गया, नप्ट हो गया | लेकिन कया नाठ हुआ बह भाष बना फिरसे वह पानी ही बनेगा २२ ॥। सहसवार फ्रियतां कापघ्चीकद्भुणऊुण्डलत्‌ हेम्न: कि तेन भवति नाशे था कि यु हीयते २३ तथामिव्यज्यते विश्य॑ बहुधा प्रकृतेरिदम्‌ तर्यंधामिमवत्येततू. फल्पान्ते प्रलये सति॥ २४॥॥ तथा चाहू श्रुतिर्धाता यथधापूर्वमकल्पयत्‌ | धघातेतति प्रद्गतिः रा हि स्पनक्तीर यथा पुरात २५१ हजार बार कंगन, ऊुण्ण्ठ आदि बना खो, ग्रदा छो उससे सोनेका वया बनता विय्ड्ता है? बैंसे टी प्ररतिम यह जग लतिब्यर होता है, कल्पान्त प्रलयम अभिभूत होता है यद्ी “धाता यवापूर्वमव त्पयत्‌” इस श्रुत्िमि भी बताया धाता माने प्ररतिये पहले जैसे फिर इन जगतकों प्रयाट किया २३-२५ ॥॥

उकगड

११० श्री शिवम हिम्न: स्तोवमु [ सप्तमः

अन्ये ध्रुवं॑ सत्यमिति विशिष्दाद्ं तवादिनः विश्व॑ सत्यमिति प्राह श्रृतिभंगवत्तों स्वयम्‌ 0 २६ चन्वतत्य॑ हि शुकत्यादोी रजतादि प्रतीयते | तदसद्‌ रा्यम्रत्रास्ति पत्चीक्ररणफारणात्‌ २७ ॥) मरीचिफायां सलिले पश्चोकरणतो$स्ति हि। वशेष्याद व्यवहारस्तु भेवेदेया मरीचिका॥ २८॥ दोषदूपितहप्टे: स्थाद्‌ दृश्य रूप्यजलादिकम्‌ हृश्यते दोषबिरहे सुक्तास्फोशतपादिकम्‌ २९ विशिष्टाईलवादी कहते हैँ क्रि समस्त जगत्‌ प्लुव अर्थात्‌ सत्य है। “विश्व सत्य” यह श्रूतिवचत है। बया शुक्तिमे रजन दीखे तो वह भी सत्य है ? जी हा पच्चीकरण प्रक्रियासे वहा भी रजतावयब है | मस्मरीचिकामे जलाबयव है। विभेषता घुक्ति आदि के अवयवो की हैं। अत उन्हे शुक्ति आदि कह जाता है। दोषदूपित दृष्टिको रजत, पानी आदि नजर आते है दोप हो दो सीप, धूप आदि २६-२९ मनु स्थाणों पुमान्‌ कि नु पत्चोकरणतोइस्ति ते यद्‌ बालुकाया कनक॑ दोषहप्ट्या तदीक्ष्यताम्‌ ३० ॥॥ पूर्वपक्ष --जहा स्थाणुम पुरुष दीखता है वहा आपके मतमें पचीक- रणके कारण स्थाणुम पुरुष भो छिपा होगा। जिस बारूसे सोना है, बाहर्से नही दीसना, वहा आप दोषदूषित दृष्टिसे देख डालिये और सोना निकाझ डीजिये ३० 0 सेव मो नातिशद्धान्न क्ार्या तत्ववुभुत्छुना। श्रद्धत्स्व सोम्येत्येव हि श्रुत्तिः शास्ति स्थय यतः 0 ३२१ इस पूर्वेपक्षपर कहना यही है कि तत्त्यजिज्ञासुको अतिद्वका नही फरनी चाहिये | शुति स्वय कहती है कि जो गुरु बोछते है उसपर श्रद्धा र्फा करो है१ अपरस्त्वाश्रुचं

भप्तुव॒चासिल प्राह्मपमित्य वाष्सत्यमेव वा। वैभाप्रिकोडसिल ूते प्रत्यक्ष क्षणभदगुर्म्‌॥ ३२७ शतवर्धेण. जीर्यद्धि. वर्ष्मवस्तयूहादिकाम्‌ मैकत्मिन्‌ हाणये नो वा दिने किन्तु क्षणे क्षण ३३ आत्मापि क्षेणिको नास्ति दिचिदेव भुवि स्थिरम्‌

ज्ञान जात हत चेति सर्वप्रत्यपपोचरम्‌ ३४॥

छोक ] स्पत्दवातिकसहितम्‌ १११

कुछछोग जगत्‌की अश्ुव मानते हैं। उनमे भी कोई अनित्य और असत्य मानते हैं वैभाषिक अतित्य मानते हैं। सौ वर्षमे शरीर, वस्त्र, गृहादि जीर्थ होते हैं तो क्या अन्तिम एक वर्जमे जीर्ण हुए ? प्रतिदिन ही नही वल्कि प्रतिक्षण जीर्ण होता गया है। भात्मा भी क्षणिक है। ज्ञान उत्पन्न हो गया नष्ट हो गया ऐसी सबको प्रतीति होती है ३२-३४ बुद्धचानुमेयस्पथादर्थ” सर्वोषपि क्षणभड्गुर*॥ इति सोन्रान्तिवमतेष्प्यल्लुवन्ध॒ यथोदितम्‌ ३५ सौनान्तिक मतमे फरक इतना ही है कि घटादि ज्ञान हो रहा है अन वििपय अवश्य होना चाहिये इसप्रकार बर्थ अनुमेय होता है। प्रत्यक्ष नहीं | एसा वे निरूपण करते है। क्षणभगुरतारूपी अधप्लुवत्व समान ही है २५ मुरयो साबध्यसिक सर्वमसत्य जगदब्वीतू शुन्य तत्त्व जगच्छृन्यविवर्तोड्सत्प एवं हि॥ ३६॥ बौद्धोमे मुख्य माध्यमिक है वह सारे जगतको असत्य कहता है। शुन्य ही तत्व है। यह जगत्‌ झून्यका ही विवर्त है। अतएवं असत्य है। यह असत्यतारूपी अश्लुवता है २३६॥ योगाचारमते. ज्ञानाकृतिरेवार्य इच्यते। ज्ञान सत्यमसन्नर्यस्‍्तथापि क्षणिक तु तत्‌ ३७॥ यागाचार मतम ज्ञानकी ही आकृति अर्थ है। ज्ञान उनके मतमे सत्य है। अर्थ अमत्य है। फिर भी ज्ञान तो क्षणिक है ही ३७ ॥। प्रो प्रोव्पाध्रोव्ये वेशेषिकादय फिचिद्‌ प्लुत्॒ किचित्तथाइश्रुवम्‌ इत्येय.. ब्यस्तविधया जगदेतत्‌ प्रचक्षते २८ वैश्वपिकादि ध्रुवाध्युववादी है अर्थात्‌ व्यस्तस्पसे कुछत्ो छुब ओर कुछको वे अध्रुव मानत हैं ३८ व्घोन्ताद्या विभयों नित्पास्तर्थव परमाणत | कार्याप्मकास्तथाइनित्या नवन्ति दद्यणुक्तदव ३९॥ आकाझादि विन पिय हैं। परमाणु नित्य हैं। वायंस्पी दृधणुक च्यणुक एवं घटादि अनित्य है ३९ आकाशातु प्रादिविमासीद्भधा मवेदाकांश एवं प्रार्‌ माबकाश ववचिद्याति नायात्येव च॑ नित्यता ४०

११२ श्री शिवमहि8्न स्तोनम्‌ [ नवम.

आकाझादि कैसे नित्य ? युनिये यदि वह जन्य हो तो आकाझइसे पहले वया था ? आकाश ही अवकाश कही आता है जौर जाता है। अत नित्य है ४० नारम्भकाः अवयवाः विभाग फस्प था भवेत्‌ जारस्यन्ते ने नश्यन्ति ततश्य गयनादयः ४९ ॥॥

अवयवोसे अवयबी द्रव्य उत्पन्न होता है। आकाशके आरभक अवयव नही तब विभाग भी किसका हो ? अतएवं आकाशादि उत्पन्न होते है और नप्ट होते है ॥॥ ४१॥॥

अणवो यदि भज्येरत्‌ मज्येरस्तत्कणा अपि। अननन्‍्तावयवर्वे तु को महाव्‌ कोएणुरुप्यताम्‌ ४२॥ दृश्यते5ण में हाउचैव नाननन्‍्तावयवास्ततः योडव्धिः परामणु: मित्यो नैच विनश्यति ४३ आकाशादिके समान परमाणु भी नित्य हैं। परमाणुका यदि विभाग होता तो उसके कणोका भी विभाग होगा। ऐसे दुकड़े यदि अनन्त हो जाय तो बडा-छोटा कोई नही रहेगा किंतु दीखता है बडा- छोटा अवयबोकी न्यूनता और बहुरुतासे ही छोटे-बडे होते है। अणुको ट्टमेवाला आप भले माने, किन्तु जहा जाकर फिर नही टूटता, जो अवधि है, बही परमाणु है वह नित्य है, नप्ठ नही होता ४२-४३ ॥॥ सत्यासत्ये परे प्राहु. भ्रव्यस्तविषये बुधा- स्वाप्निकाद्या अतत्पार्याः सत्यार्था जाग्रति स्थिता ४ढवा वेधर्म्याच्च नहि. स्वप्नदिवदित्याह सूजकृत्‌ जाप्रत्त्वप्नाथपोस्तस्मात्तत्यातत्यविषेचना. ४४५ व्यस्तविषयम ही सत्य-असत्यरूप श्रोव्याक्रोब्य भी कहते है। स्वप्तनाथ असाय है। जाग्रदर्थ सत्य है। “वंधर्म्ाचच स्वप्नादिवतृ” इस सूनसे अ्ये निकलता है कि स्वाप्नार्य मिथ्या है।॥ ८४-४५ समस्‍्तेषइपि समस्तविषयेष्प्पयेव.. प्लोव्याधोच्ये जगुर्दुधा, अपर कश्चिदित्यादेरनुक्त स्वमत ्विदभु॥ ४६॥॥ एतस्पिन्निति.. हश्ये$र्मिजजगतोत्पेंसदुच्यते तेन बाउमनतातीमफ्या व्यायत्यते स्वयम्‌ ४७॥ “समस्तेध्प्यतस्मितु ' समस्तविषयमे भी विद्धान छोग धभ्रौव्य अश्रौध्य बहते है यहापर कश्चिवु अपर , पर आदि कहनेसे यह स्वमत प्रतीत

ख्ोक ] स्पन्दवातिऊकसहितस्‌ ११३

होता है “एतस्मिचृ” का दश्य जगत अर्थ है। अत वाणी और मनसे परे जो तत्त्व है वह स्वय व्यावृत्त होता है ४६-४७

जातिनित्या व्यक्तिरनानित्येत्युमपमेव )

जातिरेकेव सत्तात्या सा चोपाधेरनेकधा ४८

सत्ता ब्रह्मस्वरु्पेति तत्या नित्यत्वमिष्यते। सत्यासत्यात्मकोष्य चर प्रपस्च, सकलोष्प्यत ॥॥ ४९ 0७

जाति नित्य है, व्यक्ति अनित्य है। अत जगत्‌ उभयरूप है। (जातिरूपेण नित्य और व्यक्तिरुपेण अनित्य है) जाति वस्तुत एक ही है। उसे सत्ता कहते हैं। उपाधिवशात्‌ वह नाना है। सत्ता ब्रह्मल्प ही है। अत नित्य है। अतएव प्रपश्च सत्य-असत्य उभयात्मत्र है यह भी कह सकते हैं ४८-४९

सत्यानृते नव मियुनीहत्यः व्यवहतिर्भवेत्‌ * सर्वापि लॉकिकोत्येब साष्यकारोध्प्पभापत ॥! ५० अस्ति भाति प्रिय चंव मामरूप पत्चकम आद्य जय ब्रह्मत्प साधारूप ततो हयम्‌ ५१॥ एतत्पश्वकरूप. हि. जगदेततया. तत सर्वोष्वि व्यवहारोत हृश्यते क्रियतेषपि ख॥ ५२ थे समस्तबिषयें तस्माद्‌ प्लौष्पाध्नौष्यधिनिश्चय सर्ववेदान्तसिद्धान्तस्थीकृतोषय निज. मतम्‌ ५३ समस्त लोकव्ययहार सत्य और अनृत्तका मिथुनीवरण करके ही होता है एसा भाष्यकारने भी बताया है। अस्ति (है) भाति (भासता है) ब्रिय ये तीन और नाम (घट गादि) रूप (पृशुवुध्नोदरादि) दो मिलावर पाच हैं। इगमे तीन ब्रह्मके रूप €। दो मायावे रूप हैं। यह प्ररा जगत उक्त पचरुप है उसीसे सभी व्यवहार होते दीौखते हैं और विये भी जात हैं। फठत समस्स विपयमे भी ध्रौव्य अप्नौग्यनिश्चय सर्ववेदान्तसिद्धान्त- समव है यही पुष्पदन्ताचाय का जयना मत है ५० ५३ ॥॥ यत्सर्व॑ खल्विद ग्रह्मेत्याद्यययविचारणात नेति नेतोति यच्छास्तमन्त्यडयनिवारणात्‌ 0 ५४

“सब खत्विद ब्रह्म यह जा श्रुति है वह अस्ति भाति प्रियकी उपादानकर प्रवृत्त है और नेत्ति नत्ि यह जो श्रुत्ति है बह नामहूपकों निवारणवर प्रवृत्त है ५४ ॥॥

ढ़

११४ श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रमू [ बवमः

सर्वेभिध्यात्यवादस्तु. सेव संगन्तुमहंति अधिष्ठा्॑ बिना नैयाउप्त्पारोपत्य संभवः।॥ ९५॥ निपेघश्च॒ कर्यकार॑ समदेदाधि विता। तस्मादवध्िसत्यत्वमकामेनाप्युपेध्यते ५६ ॥।

सब मिथ्या ही है इस वादकी अर्थात्‌ घृल्यवादकी सयति नहीं हो सकती बयोकि बिना अधिप्ठान आरोप सभव नहीं है। और अवधिके बिना तिपेध नही होगा अत- अवधि सत्य मानना ही होगा ५५-५६ त्ैर्मतैविस्मित इव कथय॑ वबस्तुविकल्पना। अनेबमेवभिति हि. महिं वस्घपु विकल्प्यत्ते ५७॥)। इन मतोसे मैं विस्मित सा हों गया हूँ कि यह वस्तुबिकल्प कैसे ? एक वस्तुमे यह ऐसा नही, ऐसा ही, ऐसा विकल्प नहीं होता ५७ ।॥॥ नौलोष्नीलश्र कलश इसि सेव विकसप्यते। था घटोइधरदस्येति फ्रियेच हि विफरप्पते ५८ यह घट नील है अनीलछ है, यह घट है अघट है इस प्रकार बस्तु- विकल्प मही होता है क्रिगाविकत्प होता है-कंरो करो दोनों सभव है ५८ ॥। नाहूँ पिस्मित एवास्मि शिवमाया हिं दुर्गमा। तयाभिमुताः सुधियों. वर्णयन्त्यन्यथान्यपा ५९५ स्वप्तिद्धान्तव्यवस्यासु हं मिनो निश्चिता हठम्‌ | परस्पर विर्ध्यस्ते तेरथ ने विदध्यने॥ ६० अस्पर्शयोगो वे नाम सर्वेसस्वसुय्रो हिंतः। अधिवादो$धिण्वश्द गौडाचार्यानि् पित्तमू ६१॥। पल्पयस्त्येण भर्वेशषि भौव्याध्रोव्यादियं प्रथम्‌! यत्तो.. वस्तुयिफण्पोध्यमसंसव उदोरितिः॥ ६२५४ फल्पनायां.. विएल्पस्तु._ रार्बपोदिदर्ससतत+ सर्पो सालाप्म्युघारेति रज्णों बेकरप्पदर्शनात्‌॥ ६३ प्रिस्ित्वा बादिनों हे त्करपनां साधयन्यतः) व्ियदामों है: साधंममिवाद मिवोधन ६४ शिवमायायसश्ञीनूताः कल्पपरत्यस्ययात्यथा 4 तप्र को विश्मयों साम सा से प्रोक्ता दुस्‍त्यया ६५ हे हविस्मित धय/ विन्मिस जैसा हैं, ने कि पिश्मित ही। क्योति विवमाया दुर्गंण है। उससे शानी भी अभिभुत टोने है और अन्यपा वर्णन

खोक' ] स्पन्दवातिकसहितमु ११५

करने हैं ( ज्ञानिनामप्ति चेतासि देवी भगवती० ) अपने सिद्धास्तानुसारी व्यवस्थामे दतवादी निश्चित है अतएव वे परस्पर विरुद्र हैं। उनके साथ हमारा विरोध नही है “यह सगरहित ब्रह्म बयी योग सर्वेसुसकारी हित- कारी है। यहा कोई विवाद नही, विरोध नही” ऐसे गौडपादाचार्यने वर्णन किया है। ध्रुव अभ्रुव यह सब अपनी-अपनी कल्पना है। क्योकि वस्तु- विकल्प नही हो सकता यह वत्ा चुके हैं। हा, जैसे शियामे विकत्प होता है बैसे कन्पना में भी विकल्प हो सकता है। रज्जुमे यह सर्प है, यह माला है, यह जलघारा है ऐसा कल्पनातविकन्प होता है। फलत पूरे वादी मिंठकर द्वंतकी कल्पना ही सिद्ध करते हैं तव उनसे हम विवाद क्यों करे ? हमारा अविवाद ही है। शिवमायाके वजीभूत होकर लोग अन्यथा अन्यथा कल्पना कर रहे है। इसमे हमे कोई विस्मय नहीं है। क्योंकि शियमायाकों पार करना कठिन हैं॥ ५९-६५

शिवमायां तु॒वोदगवमाश्चर्यच कितो5सम्पहम्‌

अहो. कयमिय लोकान्नतंयत्येव यस्जवत्‌ ६६

ज्ञानिनामपि चैतांसि देवी भगवतोीहिया।

बलादक्ृष्प मोहाय महामाया प्रयच्छति ६७

मायिक त्विदमादाय क्रय स्तोषीति चेच्छूणु।

मुखरत्य॑ तत्र हेतु यक्ष्यामोध्नुपद बयम्‌ ६८

हां, यह वात जरूर है कि ऐसे नानामतविरोधके हेतु शिवमायाको देखकर मैं आश्रयंचकित ही होता हैं अहो ! यह माया लोगोको कंसे नचा रही है। यह वचन सत्य है जो शास्त्रोमे उक्त है “वह भगवती महामाया ज्ञानियोंके चित्तवों भी वछातू सौचकर मोहमे डालती है।” यह सारा जगत यदि मायिक है, वास्तविक नही, तो इनसे आप कैसे स्तुति करेंगे ? इसका उत्तर अभी हम देंगे वि में मुखर हैं ६६-६८ यद्वा विरद्धस्पत्वादेत न्मिय्पात्व निश्चये मिथ्यामुर्तेहि में: रात्यमुपलक्ष्यास्मि विस्मित ६९ कंश्रिदाध्ययंवत्यश्यत्याचप्टेघ्न्यस्तवंव च्चा श्यणोत्याश्रपंवच्यान्य इत्येब स्मृतिपूदितम ७० अयबा 'तैविस्मित इध ' या लर्य -्ैविरुद्वेरत एवं मिश्याथ्रतेसप- लक्षित सत्य वीक्ष्य बिस्मित जयातू ये मत परस्पर विरद्ग होनेरो जगाय्‌ मिख्या कापना है यह सिद्ध होता है। तब सम कोर्ट और है ऐसा निश्नय-

११६ श्री शिवमटिस्न स्तोत्रमु [ नवमः

कर सत्य की खोज हुई। उसे देखा तो आशभ्र्य सा छगने लगा। गीतामे कहा है--कोई उसे आश्रर्यवत देखता है, कोई आश्रर्यवत्त बोलता है, कोई आश्रयंवत्‌ सुनता है ॥॥ ६९-७०

विध्मितोस्म्यद्भुताकारे नितरां परमेश्वरे सोशहमेतमंते: कुर्वे. स्तोत्रमित्यन्थयो5थबा ७१ नेंब तात्पर्ममेप्वस्ति.. शिवतत्परचेतसः उदर्य छय॑ चेव सांज्यवस्प्रम्नवोम्यहम्‌ ७२॥ क़वुध्वंसं बदत्‌ ववापि वच्चि नंपायिकादिवतु वेज तत्त्वं यन्न त्वमिति वेदान्तिवद्‌ भुवे ७३ ।१ पौराणिककया वच्मि सर्वेसत्यत्ववादिवत्‌ एतैरतो मतेः स्तोनं वदासि भयतः प्रभो॥ ७४॥ विस्मित इव तैमेते स्वुबनू ऐगा भी अन्बय हो सकता है। भर्थात्‌ परमात्माके विपयमे मैं विश्मित हूँ मैं इन्ही पूर्वोक्त विर्द्ध मतोकों छेफर स्तुति करता हूँ। इनमें मेरा फोई तात्पर्य नही “जगदुदयरक्षाप्रलयक्ृतु” यहा प्रलुयग शब्दसे सारयमतानुसार बोलता हैँ “फतुष्वसस्त्वत्त यहा ध्वस पदसे नैयायिकमतानुसार बोलता हूँ 'न विद्स्तत्तत््व वयमिह तु थत्त्वे” यहा वेदान्तीके शब्दोमे बोलता हैँ और “तवैश्वर्य यत्नातु” इत्यादि पौराणिक कथास्यानमे सर्वरात्यत्ववादी जैसा बोलता हूँ इस प्रकार इन्ही मतोको लेकर ही भगवत्स्तुति कर रहा हूँ ॥॥ ७१ ७४ ॥॥॥ एचमन्वयपश्चस्तु सम्पयद ने घटतेतराम्‌ ! सकलाएइश्लौव्यपक्षेण स्तुतेरत्रानवेक्षणात्‌ ७५ परन्तु ऐसा अन्बय बहुत ठीक तो नही लगता है। क्योकि “सवालम- परमयक्ुव ' इस वौद्धपक्षकों लेकर यहापर स्तुति देखनेमे नहीं रहो है ७५ समस्तपक्षों यदि छुरोपो मात्र गण्यते॥ समस्त इत्ति रर्वस्मिन युक्ता होर्भेददर्शनात्‌ ७६ तथावि नाहू. जिलेमोस्पेवमन्पय इृष्यते 4 इदकारास्पद सर्वमशथ श्रृतिसंमतम्‌॥ ७७ ने हु बोउमतागपानम्रप्र श्लोफे तु बियते॥ गत्तोणेजिद्तोत्यग्र याघित ततत्परमू ७८ एवं मनत्रयेणाप्र स्तुति स्पष्टा किलोगय्े। इत्युड्यते तवा प्रोत्तीष्प्यस्ब्योत्षर तु) सेमयेस ७९

शक | स्पन्दवातिकस हितम्‌ ११७

यदि “समस्तेष्प्येतस्मिन्‌” यह चतुर्थ पक्ष नहीं है) समस्ते5प्येतस्मिय्‌ जिह् मि ऐसा अन्वय है। अर्थात्‌ ये सभी मत परस्पर भिन्न हैं, इन सबको छेकर स्तुति करना लण्जास्पद है, पर मुखर होनेसे मैं छज्जाका अनुभव नहीं करता ऐसा मतलब है ( लगभग इसी ग्रवार मधुसूदन सर- स्वतीकी व्यास्या है ) सकलमपरस्त्वधुवमिद यह वेदान्तपक्षकथन है इदसे इदकारास्पद दृश्य जगत केना चाहिये वह अनित्य और असरुत्य है ( दृक्‌ असत्य नही ) यहा बौद्धमत्तका वर्णन नहीं है ( आचार्योने वोद्धवर्णत किया है किन्तु वह अग्राह्म है) सकलाभुवमतवी झलक “त्रयी तिखों वृत्ती इस खझ्लोकमे तीणंबिकृतिसे मिलती है | क्याकि तीर्णविकृतिका वाधित इत ससार अर्थ है। फ्छत तीन मतोवो छेकर ही पूरी स्तुति है एसी व्यास्था करेंगे तो तैमेंते स्तुव॒द्‌ उक्त तीन मतोंसे स्तोत बरता हूँ यह अन्बय भी यहा सभव है ७६-७९॥ अन्पान्यमतवाधेन फल्पित सफल मतम्‌। तद्बहिर्मावविरहात्‌ कल्पत चाम्निल जगतु ८०॥ एत्त्स्फुटयितु. वीद्धमतमप्यत्न दशितस्‌ न. पुनस्तन्मतेनापि स्घुतिरत विवक्षिताव ८१॥ तेरित्यनेन चर पुनवों दधवर्जेस्तिलिमंते स्तुवनच्चिति यदा व्यास्या साप्यन्न घटतेतराम ८२४ यदि ऐसी व्याख्या वी जाय वि! परस्पर मतवाध हानेसे सभी मत कल्पित हैं। मत कल्पित है तो मतविपय जगत भी कल्पित ही है इस बात्तको स्पप्ट्नर बरने माजके छिये बोद्धभतोपन्यास किया कि उस मतसे भी स्तुति यहा विवक्षित है। ते स्तुव॒न्‌ का वौद्धतर तीन मतापे स्तुति करते हुए ऐसी व्याख्या करो तब जिस व्यास्यारी सम्यर घटना नही है ऐसा पहले बताया वह व्यात्या भी सगत हो जायेगी ॥| ८०-८९ नमु॒ सर्व मतमिद वार्चय प्रतिपाधते तदा वाग्विपयस्थेव फिपतत्व समागतम्‌ ८३ त्दा च॒ स्वुतिरप्येषा दाग्रुपा करिफ्तयदेत्‌। स्तुतिश्व कल्पितार्यन सज्जयेत्‌ कि मानवम्‌॥ ८४ उच्यते नास्ति मे लज्जा मुखरो $स्मि रतुतोी यत मुखरस्य च॒ घुप्टत्य लण्जा यृष्टस्य का मवेत्‌ ८५ पूर्वपक्ष - जगति गदति ने अनुसार थे सभी मत याणीक्ष पप्तिचतानित डोत 9 | थे रब ल्पित है तो उसबा मतलब धाग्विपयमात्र

2]

११८ श्री झिवमहिम्न, स्तोनश्ु [ नवमः

कल्पित है। तब आपकी यह स्तुति भी वाणी होनेसे उसका बिपय भी कृल्पित हुआ कल्पितार्थंसे स्तुति करना तो छज्जाका विपय है! ( जैसे सूखेमें विद्याकी कल्पना कर उसे विद्वान कहना ) समाधान यह है कि मुझे कोई लज्जा नही है | क्योकि मै वाचाल हूँ वाचाल धृष्ट होता है। धृष्टका भला क्‍या लछज्जा हो ८३०८५

दुलेभो यस्य काचो$पि स्वशुद्धया स्तोत्यसों नूगम्‌ ? काचहारसुशोमीति मिन्‍दा तदहप्ठितों नसा॥त ८६ विस्मितः फाचदौलंम्यान्भुखरों जायते यथा। अविचिन्त्येव तद्दोपगुणों स्तोत्यप्यतो नुपस्‌ ८७ ॥॥ अविचिन्त्म जगदुश्लौव्याक्रौव्यादिकमहँ तथा दोक्षितेम महत्त्वेव भगवनन्‍्त स्तवीमि हि॥ ८८

जिसके लिये काच भी बुलेभ है उसकी दृष्टिमे काचकी भी महत्ता है। काचके हारसे बह राजा चमक रहा है वैसा वह कहेगा | उसकी दृष्टिमे वह निन्‍्दा नही हैं। काचकी दुर्ल॒भतासे उसे देखनेतर रुश होकर जो मुखर हो उठता है, वह काचके गुणदीपको क्यों सोचने तगेगा ? चैसे मै भी ध्रौव्य अप्रोव्यादिकी ओर ध्यान देकर प्रत्यक्ष महत्वसे भगवत्स्तुति करता हूँ ८६०८८

अय भादो हरोत्कपंतात्पर्थ केक्‍ल॑ सम

अरुवर्थमुपादायाप्पुरकृर्षपो.. वर्ष्यते. दुधे: ८९

यथा वपामसुदखिदत्प्रजापतिरितोरितस्‌

असदर्थभपि स्पष्ट. बच उत्कर्पमानयेत्‌ ९० ॥।

उत्कर्षश्व सहेशान्न मिद्यते तेन सोध्प्यसन्‌

फूततीं नेति तु शज्धान्र जायते नव धीमताम्‌ ९१

तस्मात्सवथं मम्त चचः स्टतुत्यर्थ युज्यत्तेतरामु

तदेतदाहू खलु जिल्लेमीत्यादिना सुनिः॥ ९२॥॥

यहा भावार्थ यह है कि स्वुतिवचनोमे शकर भगवानका उत्कर्षमाच

तात्पर्यंबिषय है। वाउप्रार्व जसत्‌ होनेषर भो उत्कर्षवर्णत हो सकता है। जैसे “प्रजापतिवंपामुदर्खिदत्‌” यहा पहले बताया यह द्ाका करें कि उत्कर्प भी तो असनु है तो उत्तर है-नही | उत्कर्प महेंब्वरसे अभिन्न होनेसे असत्‌ चही है। अत उत्कर्षवर्णनार्थ मेरा सभी स्तुतिबचन युक्त ही है। युक्तम फिर लज्जाकी वात कहा रह जानी है ? यही “'स्वुव्जिहं मि स्था सजु” इत्यादिसे पुप्पदन्त मुनि बता रहे है ८९-९२

श्लौकः ] सपन्दवा तिक्सहितम्‌ ११९

यस्मसिन्‌ बिकहिपतं लोक यथाबुद्धघखिलं जगत्‌ तस्में नमोड्स्तु कस्मेंचित्‌ परस्मे परमात्मते ९३॥ अपनी बुद्धिके अनुसार छोगोने जिसमे समस्त जगत्‌की कल्पना की उस वाचामगोचर पर परमात्माको मैं प्रणाम करता हूं ९३ इति थ्री काशिकानन्दयोगिनः कृतिनः कृतो महिम्नः स्तोत्रविवृती स्पन्दो5्य नवमों गतः॥ !

जि

दह्यम: दलोकः

अतद्व्यावतंनद्वारा शक्‍्यस्तवन ईश्वरः अर्वाचीनपदद्वाराप्येवमेव महेश्वरः १॥ अतदृव्यावृत्ति करते हुए परमेश्वर का स्तवन सभव है और अर्वाचीनपदके द्वारा भी भगवानकी स्तुत्ति करना शकय है।। १॥ अर्वाघीनप्द नाम तस्येब परमेशितुः। स्वेच्छागूहीतरसूपेण. युक्तमोपाधिक॑ पदम्‌ तदेतत्‌ स्तवनोयं चेत्‌ सुतरां तु तिपात्पदम्‌ स्तवनीय भवेत्तेम द्वारा रुपेण निर्मुणम्‌ ३॥ अर्वाचीन पदका मतलब है उसी परमेश्वरका स्वेच्छागूहीत औपा- धिक स्वरूप वह यदि स्तवनीय है तो उसी रुपके द्वारा श्रिपात रूपी निर्गुण पद भी सुतरा स्तवनीय होगा २-३ यश्याय॑ सहिमाईर्वाधीनपदेश्नादेस्तु प्रमोः। तत्स्तवे परमस्पेव स्तुतिः शंभोः स्वभावत: मिप्टान्ने यदि मधु स्थादुरुपेण चेत्स्तुतम्‌ शर्करायास्तु॒माधुय स्वपमेय स्तुतं भवेत्‌ ५॥।

१३० श्री शिवमहिम्न: स्तोनम्‌ | द्मः

और यह भी वात है कि अर्थाचीत पदमें जो महिमा है वह अनादि प्रभुकी ही महिमा है। अत. कर्वाचीनकी स्तुति से अवादि तत्त्वकी स्तुति अपने जाप हो जाती है। मिठाईका माधु्ये सरसरपम यदि बखाना गया तो शबकरके माधुयेकी बखान अपनेआप हो जाती है ॥॥ ४-५ महिमान॑ प्रथयितुं निज॑ परभमड्भ लम्‌। घतते मभगवानेतदवचोीनप्द त्तया॥ ॥। और भी बात यह है कि अपनी परममग्॑ महिमाको प्रथित करनेके छिये ही परमेदवर अर्वाचीन पद ग्रहण करते हैं। फछतः अर्वाचीनपद द्वारा मूछ महिमाका ज्ञान होता है तो अर्वाचीन पदस्तुतिद्वारा मुरूपदस्तुति स्वतःसिद्ध है यथा छातद्व्यावृस्येपा फर्य॑चित्पाहु मां धुतिः। कथ्थ तथा जानीयु: सर्वे सुकृतिनों हि माम्‌ | अविज्ञातपदा: सन्‍्तः सनन्‍्तोषयि मामियुः उपासनाये: प्रकृतिलयान्त तु फल मतम्‌ अ्रकृतिप्रचिली नाश्च परमाननन्‍्दवर्णिता: पुरुषार्थच्युता जोवा भविप्पन्ति ले संशयः

पशुनां हनत जीवानां पतिरेपरोइत्सि पालकः श्रत पालपितब्यास्त इति ब्यवसितों हुरः॥ १० ॥॥

अर्वाचीनपर्द धर्ते सन्तस्तद्वोध्य चाद्भुतम्‌ महिमान समन्विष्य मुल जानन्ति तत्पदम्‌ ११३ इसको कुछ और स्पष्ट समझिये--भगवान झकरने देखा कि मुझे

श्रुति भी अतद्‌ व्यायृत्तिसि यथाकथचित्‌ वहती है। ऐसी स्थितिमे ये सब पुण्यात्मा कैसे मुझे जान पायेंगे ? मुझे जाननेपर बड़ें-बड सन्त भी मुझे प्राप्त नही होगे। सामान्य उपासनाओसे थे केवरू प्रकृतिकीन होगे। प्रकुत्तितीन होनेपर परमानन्दकी आप्ति नही होगी। इसप्रकार ये जीव पुरुषार्थच्युत होगे। जीवरूपी पगुओका मैं पति ठहरा। अत. इनका पालन मुझे अवश्य करना चाहिये। भगवान शकरका यही निश्चय था। तदनुप्तार शकरने अर्वाचीन पद घारण किया। सन्त पुरुष उस अद्भुत अर्वाचीन पदको देखकर मूल महिमाका अन्वेषण करते हुए उसे भी जानने लगे ७-११

ख्लौकः ] स्पन्दवातिक्सहितमु १३१

अर्वाचीनपदस्यातो मुलपर्थन्तगामितो पारम्पर्येंग. भवत्ति स्तुतिरित्येष निश्चयः॥ १२॥॥ अत. अर्वाचीन पदकी स्तुति परम्परया मुलपदगामिनी है यह निश्चित होता है १२॥॥ अतः पौराणिक्ीमिस्तन्महिमाव॑ प्रभावते। इमशानश्लोकपर्यन्तमर्वाचीस॑.._ कयादिभिः १३ प्रसद्भुत- वबचित्‌ साक्षादिव चापि न्यारूपयत्‌ फ़तुसुप्तिप्रवचनप्रभृताविति बुध्यताम्‌ १४ अत पुप्पदन्ताचार्य 'इमशानेष्वाक्रीडा' छ्लोक्तक पौराणिककथाओसे अर्वाचीनमहिमागान करते हैं। प्रसज्भत 'क्रती सुप्ते” इत्यादिमे साक्षात्‌ जैसा भी मूलमहिमानिरूपण है १३-१४ ॥। तवैश्वर्य य्त्नाद्दुपरि विरिश्वो हरिरधः परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः

ततों भक्तिश्द्धाभरम्रुरगृण्भूघा गिरिश यत्‌ स्वय तस्थे ताभ्यां तब किमनुवृत्तितं फलति १०

है गरिरिश ! आपके ऐश्वर्यकी सीमा देखनेके लिये यत्नके साथ ब्रह्मा और विष्णु आपके ज्योति्िज्धके ऊपर और नीचेकी ओर चले किन्तु थे असफल हुए। वे फिर अतिश्नय भक्ति और श्रद्धाके साथ जो स्थुत्ति करने छगे थे, उसीसे फिर आपने उनके समुख अपने स्वस्पको प्रकाशित किया आपकी ऐसी सेवा कया वया फल नही देती ? १० तवेश्वयं तवेश्वयं यत्तदिति प्रायत॑व समागतम्‌ तुल्यशब्दद्यादृ त्तिरैश्वर्येक्च दिवक्षया १५॥ भ्रयोवस्तु यदेश्वर्य प्रिपादुष्नह्मात्मक्क परम्‌। अर्वाचीनपदद्वा रा तदेवात् निरुष्यते॥ १६॥॥ 'तवैश्वर्य यन्तज्जगदुदय” इत्यादि पहले आया है। यहा तवैश्वर्य यह समानपद दोनों जगह ऐड्वर्य एक ही है यह बतानेके लिये है। भर्यात्‌ जो त्रयी वस्तु त्रिपाद ब्रह्महप परम ऐश्वर्य है, जिसका श्रतियादन पहले हुआ, उसीको यहा अर्वाच्ीनपदके निरूपणने द्वारा निरपित किया जा रहा है १५-१६

१९१ श्री शिवमहिस्न: स्तोभम्‌ [ दशमः

यदहुपरि० तवेश्यय परिच्छेतूं शायेन फ्रिययापि च। उपयंधों ब्रह्मथिष्णपू जम्मतुः प्रभुमानिनी १७ आपके ऐश्वर्यका ज्ञान और क्रियासे परिच्छेद करनेके छिय्े अपनेको प्रभु माननेवाले ब्रह्मा और विष्णु ऊपर और नीचे चले १७

अनजस्कन्ध

रुप्रो या एप खल्बस्निरित्ये्य भरुतिपु श्षुतम्‌॥ स्कन्धो वक्षस्य सूलोध्वभागों यो दोर्घवतुंलः १८॥ स्फस्धाकारं धपुर्दोधशिबलिज्डज मिहोच्यते अनलो ज्तोतिरथंड5पि ज़्योतिलिज्ध विवक्षितम्‌ १९ ॥। “रद्दो वा एप यदग्निः” ऐसी श्रुति है। उस अग्निका स्कन्ध अमलस्कन्ध है ऊ़बे गोल-गोछ वृक्षके थड़को स्कन्ध कहते हैं। स्कम्घा- कारमें प्रज्वलित अग्नि शंकरका शरीर है। अनलका अर्थ ज्योत्ति भी है भत्तः ज्योतिलिज्ध जर्थ विवक्षित है १८-१९ स्कन्धः समुदगेड्पीति फोशात्‌ प्रुठुणार्थथाचकः ज्योतिःपुड्जवपु. सो5पि ज्योतिलिड्भस्वरूपधुकू २० "स्कन्ध. समुदयेशपि स्पात्‌” ऐसा कोशमें बताया है समुदयर- समुदाय अर्थात्‌ पुज्ज ज्योति-पुर्जशरीरका मतलब है- ज्योति्छिद्धूस्वरूपधारी ॥। २० ज्योतिलिड्धं: पस्चमुश्चं शिवतत्वमिहोच्यते 4 कि वा पूर्ण परशिवतत्त्वमेव विवक्षितम्‌ २१॥ ज्योति्िद्धका भर्थ है पचमुष्त शिवतत्व। जथवा पूर्ण शिवतत्त्व दही यहा ज्योति्छिड्धका मतलूव है २१॥

गनऊस्‌

अनले तावपर्याप्ती परिच्छेतु बभूचतु: शेकाते परिच्छेतु शंच ब्ह्मयविधी पबमू २२

किन्तु वे अनल हुए अर्थात्‌ शिवलिड्ध परिच्छेद करनेमे अपर्याप्त हुए ब्रह्मा और विष्णु शिवलिज्भुको परिच्छेद नही कर सके २२

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शौक | स्पन्दबातिकस हितमु १५३

ब्रह्मा. कदाचिदगमत्‌ क्षीरसागरशापिनम्‌ शयान ते विलोक्याह कस्मात्स्यपिधि युत्रक॥ २३ आएच्छन्नसितन्‍्ध स्यादश्युत्यानादिभि सुते गुरुरेपा भवेच्छास्ममर्यारा ता स्मरात्मज॥ २४४७ एक समय ब्रह्माजी विष्णुके पाश गय। प्िष्णु क्षी रसागरमे शेप- शय्यापर लेटे हुए थे ! वैसे उनको दखकर ब्रह्माजी बोल--बंटा, कैसे लेटा हुआ है ? पिता जब आते है तो पुत्रका कतेव्य है [कि वह उठकर वन्दन करे। यही शास्त्रमर्यादा है। उसको स्मरण कर २३-२४ विष्णु --हन्त पुच्क भो ब्रह्मन्‌ बेदानू विस्मरसि स्वयस्‌ वन्‍्ध वन्दस्व सा तात पादस्पर्शादिभिहरिस्‌ २५ स्तब्ध एपि बथ मा त्व प्राज्मानी जगत्पतिम्‌। अशिक्षयमह प्राक त्वा समर सम्पक्‌ समाहित २६॥ विप्णुन क्हा--हाय ! पुन ब्रह्मन्‌ | कैस तुम वेदोकों ही भूछ रहे हो ? वन्दमीय मुझ हरिकी चरणस्पर्शादिसे बादना करो। तुम अपनेको पण्डित जैसे समझते हुए स्तबन्ध टीकर जगत्पति मेरे पास आये हा। यह भछा कैसे? मैंन तुमको पहले ही वेदोकी शिक्षा दी थी। समाहितचित्त होकर उसका स्मरण करो २५ २६ ब्रह्मा “कथ त्व मम तातो5॑ि तातोः़ह विश्वसूडू यत विश्व सृजस्त्वा चाह पितामह इत्तोरित २७॥ जगत्पतिर्भवे काम पालयेथा जगत्व्रयम फथय पालयितुर्नाम स्रप्टृत्व समुपागतम्‌ २८ ब्रह्मा बोले -तुम मरे पिता बस हो ? मेरा नाम विश्वमृद है। सारे विश्व को मैंने बनाया जिस विव्वमे तुम भी जाते हो | इसलिये मेरा नाम पितामह भी है। तुम जयत्पति हो उसका कौन निपध करता है ? जगत्‌का पालन करो। विन्तु पाछऊ स्रप्टा कहासे बना २॥ २७ २८ विष्णु -अहो मृढ्द जानासि मन्नामेरेल्वत्थमुद्धवभू। सृज विश्व पर त्वा तु सृजाम्यहूसिति स्थिति २९॥ अमभिवादनशीलस्प चित्य वृद्धोपसेविन चत्वारि तस्य दर्धन्ते आयुविद्या यशों चलम ३० ॥॥ समाभिवादयते यस्‍्तु वृद्धान्नद सेवते। चत्वारि तस्य मश्यन्ति आयुविद्या बशो बसम्‌ ३१

१२४ श्री शिवमहिस्न स्तोतम्‌ [| दशमः

तदय तेःविनीतस्थ गतमायुनिबोच से। चक्रेणाय शिरस्ते तु छिमग्मीक्षस्व तत्क्षणात।॥ ३२ ॥॥ विष्णु बोले- अरे मूढ् मेरी नाभिसे तुम पैदा हुए यह क्‍या नहीं

जानते ? तुम जगतकी सृष्टि करो पिन्तु तुम्हारी उत्पत्ति करनेवाला मैं हैं | अभिवादनश्रीलछ वृद्धसेवारत पुरुषके आयु विद्या, यशा और बल ये चार यदि बढते है तो जो अभिवादन और सेवा नही करता उसके वे ही चार-आयु विद्या यश-बर नष्ट भी होते है। आज तुम्हारी आयु समाप्त हो गयी समजझ्न छो। इस च# से तुम्दार देखत ही पस्लिर काट गिराता हूँ २९ ३२

बहा -खप्टा स्वथभु इति वर्तुर्यलिशता स्फुटा | कस्ते सावयवस्यात्ति स्रष्टान्यों महत्ते बद ३३ ॥॥ चेदमागविहन्तार हुन्त ह॒न्तास्मि सप्रति। ब्रह्मास्त्र पश्य मेण्त्युप्न स्मरणीय स्मराधुना !! ३४॥॥ ब्ह्माजी बोछे-मेरा नाम स्वयभू है। स्वयभूका स॒प्टा मैं हूँ कहने- वालेकी मूर्खता स्पष्ट है। तुम सावयव हो। सावयव होनेसे उत्पन्न हो। तुम्हारा लप्टा मेरे सिवाय कोन होगा ? वेदमागका उल्लघन बरनेवाले तुम्हारा आज मैं हनन करूंगा मेरा यह अत्युग्र ब्रह्मास्त देख छो और अन्त समयमे स्मरणीयका स्मरण कर लो रेरे रे४ इत्येब. प्रववन्ती तावारभेता महारणम्‌ हाहाकारो._ महानासीत्तदा देवासुरादिषु ३५॥ बरह्मास्त प्राक्षिपद्‌ बह्मा चक्र प्राहिणीद्धरि तत्सधट्टसमुत्याग्तिज्वाला. विश्वमजज्वलत्‌ ३६ ॥! इस प्रकार कहते हुए सचमुच दानोने महायुद्ध ही प्रारम्भ किया | देवासुरादिम उस समय बडा हाहाकार मचा ब्रह्माजीन ब्रह्मास्थ छोडा, चक्रपाणि हरिने चक्र छोडा दोनोकी टबक्रसे जो अग्निज्वाला पैदा हुई बहु सारे विदवको जलाने छगी ३५-३६

देवासुरादय सर्ये निर्भर भयविद्दला तुप्दुबु परमेशान रक्षरक्षेति बादि। ३७१ तदा तयोसन्‍्तराल ज्योतिर्लिज्ध परात्परम्‌। जनाद्यनन्त सहसा श्रादुरासीत्मपुधष्यतों ३८ ब्राह्मम॒स्त्र तदा तस्मिन्‌ चृष्णव चफ्रमेव थे ज्योतिलिड्रेश्न्नलीयेता. तददुनुतमिवाभवत ३९

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देवायुरादि सभी भयवित्र5 होवर रक्ष रक्ष कहत हुए भगवान शड्डूरकी स्तुति करने एगे। तब ब्रह्मा और विष्णु दोनोके मध्यमे अनादि अनन्त ज्योतिरिद्ध सहसा प्रगट हो गया। और सामने ही देखते देखते ब्रह्मास्त और वैष्णव चक्र दोनो ही उप्त ज्यतिलिड्धमे लीन हो गये यह बडा आश्चर्यकारो रहा ३७ २९ ॥ा हन्दावधोधिवादसप ज्योतिलिज्ञ निधृत्तये। इदमागात्तस्य पारद्रप्टा ये से गुरु पिता॥ ४०

हसाल्दस्तता ग्रह्मा वराहाकृतिरच्युत

ऊध्यें चाधश्न तत्पार दिहक्ू त्वरित गतो॥ ४१॥

अनव्ध्या साधवोष्चस्तात्पार ध्वस्तमदस्तत्त

न्यवृत्तत्‌ स्वोयशिष्यत्वशड्भूया विमता इब ४२॥

दोनो वोल--देखो, देखो हमारे विवादका निपटारा करनेऊे लिये

मध्यम यह ज्योतिलिज्ज जाथा | इसका जो पारद्रप्टा होगा वही गुरुया पिता होगा | ब्रह्मा हसारुढ होकर ऊपरकी ओर चले | विष्ण बराहरूप धारणकर नीचेकी ओर चलछटे॥ धिप्णु उऊम्ब समय तक जाकर नीचे पार पाकर नसप्टगर्व हाकर छोटे बननेदी श्द्धासे हताश जैसे वापिस छीटे [[ ४० ४२

अहष्टवारोडषषि विधि शिषप्पत्वभयचिल्लुल

ऊध्य पश्यन्नवैक्षिप्ट केतकी घेनुसेव च॥ ४३

ऊृत्या ते शापभीते तथेब वरलोमिते॥

अक्रीत्कूटसाक्षिप्यी. तज्ज्योति पारदर्शने ॥| ८४

ऊपर जात जाते ब्रह्मा भी पार नहीं पा सबे। लेकिन छोट बन

जानेबे भयसे ऊपर दखते रह इतनेमे वहासे केतवी और कामघनुको नीचेवी ओर आते हुए देसा उपवो वहा कि तुम दोना मेरे कूटठ साक्षी बनो | विष्णुनों मैं कहूँगा वि मैंन ज्योतिवा पार देसा। असत्य वबोलनेम भ्रथम दोनो हिचकिचाने छग्ी। ब्ह्मान पहा एसा कहोगी ता में तुम दोनोवों शाप दूगा। मैं पह्य हैँ और वैसा बटागी ता वुम्ह ससारम सर्वोत्तम होनवा वरदान दूगा आासिर दोनोने मान रिया ४३ ४४

प्रसन्नमिय ते हृष्टवा ब्रह्माण बिभना हरि +

पत्रच्छ पारमंक्षिप्ठा हि साक्षी चान दो बंद ४५ ॥।

भ्रहमेक्षिपि तत्पार प्रृच्छेमी साक्षिणों पुर

दृचर्यलेश्चासपद्धेतु. शिर सोपन्ब्यतोप्परा ॥। ४६

११६

श्री शिवमहिस्नः स्तोम्रम्‌ [ दशमः

पायत्पणस्तुघुत्तिप्टत्यच्युतस्तावदेय हि रद्र माविबंगों घारों वीक्ष्य स्रिप्टेडनू्त हुरः ४७ नजेम पश्चम॑ धातु: शिरोष्च्छत्तोदसत्यवाक्‌ शशाप धेनुकेतक्यावपृज्यत्वाय शद्भूर: ड८ प्रहश्यममयज्ज्यो तिलिड्र॑ चद्यो$तिविस्मयम्‌ झुड्ठम कपालो मिरगादटन्‌ सिक्षां काशिकाम्‌ ४९

विष्णुने निराश होकर प्रसन्नमुख जैसे ब्रह्माकों देखा और पुछा

आपने ज्योतिका पार देखा ? यदि देसा तो साक्षी कौन ? ब्रह्माने कहा-- हाँ, मैंने देखा, ये दो साक्षी हैं, पुछ छो | परूछनेपर कामधेनुमे सिर हिलाया जिसका हाँ और नदी दोनो अर्थ हो सकते थे किन्तु बिष्णुने समझा--हाँ केककीने शुयान्थि जैलापटर सातों सुशित किय्ा-हाँ देखे!। तब मिः्णु अपनेकों ब्रह्मासे छोटा समझकर प्रणाम करने उठे शिष्ट पुरुषमे यह अनूत देखकर भगत्राव शड्भूरः रूद्ररुपसे प्रकद हुए और झूठ बोलनेवाले ब्रह्मके पांचवे मस्तकको नाखूनसे काट गिराया। कामधेनु और केतकी दौनोको शाप दिया कि आधी भूठ बोलनेसे दोनो ही अपूम्य बदो। ज्योतिर्णिज्ध अदृदय हो गया ब्रह्मवधप्रयुक्तपापनिवृत्यर्थ कपल्यारी हो भिक्षाटव करते हुए रद्र भगवान काशी गये जहाँ ये पापमुक्त हुए ४५-४९

ततो. भक्तिश्नद्धा० तत्श्रव भक्तिश्षद्धाभ्यामगृणीतासुमावपि पूजाओरन्वव्ेंता.. शिव ग़लितविस्मयों ५० सब मक्तिरिति ख्याता यतस्तव्‌ भक्तिलक्षपम्‌ पूजादिष्वनुराग हि पाराश्यों जगाद बतु॥५१॥ मक्तित्तु. परमश्रंमतक्षणा नारदेरिता। तपोपलक्ष्यते पूजाभ्रभ्न तिर्भक्तिलक्षणम्‌ ५२ 0 तथा च॑ भज सेबायामित्यूथे पाणिनिमु निः अग्रब्नुबृत्तिकयनमतः. सद्भचछते. मुनेः॥ फरे

इसके बाद भक्ति और भरद्धासे ब्रह्मा और विष्णु दोनोने भगवानकी

स्तुति की गर्व छीडकर पूजा आदिसे शिवकी सेवा की यही यहाँ भक्ति पदार्थ है! क्योंकि पूजादि भक्तिरक्षण है ) “पूजादिप्यनुराग इति पराराग्र्य इस प्रकार सारदीय भततियूतम पाराणर्य ( व्यास ) सतसे पूजादि असु राग को भक्तिछक्षण बताया हू भक्ति तो परमप्रेमकों बहते है यहाँ बह भी

झोक ] स्पन्दवातिक्सहितस ब्‌र७

अथ्थे है। उससे पूजादिवा उपलक्षण भी है। अतएवं “भज सेवाया” ऐसा पाणिनि ऋषिने सेवा अर्य बताया इतने श्रमसे पूजादि अर्थ क्यो करना ? इसलिये कि आगे इसका अनुवाद भनुवृत्तिपदसे करेंगे--तव किमनुवृत्ति्न फलति ५०-५३

श्रद्धा ध्वास्तिक्गबुद्धि स्पाच्दत्‌ सत्य घत्त इत्यत

नासपन्‍्य परमात्मेति पूर्व यो प्रभुमानिनों ५४॥॥

अस्तीति तावमन्येता सा श्रद्धा हरिवेघतों

उत्वर्प वत्त्ववुद्धिरवां शद्भू रेष्पारतेजति ५५ ॥!

मानसश्य प्रणामाविरत चोत्कर्षधीमब

विवक्षितों माउसानुवृत्तिचेतेत. लभ्यते ५६

श्रद्धा आस्तिक्ययुद्धिकों कहते है! श्रत्‌ सत्य दधातीति श्रद्धा ऐसा यहाँ विग्रह है। सत्यधारणा ही आस्तिकता है। प्रथम ब्रह्म और विष्णु अपनेकरो ही प्रम्‌, मान रहे थे। अन्य परमात्माका अस्तित्व नही मानते रहे। सप्रति वे मानन छगे कि हमस परे परमात्मा है। अयवा उत्कर्षवत्त्ववुद्ध श्रद्धा है। उतर्पपोधानुकूर व्यापार प्रणामादि भी यहापर विवश्षित है का्यिक प्रणामादि तो भक्तिसे गतार्थ है। अत मानस प्रणामादि ग्राह्म है। इस मानसानृवृत्तिका भी इससे छाभ है ५४ ५६ भरग्रुरु०

यथोक्तमवितथद्वास्या भृश गुरु यया तथा।

सगौरव सुस्थिर चाप्यगृणीता महेश्यरम्‌ ५७॥

गिरण स्तुतिरेबात्र सा रोवा वाचिकी मता।

अनुवृत्तिरिय चाषि भवेद भगवत स्थुति ५८॥॥

पूर्वोक्त भक्ति और श्रद्धास भर अथातू्‌ अतिशयरूप गुरु भूत अर्थात्‌ गौरवस्थिरताके साथ दानोंते महंश्यररी स्तुति की। गृ घातुस गृणद्भाया शब्द है। गिरण रतुतित्रा बहत हैं स्तुलि वाचिय सवा है अत यह स्वृत्ति अगवानकी वाचिकी अनुरवत्ति मानी जावबबी ५३ ५८ स्वय तस्थे०

घचिर तथाडइगूगीता तो भगवात महेश्वरम्‌।

त्त प्रसन्न रामसूदए॒बृत्या रा थे प्रभु ॥५%॥

स्थय तस्थे तनल्ताभ्या प्रोत शिवतनु गिर

प्रकाशपल्चिज एप पस्यवक्तत्न भ्रिपस्यक्म ६० ।॥।

१२४ श्री शिवमहिस्न, स्तोव्रम [ दशम'

इस प्रकार दीर्घकाछतक दोनोवे झड्भूर की स्तुति की। उस अनुवृत्ति से शद्धभूर प्रसन्न हुए और भिवतनु होफर शिव अपना पश्चवकक्‍त व्यम्बक स्वरूप भ्रकाश्षित करते हुए उनके सम्मुस स्थित हुए ५९-६०

प्रेमाशुफलिलाक्षों चापततां तो प्रभोः पदो:। उत्याप्य स्वापितात्मानावनुजग्राह शड्भूर:॥ ६१॥ पटेन समपावृस्योपा दिशत्कर्णयोस्तयो: 3 पश्चाक्षर साप्रणवं अहामम्य प्रवोधयन्‌ ६२॥। शद्भूरके दर्शनसे ब्रह्मा विष्णु दोनोकी आखोमे आसू भर आये। दोनों प्रभुके चरणोमे पड गये। इस प्रकार समर्पितात्मा उन दोनोको उठाकर शकह्भूरने उनपर अनुग्नह किया वस्तसे पडदा छगाकर दोनोके

कानोमे प्रणवसहित पल्चाक्षर महामस्तवा उपदेश किया और प्रवोध कराया | ६१-६२

अकारः पत्चसान्नः स्यान्मात्राश्वाकारससुता-॥ उकारश्च मकारध्व बिन्दुर्नादश्च पतश्च त्ता:॥ ६३॥॥ नम शिवाय मन्‍्तस्थस्ता हि पश्चमिरक्षरेः। व्यास्यायन्ते लतः सुक्मस्थूलरूपावुमों मती ६४॥॥ वकार पाँच माता वाला है। अं, उ, म, बिन्दु, नाद ये पाँच मानायें है। नस शिवाय मन्त्रमे स्थित पाँच अक्षरोसे उन्ही सान्राओकी च्याख्या होती है। पाँच माजाये सुक््मरूप हैं, पाँच अक्षर स्पूलरुप है, यही फरक है ६३-६४ उदक्‌ प्रत्यणयाक्‌ प्राक्‌ शिरास्पुध्वं तू प्चमिः। उच्यन्ते पर्यकृत्यस्थ मम सात्राभिरक्षरें: ६५॥ सृष्टि: स्थितिश्य सहारस्तिरोधानमनुग्रह एवानि पत्चकृत्यानि मम पस्चमु्े: क्रमात्‌ ६६॥ उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व और ऊध्बे इस प्रवार मेरे पाँच मस्तक है! मै पच्चवृत्यवाला हूं पाँच मात्राओसे अक्षरोंस इन मस्तकोका निरूपण है। पाँच दृत्य हैं. सृष्टि, स्थिति, सहार, तिरोघान और अनुग्रह इन कृत्योत्रो मैं पाँच मुखोसे करता हो ६५ ६६ सा कृपातासनिर्मात सृप्दभादोी तु फदाचना पीर भिसान फर्तेव्य कुर्बतों हि बन्धनम्‌ ६७॥

खोकः |] स्पन्दवा तिकसहितम्‌ १२९

सृष्टचाद्यमिसतिरेव कलहो. य्रुवयोरमृत्‌ ततस्तां सर्वथा त्यवत्वा कुरुत॑ जपमुत्तमम्‌ ६८ जप्येनेव हि सिध्येतां युवां नेवास्ति संशय: मत्स्वरूप॑ ततो ज्ञात्वा विमुय्तों बिहरिष्यथः॥ ६९ सृष्टि आदि पाँच कृत्स मेरे हैं। अत उनमे तुम अभिमान करो। अभिमान छोड़कर पतेब्य करनेवालेनों बन्धत नही होता सृष्टि आदिमे अभिमान होनेसे ही आप दोनोमे अभी अभी परस्पर कलह हुआ। अत* उस अभिमानकों छोडवर पन्चाक्षर मन्त्र जप करो | जपसे आपको सिद्धि प्राप्त होगी। इससे मेरा परमार्थेस्वरूप जानकर मुबत हो विहार करोगे ६७-६९ || अह्या पूर्य' पुष्करे स्यात पुच्छे गो: प्जयिष्यते केतकी ह्वतृतीयायां निथों पूजञाहुतां श्नजेतु ७० ॥। इत्युकत्वा ये हरः प्रीत्या तत्रेवान्त्दधे प्रभः मुमुदाते परा सब्ध्वा तिंद्धि दुहिणमाधवों ७१॥॥ ब्रह्माक्षणालया नित्य व्ंते जपतत्पर*। हरे: फमलसाहरुपूजा. वक्ष्यामहेध्प्रतः ] ७२॥ा ईश्वरत्वमपच्चेतागृदी पूज्याबुभावपि तवानुवृत्तिह फ्ल थभि गे दद्याज्जयत्तये ॥| ७३ ब्रह्मा पुष्करराजमे पूजित होगे गायकी पूंछऊ़ी पूजा होगी केवडा ढुतीयाको केंबडापूजब होगा एसा कहकर छद्भर भगवान अन्‍्तर्धान हो गये। परम सिद्धिको प्राप्तकर ब्रह्मा और विष्णु मुदित हुए। अक्षमाला छेकर ब्रह्म आज भी पदन्नाक्षर जप करते है। विष्णुकी क्मलसहस्रपूजा आगे बतायेगे | दोनो ईश्वरत्वको प्राप्त हो गये झड्धूरपूजन त्रिकोकमे क्या फल नही देता ? ७०-७३ !॥ विरिचाद्यपरिच्छेद्यमनाधन्त छृपानिधिम्‌ झशेषफलदातार सिदानन्द शिव भजे ७४७ जो विरिश्व आदिके अग्रम्य है, अनादिभनन्त है, कृपानिधान हैं, सकल फछदाता है, ऐसे आनन्दस्वर्प ज्योतिस्वरूप शिवक्ा मैं भजन करता हूँ ७४ ॥। ४; इति आओ काशिकानन्यपोंगिनः कृतिनः कृतौ महिस्नःस्तोत्नविदृती स्पन्दोउ्प दशमों ग्रतः॥ १०

(2४ एकादश: इलोकः

उत्क्ृप्टा: साक्ष्यिका एवं विष्ण्वाद्या: पाम्ति कि फलम। तथा चेवधादादीनाँ बूथा. भक्तिमंविष्यति मय. वश्ाममाद्याश्न तामसा लेगिरे. फलमू। सुतरां लम्यमस्गासिः फलमित्युच्यतेब्युना !!

“तब किमनुवृत्तिन फ़टलि” बताया। उदाहरणरूपेण ब्रह्मा और विष्णुको पस्तुत किया ता प्रश्न हुआ क्ि ब्रद्मा विए्णु जैसे उत्कृष्ट, परम सात्विक उपाराज ही फल पाले है गया ? यदि ऐसा है तो अस्मदादिकी भवित बथा होगी। इसबा समाधान यहाँ दिया जा रहा है कि ब्रह्मादि एकदेशोदाहरणमात्र है रावण जैसे तामस व्यक्ति भी भगवद्भक्तिसे फल पा चुके हैं | हमे तो गुतरा फछ प्राप्त टोगा। क्योंकि हम उतने अधिक तामस तो नही है, जैसे रावणदि है १-२

अयत्नादापाद्य तिभ्ुवनमवे रव्यतिकरं दक्षास्यो यदुबाहुनभुत रणकण्डुपरवशान्‌ शिरः पद्म श्रेणीरचितचरणोपम्मोरुहवलेः स्थिरायास्टव:ड्ूबतेस्न्रिधुरहर पिस्फूजितरमिदम्‌ ॥११४ अनायास ही निभुवनकों प्रतिट्वन्दी रहित बनाकर रावण युद्धकी खुजलीवाली अपनी बाहुओसे परेशच्चान जो हुआ, वह हे सिपुरारी शद्धूर !

आपके चरणोमे पद्मदत्‌ अपने मस्तकसमूह चढाते हुए की हुई उसकी अपनी स्थिर भक्तिका ही टड्लार था ११

सातुः शयान क्ोडे विमान ग्गनेचरम्‌। फकिकिणोरावमधुरमपश्यद्रावण: शिशु:॥ किमेतत्कस्प वा मातरित्युक्ता सा जयाद तम्‌? भ्ाता तवास्त्येडबिडो चिसानस्तस्य खल्वपम्‌॥ ॥।

पद्यस्तथा भहापद्य शब्दों मकफरफच्छपो) सुकुन्दकुन्दनीलाध्य॒ खर्वाश्थव निधयो मब॥५४७

श्लोक: ] स्पन्दवा तिकसहितम्‌ १३१

निघीनां पतिरेतेषां से शड्भूरकृपावशात्‌

प्रभाधिपः भुवने विमान तस्‍्य प्रुष्पकम्‌ ॥।

त्व॑ चैधस्व क्रपां तस्य प्राप्य कंलासबासिनः

घूनीहि व्यथ्िताया में ब्यर्थां तन्‍्मातृसंपदा॥

एक दिनकी बात है-शिशु रावण अपनी माँकी गोदमें छेटा था

ऊपरसे किड्धिणीवी भावाजरों युक्त गगनगामी एक विमान उसने देख्रा मह क्या उड रहा है, किसका है ? ऐसा रावणने पूछा तो माताने कहा-- तुम्हारे सौतेले भाई कुवेरका यह विमान है वह शड्भूरक्ृपासे पद्म, महाप्ञ्म, शद्भ, मकर, कच्छप, मुकुन्द, बुन्द, नील, खर्ब ऐसे नौ निधियोंका प्रति है, ससारमें धनपति है। उसके इसी विमानको प्ृष्पक विमास कहते है। मेरे वत्स ! तुम भी कभी शद्भू रक्षपा प्राप्त कर आगे बढो और कुबेरकी माताकी सम्पत्ति देखकर व्यथित मेरे हृदयकी व्यथा दूर करो ३-७

सातुगिराध्मवत्तस्थ श्रीततिः सा पीविकी हुरे।

श्वद्भी भूज्ञी रावणश्व कुम्मकर्णाश्व यत्स्मृतो ॥।

नारबेन. प्रशप्ती तो राक्षसत्वमुपेयतुः

देवषें, कपिवकनतत्व॑ दुष्टूवा जहसतुहि योौ॥ ९४

माताके मुखसे शद्भूरभगवानकी वात सुनते ही रावणके पूर्वजन्मीय शुद्धूरप्रीति जागृत हुई। क्योकि रावण और कुम्भकर्ण पूर्वजन्मके शिवगण श्रद्धी भद्ी ही तो थे। नारदजीऊे शापसे वे राक्षस बन गये थे देवधिके वानरमुखकी देखकर जो हँसे थे जिससे उनको घाप मिला था॥ ८-९ पितामहात्‌ पुलस्त्यात्‌ लब्ध्वा पत्ताक्षरं ममुम्‌ तपो$तिदारुण॑ तेपे.. राबणो. लोकरावण, १०॥